Agricultural Reforms Bill: कुछ राजनीतिक दल और संगठन किसानों को भड़काकर सेंक रहे राजनीतिक रोटियां

यदि पुरानी व्यवस्था सही होती तो फिर यह मसला ही सतह पर नहीं होता कि किसानों के संकट को दूर किया जाना चाहिए।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Sun, 20 Sep 2020 12:28 AM (IST) Updated:Sun, 20 Sep 2020 07:36 AM (IST)
Agricultural Reforms Bill: कुछ राजनीतिक दल और संगठन किसानों को भड़काकर सेंक रहे राजनीतिक रोटियां
Agricultural Reforms Bill: कुछ राजनीतिक दल और संगठन किसानों को भड़काकर सेंक रहे राजनीतिक रोटियां

[ संजय गुप्त ]: भाजपा के सहयोगी दल शिरोमणि अकाली दल की ओर से कृषि से जुड़े विधेयकों के विरोध में उतर आने के बाद यह साफ है कि कृषि सुधार की पहल एक राजनीतिक मुद्दा बन गई है। इसी साल जून में जब ये विधेयक अध्यादेश के रूप में आए थे, तब शिरोमणि अकाली दल ने न केवल उनका समर्थन किया था, बल्कि पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह की इसके लिए आलोचना भी की थी कि वह गलतबयानी करके किसानों को गुमराह कर रहे हैं, लेकिन इन विधेयकों के संसद में पेश होने के बाद हरसिमरत कौर बादल ने केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। यह इस्तीफा इसीलिए आया, क्योंकि पंजाब में कांग्रेस कृषि विधेयकों को कुछ ज्यादा ही तूल दे रही है। वास्तव में जब शिरोमणि अकाली दल को यह लगा कि कांग्रेस के असर में आए राज्य के किसान उससे नाराज हो सकते हैं तो उसने हरसिमरत कौर को त्यागपत्र देने को कह दिया। यह हास्यास्पद है कि अब इस दल के नेता यह कह रहे हैं कि इन विधेयकों पर उससे राय नहीं ली गई।

यदि देशभर में किसान कृषि बिल के विरोध में उतरे तो मोदी सरकार के लिए होगी चुनौती

इससे ज्यादा हास्यास्पद यह है कि कांग्रेस ने बड़ी सफाई से यह भूलना पसंद किया कि 2019 के लोकसभा चुनाव में उसने अपने घोषणा पत्र में यह लिखा था कि वह कृषि उत्पाद बाजार समिति कानून यानी एपीएमसी एक्ट को खत्म करके कृषि उत्पादों की खरीद-बिक्री को प्रतिबंधों से मुक्त करेगी। महज डेढ़ साल में उसने यू टर्न ले लिया, क्योंकि उसे यह लग रहा है कि वह किसानों को उकसाकर अपना राजनीतिक उल्लू सीधा कर सकती है। हालांकि फिलहाल कृषि विधेयकों का विरोध पंजाब और हरियाणा में अधिक है, लेकिन अगर देश के अन्य हिस्सों के किसान उनके विरोध में उतरे तो यह मोदी सरकार के लिए वैसा ही चुनौतीपूर्ण मसला बन सकता है, जैसा भूमि अधिग्रहण कानून बना था और जिससे उसे पीछे हटना पड़ा था। सरकार को यह पता होना चाहिए था कि कृषि विधेयकों को लेकर कुछ राजनीतिक दल और किसान संगठन किसानों को भड़काकर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए किसानों को बरगला सकते हैं।

कृषि विधेयकों का ज्यादा विरोध पंजाब और हरियाणा में हो रहा, जहां आढ़तियों का वर्चस्व मजबूत है

अच्छा यह होता कि कृषि सुधारों संबंधी अध्यादेश जारी करने के बाद भाजपा किसानों तक अपनी पहुंच बढ़ाती और मंडी समितियों में आढ़तियों और बिचौलियों के वर्चस्व को खत्म करने वाले कानूनों को लेकर उनके संदेह को दूर करती। कम से कम अब तो यह काम किया ही जाना चाहिए, ताकि विपक्षी दलों के दुष्प्रचार को बेनकाब किया जा सके। विपक्षी दल भले ही किसानों के हित की बात कर रहे हों, लेकिन सच यह है कि वे आढ़तियों और बिचौलियों के वर्चस्व को बनाए रखने के पक्ष में खड़े हो गए हैं। इसे इससे समझा जा सकता है कि कृषि विधेयकों का सबसे ज्यादा विरोध पंजाब और हरियाणा में हो रहा है, जहां आढ़तियों और बिचौलियों का वर्चस्व कहीं ज्यादा मजबूत है।

मंडी समितियों में आढ़तियों और बिचौलियों का वर्चस्व कायम था

विपक्षी दल कुछ भी कहें, इसमें संदेह नहीं कि कृषि उत्पाद बाजार समिति कानून यानी एपीएमसी एक्ट जिस उद्देश्य के लिए बनाया गया था, वह पूरा नहीं हो पा रहा, क्योंकि मंडी समितियों में आढ़तियों और बिचौलियों का वर्चस्व कायम हो गया है।

