येचुरी की दृष्टि में रामायण-महाभारत में हिंसा है, लेकिन उन्हें ‘वसुधैव कुटुंबकम’ वाला दर्शन नहीं दिखाई पड़ता

‘अहिंसा की कल्पना का संबंध ध्येय से था। इसका मतलब यह नहीं था कि जरूरी हो तब भी हिंसा नहीं करनी चाहिए।’

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Mon, 06 May 2019 05:50 AM (IST) Updated:Mon, 06 May 2019 05:50 AM (IST)
येचुरी की दृष्टि में रामायण-महाभारत में हिंसा है, लेकिन उन्हें ‘वसुधैव कुटुंबकम’ वाला दर्शन नहीं दिखाई पड़ता
येचुरी की दृष्टि में रामायण-महाभारत में हिंसा है, लेकिन उन्हें ‘वसुधैव कुटुंबकम’ वाला दर्शन नहीं दिखाई पड़ता

[ हृदयनारायण दीक्षित ]: हिंसा और करुणा समतुल्य नहीं हैं। बेशक गाय और हिंसक शेर दोनों ही पशु हैं, लेकिन मातृवत गाय और हिंसक शेर की तुलना नहीं हो सकती। खलील जिब्रान ने ठीक लिखा था कि ‘मेंढक बैलों की अपेक्षा भले ही अधिक शोर कर लें, लेकिन वे न तो खेतों में हल खींच सकते हैं और न ही कोल्हू के चक्र को हिला सकते हैं।’ तुलना हमेशा समतुल्यों के बीच ही होती है, लेकिन मार्क्सवादी नेता सीताराम येचुरी ने हिंसक पंथिक विचारधारा की तुलना उदारचित हिंदू मानस से की। उन्होंने कहा कि ‘यह कहना गलत है कि हिंदू हिंसा में विश्वास नहीं करते। रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्य हिंसा से भरे हैं।’ येचुरी के बयान पर तीखी प्रतिक्रिया हुई है। रामायण और महाभारत भारतीय राष्ट्रजीवन के उदात्त उद्देश्यों से भरे हैं। येचुरी माक्र्सवादी हैं। मार्क्सवाद की अपनी विवेचन दृष्टि है। येचुरी अपनी स्थापना के लिए स्वतंत्र भी हैं, लेकिन भारतीय संस्कृति और दर्शन को समझने में उन्होंने ऐतिहासिक गलती की है। वामपंथी हमेशा ऐतिहासिक गलतियां करते रहे हैं इसीलिए विलुप्तप्राय होते जा रहे हैं। वाल्मीकि रचित रामायण और व्यास की महाभारत में हिंसा की पक्षधरता नहीं है। यहां युद्ध की अपरिहार्यता में ही युद्ध हैं। ऐसे युद्ध लोकमंगल का राष्ट्रधर्म हैं।

वामपंथ का इतिहास हिंसा से भरा है। येचुरी की मार्क्सवादी दृष्टि में रामायण-महाभारत में हिंसा है। उन्हें इनमें विश्व को एक परिवार जानने वाला दर्शन नहीं दिखाई पड़ता, लेकिन वरिष्ठ मार्क्सवादी चिंतक डॉ. रामविलास शर्मा को ऐसा दिखाई पड़ता है। वह ‘भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश’ में लिखते हैं ‘रामायण ऐसे युग की रचना है जब मनुष्य स्वतंत्र है। वाल्मीकि में जगह-जगह उदात्त स्वर सुनाई देता है। उसका रहस्य यही है। मनुष्य को अपने ऊपर विश्वास है। विपत्तियां परिस्थितियों के कारण उत्पन्न होती हैं। इन्हें वह नियति कहता है। परंतु नियति कोई देवता नहीं है।’ वह लिखते हैं, ऐसा धर्मनिरपेक्ष काव्य शायद ही किसी और ने लिखा हो।’ डॉ. शर्मा ‘रामायण’ को ‘धर्मनिरपेक्ष’ काव्य बताते हैं। ‘महाभारत’ भी ऐसा ही है। इसकी रचना दीर्घकाल में हुई है।

