अंग्रेजी वालों के मन में हिंदी का खौफ, निरंतर फैलाते रहते हैं भ्रामक बातें

अंग्रेजी वालों के बीच यह डर कायम रहता है कि उन्हें चुनौती देने वाली भाषा केवल हिंदी ही है। इसलिए वो निरंतर भ्रामक बातें फैलाते रहते हैं जबकि वास्तविकता यह है कि हिंदी के विकास के साथ ही सभी भाषाओं का विस्तार जुड़ा है।

By Monika MinalEdited By: Publish:Mon, 14 Dec 2020 01:20 PM (IST) Updated:Mon, 14 Dec 2020 01:20 PM (IST)
अंग्रेजी वालों के मन में हिंदी का खौफ,  निरंतर फैलाते रहते हैं भ्रामक बातें
अंग्रेजी बनाम हिंदी: आजादी के बाद गहरी हो गई खाई

नई दिल्‍ली [अनंत विजय]। कोरोना संकट शुरू होने के कुछ ही दिनों बाद शशि थरूर के साथ एक संवाद में हिस्सा लेने का अवसर मिला था। यह संवाद उनके लेखन से लेकर हिंदी को लेकर उनकी सोच पर केंद्रित हो गई थी। आयोजन प्रभा खेतान फाउंडेशन का था। उस कार्यक्रम में मैंने शशि थरूर से एक प्रश्न पूछा था कि गैर हिंदी भाषी विद्वानों ने कभी कहा था कि अंग्रेजी, हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं की साझा दुश्मन है। इस क्रम में मैंने भूदेव मुखर्जी और सी राजगोपालाचारी का नाम लिया था। तब शशि थरूर ने प्रतिवाद करते हुए कहा था कि राजगोपालाचारी ने यह नहीं कहा था, वो सबकुछ अंग्रेजी में करते थे। मैंने कहीं पढ़ा था कि राजगोपालाचारी ऐसा सोचते और कहते थे। 

दक्षिण भारत में हिंदी को राजगोपालाचारी का संरक्षण

अभी पिछले दिनों किसी शोध के क्रम में यह जानकारी मिली कि दक्षिण भारत हिंदी प्रचार समिति को राजगोपालाचारी का संरक्षण प्राप्त था और उनके मार्गदर्शन में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार समिति को काफी विस्तार मिला था। बहुत रुचि लेकर वह हिंदी प्रचार समिति के काम को आगे बढ़ाते थे। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की एक पुस्तक है 'वट पीपल' जो उनके निबंधों का संग्रह है। उसमें उल्लेख है कि किस तरह से राजगोपालाचारी हिंदी के विकास के लिए काम करते थे। वर्ष 1928 में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार समिति की एक पाठ्य पुस्तक की भूमिका में उन्होंने दक्षिण भारतीय लोगों को यह सलाह दी थी, 'जनता की भाषा एक और शासन की भाषा दूसरी होने से जनता संसद तथा विधानसभा के सदस्यों पर समुचित नियंत्रण नहीं रख सकेगी, इसलिए उचित यही है कि हम अपनी सुविधा के लोभ में आकर अंग्रेजी के लिए दुराग्रह न करें। यदि अंग्रेजी शासन की भाषा बनी रही तो इससे देश का स्वराज्य अधूरा रहेगा।'

राजनीति के कारण हिंदी के खिलाफ गए राजगोपालाचारी

वर्ष 1937 में जब राजगोपालाचारी मद्रास प्रांत के मुख्यमंत्री बने तो उस समय भी वह हिंदी विरोधियों के साथ काफी कड़ाई से पेश आए थे। इसी तरह से राजगोपालाचारी ने प्रजातंत्र पर एक छोटी सी पुस्तिका निकाली थी, उसमें भी उन्होंने हिंदी की पुरजोर वकालत करते हुए कहा था कि हिंदी इस देश की राष्ट्रभाषा हो कर

