पूरा हो सामाजिक एका का अधूरा एजेंडा: यदि आंबेडकर से सीख लेकर सामाजिक एकता के रास्ते बनाए जाते तो समाज बहुत आगे जाता

समय बदल रहा है और साथ ही सामाजिक आजादी का प्रकाश हमें आलोकित करने लगा है। हमारी पीढ़ी अपने दायित्वों को निभाए। एक सशक्त राष्ट्र के भविष्य में हमारी साझा भागीदारी आहिस्ता-आहिस्ता इतिहास की गलतियों को भुला देगी।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Wed, 14 Apr 2021 02:33 AM (IST) Updated:Wed, 14 Apr 2021 02:33 AM (IST)
पूरा हो सामाजिक एका का अधूरा एजेंडा: यदि आंबेडकर से सीख लेकर सामाजिक एकता के रास्ते बनाए जाते तो समाज बहुत आगे जाता
हमें बाबासाहब का स्मरण ही नहीं करना होगा, उनके दिखाए-बताए रास्ते पर चलना भी होगा।

[ आर. विक्रम सिंह ]: धर्म संस्कृति के विकास एवं संरक्षण और धर्म को जीवंत बनाए रखने से संबंधित कई महत्वपूर्ण प्रश्न रह-रहकर उठते हैं। जब बाबासाहब भीमराव आंबेडकर का स्मरण होता है, तब ऐसे प्रश्न विशेष रूप से उठते हैं, लेकिन बावजूद इसके जातीय एवं क्षेत्रीय और अगड़े-पिछड़े जैसे खांचे कम होने का नाम नहीं ले रहे हैं। स्थिति यह है मानों समाज हरसंभव दिशा से खंडित हो जाने के बहाने खोज रहा है। बाबासाहब का जन्मदिवस सामाजिक आजादी की समीक्षा का आदर्श अवसर है। मार्च 1930 को बाबा साहब ने नासिक में कालाराम मंदिर में दलित प्रवेश का सत्याग्रह चलाया था। तब पुजारी रामदास और स्थानीय समर्थ समाज ने दलितों का प्रवेश नहीं होने दिया। इससे पहले बाबासाहब ने 1927 में महाड़ में जल सत्याग्रह भी चलाया था। तब जातिश्रेष्ठता का अहंकार समाज पर भारी था।

लोकतांत्रिक अधिकार मिला, मगर सामाजिक एकीकरण हमारी प्राथमिकता न बन सका

बाबासाहब के बाद गांधी जी ही एकमात्र नेता थे, जिन्होंने इस अलगाव के भावी खतरे को पहचाना और इसे समाप्त करना अपना मिशन बनाया। पूना पैक्ट और राजनीतिक आरक्षण के प्रविधान के अलावा दूसरा जो सबसे बड़ा कार्य उन्होंने किया, वह था बाबासाहब को संविधान ड्राफ्ट कमेटी का अध्यक्ष बनाना। हम स्वतंत्र हो गए। हमें बराबरी का लोकतांत्रिक अधिकार मिला, मगर सामाजिक एकीकरण हमारी प्राथमिकता न बन सका। वीएस नायपॉल ने अपनी पुस्तक ‘ए मिलियन म्यूटिनीज’ में भारत में उत्तर से दक्षिण तक कितने ही अलगाववादी, आतंकी, नक्सली प्रकृति के विद्रोहों का शिकार होते जाति वर्गों में विभाजित हो रहे देश का वृत्तांत लिखा था। यदि जनकल्याणकारी योजनाओं और आरक्षण के माध्यम से इस देश के वंचित समाज को अवसर दिए जाने की सोच न आई होती तो ऐसा वृत्तांत आज भी सामने होता। इसके कितने घातक परिणाम होते, इसकी कल्पना ही की जा सकती है।

शूद्र वर्ण को श्रम और वैश्य वर्ण को धन का माध्यम बना लिया गया था

क्या कभी यह सोचा गया है कि आखिर हमारे समाज के करीब 75 प्रतिशत लोग चेहराविहीन रहकर गाय-भैंस चराते रहे, लोहार या बढ़ई बनकर अपना काम करते रहे, मछली मारकर, मृत जानवरों का चमड़ा उतारकर या महुआ बीनकर जीवन चलाते रहे, वे किसकी जय करें? वे कौन सा इतिहास पकड़ लें? संविधान से पहले उन्हें मंदिरों के पास फटकने तक नहीं दिया गया तो वे किस धर्म संस्कृति की, किन नायकों की बातें करें? किस पर गर्व करें? वे तो बरम बाबा, काली कलकत्ते वाली तक ही रह गए। गीता, वेद-वेदांत उनके लिए नहीं थे। शूद्र वर्ण को श्रम और वैश्य वर्ण को धन का माध्यम बना लिया गया था। आखिर इन शोषितों को कौन सा धर्म दिया गया? कथित उच्च वर्णों को छोड़ दें तो शेष भारतीय समाज के नायक कौन हैं? वे किससे प्रेरणा ग्रहण करें? कुछ समय पहले तक कोई उन्हें अपने नायक उधार देने को भी तैयार नहीं था।