जीसी पाण्डेय ने ‘द महाभारत रिविजिटेड’ में बताया है कि यह लगभग 800 ईसा पूर्व से लेकर 200 ईसवी तक हजार साल की अवधि में फैला हुआ है।’ यह अवधि और पीछे भी संभव है। इसमें ऋग्वेद की प्रेमपूर्ण परंपरा, उपनिषदों का अद्वैत दर्शन व हड़प्पा की सभ्यता है। उदात्त जीवनमूल्य हैं। महाभारत यथार्थवाद से भरापूरा है।

महाभारत का मूल स्वर हिंसा विरोधी है। हिंसा का जैसा विरोध ‘महाभारत’ में है, वैसा अन्यत्र नहीं है। भारत भूमि की प्रशंसा में कवि कहता है, ‘यह भूमि देवों और मनुष्यों की इच्छाएं पूरी कर सकती है, लेकिन जैसे कुत्ते मांस के लिए परस्पर लड़ते हैं, एक दूसरे को नोचते हैं उसी प्रकार राजा इस पृथ्वी को भोगने के लिए लड़ते हैं, लेकिन आज तक किसी की कामनाओं की पूर्ति नहीं हुई।’ युधिष्ठिर युद्ध के बाद आहत थे। उन्होंने अर्जुन से कहा, ‘हमने बंधु-बांधवों को मरते हुए देखा है। अब तीनों लोकों का राज्य देकर भी कोई संतुष्ट नहीं कर सकता। जैसे मांस लोभी कुत्तों को अशुभ ही मिलता है, उसी प्रकार राज्य आसक्ति में हम लोगों को भी अनिष्ट मिला है।’

महाभारत के शांति पर्व के अनुसार विचार-विमर्श का स्थान ‘सभा’ है। सभा की शक्ति दुर्बल है। यहां सभा को जीवंत बनाने के प्रयास भी हैं। सभा में किसानों का प्रतिनिधित्व कम रहा होगा। व्यास की घोषणा है, ‘जो खेती नहीं करता उसे सभासद होने का अधिकार नहीं।’ सभा में उत्पात भी थे। जुआ सभा भवन में हुआ था। विदुर ने सभा का विशेषाधिकार बताया, ‘सभा के उत्पात का 25 प्रतिशत दोष उत्पत्तियों का, 25 प्रतिशत दोष मौन रहने वालों का और आधा दोष सभाध्यक्ष का है। सभा जैसी संस्थाओं में सुधार के प्रयास भी महाभारत में हैं।

बेशक रामायण-महाभारत के कथानक में हिंसा है, लेकिन दोनों महाकाव्यों के नायकों पर युद्ध थोपे गए हैं। रामायण के महानायक श्रीराम की पत्नी सीता का हरण हुआ था। श्रीराम ने तब भी दूत भेजा। रावण ने सीता को मुक्त नहीं किया। श्रीराम क्या करते? युद्ध टालने के प्रयास असफल हो गए तब युद्ध हुआ। यह पंथिक युद्ध नहीं था। रावण शिव उपासक था तो श्रीराम भी। श्रीराम रावण पर अपना धर्म नहीं थोप रहे थे। आधुनिक विश्व पंथिक दुराग्रहों को लादने वाली कट्टरपंथी हिंसा की चपेट में है। पंथ थोपने की हिंसा और पत्नी मुक्ति के प्रयासों में हुई हिंसा तुलनीय नहीं है।