रहेगी। हिंदी को लेकर राजगोपालाचारी की यह राय काफी लंबे समय तक रही थी। स्वतंत्रता मिलने तक तो थी ही। यह भी सत्य है कि जब देश को स्वतंत्रता मिली और संविधान को अपनाने के साथ ही हिंदी को देश की राजभाषा का दर्जा मिला तो दक्षिण भारत में एक बार फिर हिंदी विरोधी आंदोलन शुरू हो गए। इस आंदोलन का भाषा से अधिक राजनीति से लेना देना था। बाद में तो हिंदी को अंग्रेजी  की तरह ही विदेशी भाषा तक करार दिया

गया था। अन्नादुरई और पेरियार के साथ मिलकर राजगोपालाचारी ने हिंदी के खिलाफ आंदोलन किया। वर्ष 1965 में जब एक बार फिर से हिंदी के विरोध में आंदोलन शुरू हुआ तो राजगोपालाचारी ने हिंदी का विरोध किया। ये सब दर्ज है, लेकिन हिंदी को लेकर राजगोपालाचारी के विचारों में यह बदलाव या विचलन राजनीति की वजह से आया। 

राजनीति से भाषाओं को हुआ है काफी नुकसान

हिंदी के प्रति उनके विरोध का यह अर्थ नहीं था कि उनका अंग्रेजी का विरोध कम हो गया था। मुझे लगता है कि शशि थरूर राजगोपालाचारी के बाद के स्टैंड पर बात कर रहे थे और मैं उनकी आरंभिक राय से भी अनभिज्ञ था। उस दौर के अन्य दस्तावेजों और पुस्तकों को खंगालने के बाद एक बात समझ आई कि इस देश में राजनीति ने भारतीय भाषाओं का बहुत नुकसान किया। हिंदी ने कभी भी अपने बड़े होने का दंभ नहीं भरा, लेकिन यह बात सुनियोजित तरीके से फैलाई गई। हिंदी को लेकर जिस तरह की राजनीति इस देश में होती रही है और उसका फायदा जिस तरह से अंग्रेजी वाले उठाते रहे हैं, उसको रेखांकित करना जरूरी है।

साहित्य अकादमी के एक वाकये का स्मरण होता है। विश्वनाथ तिवारी साहित्य अकादमी के अध्यक्ष थे। बताते चलें कि विश्वनाथ तिवारी साहित्य अकादमी के पहले हिंदी भाषी अध्यक्ष थे। उनके कार्यकाल में एक बैठक के दौरान अंग्रेजी का एक प्रतिनिधि खड़ा हुआ और तमतमाते हुए कहा कि आपको अंग्रेजी में अपना भाषण

देना चाहिए, क्योंकि यहां हिंदी के अलावा अन्य भाषाओं के प्रतिनिधि भी बैठे हैं। तब भारतीय भाषाओं के लोगों ने अंग्रेजी के प्रतिनिधि को चुप करवा दिया और विश्वनाथ तिवारी से हिंदी में अपना भाषण जारी रखने का अनुरोध किया था।

अंग्रेजी वालों के मन में हिंदी का खौफ...

दरअसल अंग्रेजी के लोगों ने हमेशा से हिंदी और भारतीय भाषाओं के बीच खाई पैदा करने की कोशिश की। गैर-हिंदी भाषी लोगों के मन में यह बात बैठाई कि अगर हिंदी का फैलाव होता है तो वह अन्य भारतीय भाषाओं तो दबा देगी। अंग्रेजी वालों को यह डर हमेशा सताता रहता है कि उनको चुनौती सिर्फ हिंदी से ही मिल सकती है। अगर हिंदी को सभी भारतीय भाषाओं का साथ मिल गया तो उनका बोरिया बिस्तर बंध सकता है। इसलिए वो लगातार भ्रामक बातें फैलाते रहते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि अगर हिंदी का विकास होता है तो उसके साथ सभी

भारतीय भाषाओं का विकास होगा। अंग्रेजी को अगर हटाया जाता है तो जो स्थान रिक्त होगा वह सारा हिंदी को

