चीन के अतिक्रणकारी रुख को देखते हुए अब समय आ गया है कि तिब्बत के पक्ष में आवाज उठाए भारत

दमनकारी चीनी शासन के शिकंजे में रहते हुए भी तिब्बत में स्वतंत्रता की चिंगारी अभी शेष है।

By Dhyanendra SinghEdited By: Publish:Fri, 03 Jul 2020 01:28 AM (IST) Updated:Fri, 03 Jul 2020 01:31 AM (IST)
चीन के अतिक्रणकारी रुख को देखते हुए अब समय आ गया है कि तिब्बत के पक्ष में आवाज उठाए भारत
चीन के अतिक्रणकारी रुख को देखते हुए अब समय आ गया है कि तिब्बत के पक्ष में आवाज उठाए भारत

[नीरजा माधव]। तिब्बत जब तक बफर स्टेट के रूप में भारत और चीन के बीच एक स्वतंत्र राष्ट्र था तब तक भारत के साथ चीन का सीमा विवाद न के बराबर था, लेकिन जब से चीन ने अपनी विस्तारवादी नीति के चलते तिब्बत जैसे शांति प्रिय राष्ट्र को हड़प लिया तब से वह भारत की सीमाओं में घुसपैठ की चेष्टा करने लगा। अब तो वह अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा करते हुए उसे दक्षिणी तिब्बत का नाम देने लगा है। चीन के अतिक्रमणकारी रुख को देखते हुए समय आ गया है कि भारत भूल सुधार करे और तिब्बत के पक्ष में आवाज उठाए। उसे इसकी भी कोशिश करनी चाहिए कि विश्व समुदाय भी उसके साथ अपनी आवाज बुलंद करे। वैसे भी तिब्बत की मुक्ति का मुद्दा आज भी जीवंत है। चीन अधिकृत तिब्बत में रहने वाले अधिकांश तिब्बती दुनिया से बिल्कुल अलग-थलग करके रख दिए गए हैं, फिर भी दूसरे देशों में रहने वाले तिब्बती उनकी मुक्ति साधना यानी फ्रीडम मूवमेंट की ताकत बने हुए हैं।

हर दस मार्च को क्रांति की लौ थोड़ी और प्रज्वलित हो उठती है

दस मार्च तिब्बत के इतिहास में काफी महत्वपूर्ण दिन है। यह तिब्बत की सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक विरासत लुट जाने का दिन है। यह भयंकर रक्तपात और जनसंहार के बाद तिब्बतियों की अहिंसक मुक्ति साधना के प्रारंभ का दिन है। तिब्बती दूसरे देशों में शरणार्थी के रूप में इसीलिए हैं कि उन्हें एक दिन अपने आजाद राष्ट्र तिब्बत में जाना है। हर दस मार्च को क्रांति की यह लौ थोड़ी और प्रज्वलित हो उठती है। किसी भी स्वाधीनता आंदोलन की गति यह होती है कि हर अगला आंदोलन पिछले से बड़ा होता जाता है, जब तक कि वह अपना लक्ष्य प्राप्त न कर ले।

भारत समेत दुनिया का एक बड़ा वर्ग तिब्बत के पक्ष में

भारतीयों समेत दुनिया के तमाम लोगों का एक बड़ा वर्ग तिब्बत के पक्ष में है। भारत की तो मुक्तिकामी राष्ट्रों के आंदोलन में सहयोग देने की प्राचीन परंपरा ही रही है। भारत के राजनीतिक वर्ग और यहां के समाज को इस परंपरा को ऊर्जा देनी चाहिए। हालांकि भारत से गलतियां कहां-कहां हुईं, इस पर भी विचार करना आवश्यक है। जिस समय 24 अक्टूबर, 1950 को पीकिंग रेडियो ने उद्घोषणा की कि चीन की लिबरेशन आर्मी तिब्बत में बढ़ रही है उसी समय भारत को भी सतर्क हो जाना चाहिए था। तब हमें नई-नई अंग्रेजों से मुक्ति मिली थी। ऐसे में तिब्बत की सहायता कर उसे बफर स्टेट के रूप में बनाए रखना भारत की सुरक्षा के लिए भी आवश्यक था। 1947 के बाद जब अंग्रेज भारत छोड़कर चले गए थे तब तक डाक-तार और व्यापार का सिलसिला भारत का तिब्बत के साथ था।