महाभारत का युद्ध पारिवारिक संपदा को हड़पने वाले कौरवों व अपने हिस्से से भी कम लेने को तैयार पांडवों के बीच था। कौरव पांडवों के धार्मिक विश्वास, कुल, वंश एक थे। इनमें कोई पंथिक कट्टरवादी नहीं था। इसकी तुलना पंथिक दुराग्रहों वाली हिंसा से कैसे हो सकती है? येचुरी भी पांडवों का पक्ष सही मानते रहे हैं। उन्होंने कुछ समय पहले अपने पक्ष को पांडव व भाजपा को कौरव बताया था। यों उनका नाम ‘सीताराम’ रामायण का ही प्रसाद है।

दर्शन और विज्ञान के सामने झूठे तर्क नहीं टिकते। कार्ल माक्र्स ने अपने शोध की भूमिका में डेविड ह्यूम को उद्धृत किया है ‘दर्शन की सत्ता को स्वीकार किया जाना चाहिए। यह उसका अपमान है कि वह अपने निष्कर्षों के लिए क्षमा याचना करें।’ भारत के उदात्तवादी दर्शन को कट्टरपंथी पंथिक हिंसावादियों के सामने जवाबदेह नहीं बनाया जा सकता। रामायण-महाभारत प्रेरक महाकाव्य हैं। मार्क्सवादी डॉ. शर्मा के अनुसार ‘महाभारत इतिहास है, आख्यान है। वह वीर काव्य है। यूरोप और भारत में अनेक वीर काव्य लिखे गए हैं। किसी भी वीर काव्य में दार्शनिक विचारों का ऐसा तानाबाना आदि से अंत तक नहीं फैला हुआ है जैसा महाभारत में है।’ महाभारत के भीष्म पर्व की गीता विश्व दर्शन को भारत का अप्रतिम उपहार है। शांति पर्व में युधिष्ठिर व भीष्म के प्रश्नोत्तरों में अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, राजव्यवस्था आदि के विवरण हैं। यक्ष प्रश्न लोकायत दर्शन की जिज्ञासा हैं। ‘वसुधैव कुटुंबकम’ महाभारत की ही उदात्त घोषणा है। यहां युद्ध का ध्येय भी लोकमंगल है।

पंडित नेहरू ने ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में लिखा है, हिंदुस्तान के दो बड़े महाकाव्य रामायण और महाभारत शायद कई सदियों में तैयार हुए। मैं दुनिया की किसी ऐसी पुस्तक नहीं जानता, जिसने जनता के दिमाग पर इतना व्यापक प्रभाव डाला हो, जितना इन दो पुस्तकों ने डाला है।’ क्या हिंसा के कारण? या अपनी उपादेयता के कारण? नेहरू जी ने रामायण पर फ्रांसीसी इतिहासकार मिशले की टिप्पणी का हवाला भी दिया है- ‘पश्चिम में सभी चीजें तंग और संकरी हैं। यूनान का विचार करते समय मेरा दम घुटता है। मुझे पूरब की ओर देखने दो। वहां है मेरे मन का महाकाव्य। हिंद महासागर जैसा विस्तृत, मंगलमय। कशमकश के बीच यहां मिठास भरा भाईचारा है।’

नेहरू लिखते हैं ‘रामायण बहुत बड़ा ग्रंथ है। महाभारत दुनिया की खास पुस्तकों में एक है। इसमें हिंदुस्तान की मौलिक एकता पर जोर देने की निश्चित कोशिश है।’ हिंसा के बारे में वह लिखते हैं ‘अहिंसा की कल्पना का संबंध ध्येय से था। इसका मतलब यह नहीं था कि जरूरी हो तब भी हिंसा नहीं करनी चाहिए।’ गांधी का विचार भी यही था। पाकिस्तान ने युद्ध थोपे और हम लड़े तो क्या हिंसक कहे जाएंगे? हिंसा का अपना औचित्य है, लेकिन उदारता राष्ट्र जीवन का श्रेयस्कर मूल्य है।

( लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं ) 

लोकसभा चुनाव और क्रिकेट से संबंधित अपडेट पाने के लिए डाउनलोड करें जागरण एप

chat bot
आपका साथी