तो मिलेगा नहीं, बल्कि उसकी आर्पूित सभी भारतीय भाषाओं से होगी। महात्मा गांधी भी हमेशा यह कहते थे कि हिंदी को अपनाने का यह अर्थ कतई नहीं है कि अपनी अन्य भाषाओं का तिरस्कार। एक बात और कही जाती है कि अंग्रेजी ज्ञान की भाषा है।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति के नए ड्राफ्ट में हिंदी का नामो निशां नहीं

कोरोनाकाल में जिस तरह से भारतीय चिकित्सा पद्धति से  लेकर भारतीय जीवन शैली की ओर पूरी दुनिया का ध्यान गया है उसमें अंग्रेजी कहां है, इस पर भी विचार करने की जरूरत है। आपदा ने इस बात का निषेध ही नहीं,

बल्कि स्थापित भी कर दिया कि सिर्फ अंग्रेजी ही ज्ञान की भाषा नहीं है। अभी पिछले दिनों राष्ट्रीय शिक्षा नीति

पेश की गई है। शिक्षा नीति का जो 107 पेज का दस्तावेज बना है उसमें हिंदी का नामोल्लेख न होना अचरज में डालता है। क्या शिक्षा नीति बनानेवालों को या इसको ड्राफ्ट करनेवालों को भारतीय संविधान के भाषा संबंधी अनुच्छेदों का भान नहीं था या फिर वहां भी राजनीति घुस गई थी। क्या जानबूझकर एक रणनीति के तहत हिंदी का नामोल्लेख नहीं हुआ है? या फिर दक्षिण भारतीय राजनीतिक दल के आसन्न विरोध को ध्यान में रखते हुए शिक्षा नीति में एक बार भी हिंदी के नामोल्लेख से बचा गया। 

संपर्क भाषा के रूप में हिंदी को चाहिए मजबूती

कई लोगों के तर्क हैं कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति में जब भारतीय भाषा का जिक्र है तो अलग से हिंदी के उल्लेख का कोई औचित्य नहीं है। अगर ऐसा है तो राष्ट्रीय शिक्षा नीति के लागू होने के पहले संविधान को संशोधित किया जाना चाहिए। ऐसा नहीं है कि दक्षिण भारत के लोग हिंदी नहीं समझते हैं। इन प्रदेशों में लोग अंग्रेजी से ज्यादा हिंदी समझते हैं। हिंदी की व्याप्ति बहुत बढ़ी है और इस वजह से संवाद की सुगमता भी। दरअसल हमें इस बारे में विचार करना चाहिए कि प्रत्येक के लिए मातृभाषा और सबके लिए हिंदी। इसमें किसी तरह का कोई बड़ा भाई छोटा भाई जैसा भाव नहीं है। हिंदी को देश की संपर्क भाषा के रूप में मजबूती देनी होगी, क्योंकि संपर्क भाषा तो

वह बन ही चुकी है। हिंदी के खिलाफ जिस तरह की राजनीति होती है, उसे समझने के लिए केवल इतना जानना जरूरी है कि तमिलनाडु के राजनीतिक दल भी चुनाव के दौरान मदुरै इलाके में हिंदी में पोस्टर लगाते हैं। उनका हिंदी विरोध सिर्फ भावनाओं को भड़काकर वोट बटोरना है। उनको यह समझना होगा कि सत्ता हासिल करने के

लिए भाषा को औजार के तौर पर उपयोग करना अनुचित होगा। ह

हमारे देश में अंग्रेजी वालों ने निरंतर हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच दूरी पैदा करने का प्रयास किया है। गैर-हिंदी भाषी लोगों के मन में यह बात बैठाई कि यदि हिंदी का विस्तार होगा, तो इससे अन्य भारतीय भाषाओं का दायरा सीमित हो जाएगा। दरअसल अंग्रेजी वालों के बीच यह डर कायम रहता है कि उन्हें चुनौती देने वाली भाषा केवल हिंदी ही है। इसलिए वो निरंतर भ्रामक बातें फैलाते रहते हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि हिंदी के विकास के साथ ही सभी भाषाओं का विस्तार जुड़ा है।

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