पुलिस की बर्बरता को लेकर आज विश्व स्तर पर चर्चा आम, भारत में पुलिस की ज्यादती पर कैसे लगेगा विराम

पुलिस की बर्बरता पर कैसे विराम लगेगा जबकि अनेक देशों में पुलिस अधिकारियों के शरीर पर फ्रंट-फेसिंग कैमरा लगा दिए गए हैं ताकि उनकी पब्लिक डीलिंग को रिकॉर्ड किया जा सके।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Wed, 08 Jul 2020 08:56 AM (IST) Updated:Wed, 08 Jul 2020 08:56 AM (IST)
पुलिस की बर्बरता को लेकर आज विश्व स्तर पर चर्चा आम, भारत में पुलिस की ज्यादती पर कैसे लगेगा विराम
पुलिस की बर्बरता को लेकर आज विश्व स्तर पर चर्चा आम, भारत में पुलिस की ज्यादती पर कैसे लगेगा विराम

नरेंद्र शर्मा। पुलिस की ज्यादती व बर्बरता को लेकर आज विश्व स्तर पर चर्चा आम है। अमेरिका में पुलिस हिरासत में जॉर्ज फ्लॉयड की मौत बड़ा मुद्दा बन गया है। लेकिन भारत में यह हमेशा जारी रहने वाला मुद्दा है, क्योंकि पुलिस हिरासत में रोजाना औसतन पांच व्यक्ति दम तोड़ते हैं, फिर भी सरकारें पुलिस सुधार को प्राथमिकता नहीं देती हैं। तमिलनाडु में पुलिस की बर्बरता का शिकार हुए पिता-पुत्र (जयराज व बेनिक्स) पर तो फिर भी राष्ट्रीय स्तर पर बहस, विरोध व चर्चा हो गई, लेकिन उन निर्दोष युवकों का क्या जो थाने की सलाखों के पीछे थर्ड डिग्री के कारण दम तोड़ देते हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं कि अमेरिका की दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद पुलिस बर्बरता व व्यवस्था का पक्षपात फोकस में आया। इस बर्बरता के विरुद्ध अमेरिकी समाज अपनी प्रतिक्रिया में एकजुट रहा। लेकिन क्या इस प्रकार की प्रतिक्रिया अपने देश में होती है? नहीं। क्यों? डॉ. विपुल मुद्गल के अनुसार, भारत में हमारी प्रतिक्रियाएं अधिक स्थानीय होती हैं और अगर हिरासत में कोई मलिन बस्ती का व्यक्ति मारा जाए तो बहुत मुश्किल से मध्य वर्ग विरोध करने के लिए बाहर निकलता है। हमारी पुलिस न सिर्फ अयोग्य व असंवेदनशील है, बल्कि वह गरीब विरोधी भी है। डॉ. मुद्गल कॉमन कॉज के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर हैं, जो पिछले दो वर्ष से सीएसडीएस-लोकनीति के साथ मिलकर हर साल स्टेट ऑफ पुलिसिंग रिपोर्ट (एसपीआइआर) निकाल रहा है।

बहरहाल कैमरा-युक्त मोबाइल फोन के आने से एक फायदा यह अवश्य हुआ है कि पुलिस के लिए अब अपनी बर्बरता की कहानियों को अपनी अफसानवी रिपोर्टों में छिपा पाना कठिन हो रहा है। पारदर्शिता की अतिरिक्त परत आ गई है। जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या की बात शायद कभी प्रकाश में न आती अगर एक राहगीर ने अपने फोन से उसकी वीडियो न बनाई होती। जयराज-बेनिक्स मामले में भी पुलिस ने अपना अफसाना लिखने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी, अगर पिता-पुत्र के मित्रों ने अपने मोबाइल कैमरा का प्रयोग न किया होता (और एक महिला कांस्टेबल ने न्याय की खातिर अपने ही सहकर्मियों के विरुद्ध जाने का साहस न दिखाया होता)। लेकिन इसके बावजूद भारत में चिंता का विषय यह है कि पब्लिक अक्सर पुलिस हिंसा को स्वीकार कर लेती है, उसे समर्थन देती है।

हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि पुलिस पर बहुत अधिक कार्यभार है, जिसे कम करने की जरूरत है। पुलिस का एक बड़ा हिस्सा खद्दरधारियों की चौकीदारी करने में लगा रहता है। साथ ही पुलिस महकमे में बड़ी संख्या में स्थान रिक्त पड़े हैं। एसपीआइआर की रिपोर्ट से मालूम होता है कि पुलिसकर्मी को दिन में औसतन 14 घंटे काम करना पड़ता है। यह कार्यभार निरंतर भर्ती से ही कम किया जा सकता है। इंफ्रास्ट्रक्चर भी चिंता का विषय है। बहुत से पुलिस स्टेशनों के लिए सरकार की तरफ से प्रति सप्ताह 50 लीटर डीजल ही निर्धारित है, इससे अधिक के खर्च की व्यवस्था थाने को स्वयं करनी पड़ती है। जाहिर है कि यह व्यवस्था कोई पुलिसकर्मी अपने वेतन से तो करेगा नहीं, रिश्वत से ही करेगा, जिससे भ्रष्टाचार संस्थागत हो जाता है।

हालांकि प्रकाश सिंह बनाम भारत संघ में सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधार के लिए बहुत शानदार दिशा-निर्देश दिए थे, लेकिन आधे से अधिक राज्यों में इन्हें लागू नहीं किया गया है और जिनमें लागू किया गया है, उनमें भी सही से लागू नहीं किया गया है, जबकि सुधार एक बार का प्रयास नहीं, बल्कि निरंतर जारी रहने वाली प्रक्रिया है। ध्यान रहे कि पुलिस राज्य का विषय है और पुलिस सुधार लागू करने के लिए राज्यों को अपना पुलिस कानून पारित करना होता है। जिन राज्यों ने पुलिस कानून गठित किया भी है, उन्होंने भी दिशा-निर्देशों को कमजोर कर दिया। पुलिस थानों में कैमरा भी नहीं लगाए गए हैं। ऐसे में पुलिस की बर्बरता पर कैसे विराम लगेगा, जबकि अनेक देशों में पुलिस अधिकारियों के शरीर पर फ्रंट-फेसिंग कैमरा लगा दिए गए हैं, ताकि उनकी पब्लिक डीलिंग को रिकॉर्ड किया जा सके।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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