सभी किसानों को एमएसपी नहीं मिल पाता, कृषि उपज का बड़ा हिस्सा आढ़ती ही खरीदते हैं

मुश्किल यह है कि किसान और खासकर छोटे किसान इससे अवगत नहीं कि नई व्यवस्था किस रूप में काम करेगी। वे इसके बावजूद अनाज की बिक्री के मामले में बड़े किसानों का अनुसरण करते हैं कि सभी किसानों को अपनी उपज पर एमएसपी नहीं मिल पाता। बहुत कम किसान हैं जो एमएसपी का लाभ उठा पाते हैं, क्योंकि भारतीय खाद्य निगम यानी एफसीआइ एक सीमा तक ही कृषि उपज की खरीद कर पाता है। कृषि उपज का एक बड़ा हिस्सा आढ़ती ही खरीदते हैं।

सरकार एमएसपी पर कानूनी पहल करे, जिससे कोरी अफवाह खत्म हो

ऐसा लगता है कि किसान नई व्यवस्था का विरोध महज इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि एक तो वे उसके तौर-तरीकों से परिचित नहीं और दूसरे इसे लेकर सुनिश्चित नहीं कि इससे उन्हें वास्तव में लाभ होने वाला है। देश में करीब 80-85 प्रतिशत किसान छोटे किसान हैं, लेकिन वे यही मानकर चलते हैं कि खेती-किसानी के मामले में बड़े किसान जो कुछ कहते हैं वही उनके हित में होता है। उचित यह होगा कि सरकार एमएसपी को लेकर फैलाई जा रही अफवाहों का खंडन करने के साथ ही ऐसी कोई कानूनी पहल करे, जिससे किसानों के समक्ष यह साफ हो सके कि इस व्यवस्था को खत्म करने की बातें कोरी अफवाह हैं।

खाद्य प्रसंस्करण उद्योग को बढ़ावा मिलने से किसानों को मिलेगा लाभ

आम तौर पर यह माना जाता है कि खाद्य प्रसंस्करण उद्योग को बढ़ावा मिलने से किसानों को लाभ मिलेगा, लेकिन ध्यान रहे कि यह उद्योग तो यही पसंद करेगा कि उसे कच्चा माल यानी कृषि उत्पाद कम से कम दामों में मिले। नि:संदेह इस उद्योग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए, लेकिन यह सुनिश्चित करते हुए कि किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य मिले और नई व्यवस्था में किसानों की सौदेबाजी की क्षमता कमजोर होने के बजाय बढ़े। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि जब भी कोई उपज अनुमान से अधिक हो जाती है तो उसके दाम गिर जाते हैं और किसान उसे औने-पौने दाम में बेचने को बाध्य होते हैं। ऐसा इसलिए भी होता है, क्योंकि आम तौर पर किसानों को यह पता नहीं रहता कि उनके लिए कौन सी फसल उगाना लाभकारी होगा? इस समस्या का भी समाधान खोजा जाना चाहिए। इसके लिए एमएसपी व्यवस्था को लेकर उपजे संदेह को दूर करने का काम प्राथमिकता के आधार पर करना चाहिए।

कृषि विधेयकों पर मोदी सरकार पीछे नहीं हट सकती, किसानों की आय दोगुनी करनी है 

कृषि विधेयकों पर सरकार अपने फैसले से इसलिए पीछे नहीं हट सकती, क्योंकि 2022 करीब आ रहा है और उसने यह वायदा किया हुआ है कि तब तक किसानों की आय दोगुनी कर दी जाएगी। कोरोना संकट और दूसरी अन्य समस्याओं के चलते फिलहाल यह लक्ष्य हासिल होना मुश्किल दिख रहा है, लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि कृषि उपज खरीद की पुरानी व्यवस्था बनाए रखने से किसानों का भला होने वाला नही है।

किसानों के मुनाफे में मनचाहा हिस्सा बंटाने वाले आढ़तियों के वर्चस्व को कमजोर किया जा रहा

यदि पुरानी व्यवस्था सही होती तो फिर यह मसला ही सतह पर नहीं होता कि किसानों के संकट को दूर किया जाना चाहिए। अगर किसान अपने हित की अनदेखी करके आढ़तियों और बिचौलियों के हितों की चिंता करने लगेंगे तो इससे उनका ही नुकसान होना है। उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि पुरानी मंडियों को खत्म नहीं किया जा रहा, बल्कि उनके समानांतर एक नई व्यवस्था बनाई जा रही है और इस क्रम में उन आढ़तियों के वर्चस्व को कमजोर किया जा रहा है, जो उनके मुनाफे में मनचाहे तरीके से हिस्सा बंटाते हैं।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]

[ लेखक के निजी विचार हैं ]

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