सपके अपने-अपने चीन के साथ निहित स्वार्थ थे

अधिकारपूर्वक भारत तिब्बत की मदद के लिए हाथ बढ़ा सकता था, परंतु उसने मौन साध लिया। उसे कम से कम अपने कूटनीतिक प्रयास तो तिब्बत के पक्ष में करने ही चाहिए थे। पूरा विश्व समुदाय भी मौन रहते हुए तिब्बत जैसे शांत राष्ट्र को चीन का भक्ष्य बनते देखता रहा। संभवत: सबके अपने-अपने चीन के साथ निहित स्वार्थ थे। जिस समय 1959 में तिब्बत की बहादुर जनता ने वहां एक जन-आंदोलन खड़ा कर दिया उस समय भारत जैसे बड़े देश को चाहिए था कि वह विश्व जनमत जागृत करके तिब्बत के पक्ष में राय कायम करता। ऐसे देशों को एकजुट करता जो चीन की साम्राज्यवादी नीति से स्वयं के लिए खतरा महसूस कर रहे थे।

केवल आलोचना-निंदा से अहंकारी चीन पर नहीं पड़ने वाला कोई असर

संयुक्त राष्ट्र 1959-60 और 1965 में प्रस्ताव पारित करके चीन द्वारा तिब्बती लोगों के दमन की कड़ी आलोचना कर चुका है। भारत में भी कई बार सदन पटल पर यह मुद्दा लाया जा चुका है। अमेरिका की सीनेट ने 1991 में तिब्बत को चीन द्वारा गुलाम बनाए हुए देश के रूप में मान्यता देते हुए तिब्बतियों की मुक्ति साधना का समर्थन किया, लेकिन इन सबका चीन पर बहुत ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ा। केवल आलोचना-निंदा से अहंकारी चीन पर असर पड़ने वाला नहीं। वह प्रारंभ से ही विस्तारवादी देश रहा है। आस-पास के देशों के भू-भाग पर कब्जा करने की उसकी मनोवृत्ति बढ़ती जा रही है। तिब्बत, पूर्वी तुर्किस्तान, दक्षिणी मंगोलिया, ताइवान, हांगकांग आदि के साथ अब वह नेपाल और भूटान जैसे देशों पर भी अपने नजरें गड़ाए है।

1950 में चीन ने तिब्बत के पूर्वी क्षेत्र पर किया था हमला

1949 में चीनी शासक माओ ने दक्षिण एशिया के संबंध में एक टिप्पणी की थी कि तिब्बत हमारी हथेली है और लद्दाख, नेपाल, सिक्किम, भूटान और नेफा यानी अरुणाचल प्रदेश हमारी उंगलियां हैं। माओ की यह साम्राज्यवादी घोषणा तभी से चीन की दक्षिणी एशियाई नीति का आधार बनी हुई है। आज भी चीन ने जिस सीमा को भारत-चीन सीमा नाम दिया है, वास्तव में वह भारत-तिब्बत सीमा है। 1950 में चीन ने तिब्बत के पूर्वी क्षेत्र पर हमला किया और धीरे-धीरे 1959 तक उसकी सेना ने पूरे तिब्बत को अपना उपनिवेश बना लिया। इसी के तुरंत बाद चीन ने भारत के एक विशाल भू-भाग पर भी अपना दावा जताना शुरू कर दिया था, जिसका परिणाम था 1962 का भारत-चीन युद्ध।

किसी भी देश की जनता को लंबे समय तक दबाकर नहीं रखा जा सकता। किसी भी आक्रोश को जितना दबाया जाता है, उसका उभार उतना ही विस्फोटक होता है। तिब्बत एक बड़ा भू-भाग है, जिसकी अपनी पृथक राजनीतिक, भौगोलिक, सांस्कृतिक अस्मिता रही है। वहां के लोगों के रहन-सहन का अलग ढंग है जो चीनियों से मेल नहीं खाता। अस्सी प्रतिशत से अधिक वे भारतीय रीति-रिवाजों और रहन-सहन के करीब हैं। इसीलिए भारत को वे अपना गुरु देश मानते हैं। यह संबंध बौद्ध धर्म को अपनाने के काल से बहुत पीछे तक जाता है। दमनकारी शासन के शिकंजे में रहते हुए भी विदेशी शासन से मुक्ति की चिंगारी अभी तिब्बत में शेष है। रत्नगर्भा धरती की कोख से उगे पहाड़ों-सा संकल्प शेष है। समय की गूंज आकुल है अब निकलने को-तिब्बत, स्वतंत्र तिब्बत।

 

(साहित्यकार तिब्बत मुक्ति पर कई पुस्तकें लिख चुकी हैं)

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