पूर्वजों ने शूद्रों के लिए मंदिर बंद रखे, उनके साथ भोजन करने को तैयार नहीं थे

आज आजाद भारत में जब वह समृद्ध हो रहा है तो अपनी धार्मिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक अभिव्यक्ति के लिए कहां जाए? क्या किसी ने कभी सोचा है कि आखिर महाराणा प्रताप, शिवाजी महाराज सरीखे भारत के ऐतिहासिक चरित्र हमारे गरीब भारत के सहज नायक क्यों नहीं बन सके? गरीब तबका कभी बुद्ध को पकड़ता है तो कभी बाबा कबीर, बाबा रैदास को, कभी ज्योतिबा फुले को तो कभी अभंग भक्तों की प्रार्थनाओं को। बिजली पासी, झलकारीबाई, बिरसा मुंडा, सुहेलदेव आदि उनके नायक हैं। हमारे पूर्वजों ने उनके लिए मंदिर बंद रखे, वे उनके साथ भोजन करने को भी तैयार नहीं थे।

सत्ता की राजनीति जाति विभाजित कर रही

आज भी सत्ता की राजनीति हमें विभाजित कर रही है और हमारे अनेक मठाधीश हमें एक रखने का उपक्रम भी नहीं कर रहे हैं। हमारे कई धर्माधिकारीगण जाति विभाजन के सवालों को संबोधित ही नहीं करते, बल्कि आज भी जातीय श्रेष्ठता भाव के साथ ही खड़े हैं। वे ईसाई बन रहे निर्धन समाज की वापसी के लिए प्रयास करने भी नहीं जाते। वे पालघर नहीं गए, झारखंड नहीं गए, राजस्थान नहीं गए।

सामाजिक एकता के रास्ते बनाए जाते तो समाज बहुत आगे जाता 

यदि बाबासाहब से सीख लेकर सामाजिक एकता के रास्ते बनाए जाते तो समाज अब तक बहुत आगे आ गया होता। हालांकि सीमित प्रयास हो रहे हैं और उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। हैदराबाद के रंगनाथ स्वामी मंदिर के पुजारी एक दलित भक्त को वेदमंत्रों के बीच अपने कंधे पर बैठाकर गर्भगृह में ले जाते हैं। इसी तरह पटना के हनुमानजी मंदिर में दलित पुजारी हैं, लेकिन सामाजिक एकता का मार्ग लंबा है। इस मार्ग को सुगम बनाना है तो हमें बाबासाहब का स्मरण ही नहीं करना होगा, उनके दिखाए-बताए रास्ते पर चलना भी होगा। यही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी। उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए यह अवश्य ध्यान रखना होगा कि बाबासाहब ने हिंदू-समाज में व्याप्त भेदभाव से क्षुब्ध होकर मतांतरण अवश्य किया, परंतु सनातन परंपरा के और भारतीय मूल के बौद्ध धर्म को अपनाया, क्योंकि वह समस्याओं का समाधान भारतीय दृष्टिकोण से करना चाहते थे। संयोग से आज इसी दृष्टिकोण से प्रेरित राष्ट्रवादी अभियान देश के मानस को एक करने का काम कर रहा है, अन्यथा कुछ समय पहले तक देश के कई हिस्सों में जाति-परिवारवादी सत्ता और जातीय विभाजन का भयावह परिदृश्य था।

जातिवादी सोच का समापन और सामाजिक एकीकरण का अभियान एक महान राष्ट्रीय कार्य

फिलहाल राष्ट्रवाद के माहौल ने एक सीमा तक ही सही, जातीय शक्ति प्रदर्शन स्थगित करा दिया है। जातीय श्रेष्ठता के अभिमानियों को अपना नकली अहंकार त्याग इस राष्ट्रवादी काल को अवसर के रूप में देखना चाहिए। इसका रास्ता बाबासाहब आंबेडकर ने बताया है। जातिवादी सोच का समापन और सामाजिक एकीकरण का अभियान एक महान राष्ट्रीय कार्य होगा। हम वैदिक सिंधु-सरस्वती संस्कृति और सनातन धर्म के मार्ग से आए हैं।

न कोई जन्म से शूद्र है, न कोई जन्म से ब्राह्मण

न कोई जन्म से शूद्र है, न कोई जन्म से ब्राह्मण। ये कर्मणा दायित्व हैं, जो दूषित होकर जन्म आधारित हो गए थे। यह सुखद है कि आज आजादी के योद्धाओं में रेजांगला के योद्धा, खेमकरन के शहीद, गलवन के वीर हम सबके नए हीरो हैं। क्या शबरी माता के बेर खाते राम में कोई जातीय अभिमान था? नहीं। तो फिर हम जाति व्यवस्था के आग्रही क्यों बने हुए हैं? जातियों का समय पूर्ण हुआ। वे अपने विभेदों सहित तिरोहित हो जाएं। आज कालाराम मंदिर के पुजारी सुधीरदास को ग्लानि होती है कि उनके बाबा रामदास को आंबेडकर जी को मंदिर प्रवेश से नहीं रोकना चाहिए था। समय बदल रहा है और साथ ही सामाजिक आजादी का प्रकाश हमें आलोकित करने लगा है। हमारी पीढ़ी अपने दायित्वों को निभाए। एक सशक्त राष्ट्र के भविष्य में हमारी साझा भागीदारी आहिस्ता-आहिस्ता इतिहास की गलतियों को भुला देगी।

( लेखक पूर्व सैनिक एवं पूर्व प्रशासक हैं )

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