हिंदुत्व के खिलाफ खौफनाक विषवमन, इन कुत्सित प्रयासों की खुलकर निंदा की जाए

बुद्धिजीवियों का चोला ओढ़े चरमपंथी भले ही हिंदुत्व को हिंदू धर्म से अलग बताते हों परंतु उनके मुंह से हिंदू धर्म के प्रति कभी कोई अच्छी बात नहीं निकलती। वामपंथी सहयोग से आज हिंदू घृणा भारत से लेकर पश्चिम तक शिक्षण संस्थाओं एवं अकादमिक जगत में आम हो चुकी है।

By TilakrajEdited By: Publish:Sat, 18 Sep 2021 08:33 AM (IST) Updated:Sat, 18 Sep 2021 08:33 AM (IST)
हिंदुत्व के खिलाफ खौफनाक विषवमन, इन कुत्सित प्रयासों की खुलकर निंदा की जाए
हिंदुओं के प्रति ऐसी ही घृणा अंग्रेजी साम्राज्यवाद और सुनियोजित मतांतरण का कारण बनी

विकास सारस्वत। इतिहासकार केएस लाल के अनुसार, वर्ष 1009 में महमूद गजनी के भारत आक्रमण और 1526 में पानीपत की पहली लड़ाई के बीच लगभग आठ करोड़ हिंदू लोग मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा मारे गए। इंडोलाजिस्ट कूइनराड एल्स्ट के अनुसार, अब्दाली के भारत आक्रमण तक लगभग दो करोड़ हिंदू हताहतों की संख्या आसानी से जोड़ी जा सकती है। विभाजन और बांग्लादेश मुक्ति तक यह सिलसिला कायम रहा। चाहे चितौड़ का किला हो या नोआखली, सोमनाथ हो या हिंदूकुश पर्वत श्रृंखला, उपमहाद्वीप का इतिहास इतने लंबे और जघन्य नरसंहार का गवाह रहा है। इतनी बड़ी संख्या में हुए हिंदू नरसंहार के कारण ही अमेरिकी इतिहासकार विल ड्यूरेंट ने भारत पर मुस्लिम आक्रमण को मानव इतिहास का सबसे खूनी अध्याय बताया था। पाकिस्तानी लेखक इरफान हुसैन कहते हैं कि आक्रांताओं ने हिंदुओं पर लेश मात्र भी दया नहीं दिखाई। वह लिखते हैं कि मुस्लिम आक्रांताओं के हाथ इस कदर खून से सने हैं कि इतिहास का यह कलंक मिटाना संभव नहीं। ऐसे निरंतर नरसंहार का जितना बड़ा कारण मजहबी कट्टरता थी, उतना ही हिंदुओं से घृणा भी। हिंदुओं के प्रति ऐसी ही घृणा अंग्रेजी साम्राज्यवाद और सुनियोजित मतांतरण का कारण बनी।

यदि मुस्लिम आक्रांताओं ने अपने हिंदू विरोध और हिंदू घृणा को तलवार से प्रकट किया, तो पश्चिमी लेखक और बुद्धिजीवियों ने उसे संस्थागत और विचारगत रूप दिया। जहां मार्क ट्वेन ने हिंदू मूर्तियों को भद्दा, कुरूप बताया, वहीं एलिजाबेथ रीड और कैथरीन मेयो ने हिंदू धर्म को वासनाग्रस्त और भारत की सभी समस्याओं का मूल कारण बताया। मैकाले और मैक्स मूलर के हिंदू विरोधी पूर्वाग्रहों ने मिशनरी संस्थाओं के माध्यम से हिंदू घृणा को भारतीय शिक्षा पद्धति में बीजारोपित किया। वामपंथी सहयोग से आज यह हिंदू घृणा भारत से लेकर पश्चिम तक शिक्षण संस्थाओं एवं अकादमिक जगत में आम हो चुकी है।

हिंदू घृणा को बौद्धिकता का लबादा ओढ़ाने के लिए बड़ी चतुराई से लेखन, अनुसंधान, व्याख्यान और सेमिनारों का सहारा लिया जाता है। ऐसे ही एक आनलाइन सेमिनार ‘डिस्मैंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व’ का आयोजन 10 से 12 सितंबर के बीच किया गया। उसके आयोजक गुमनाम बने रहे, परंतु वक्ताओं की सूची में औरंगजेब को संत बताने वाली आड्री ट्रश्क, रामजन्मभूमि के खिलाफ जहरीली डाक्यूमेंट्री बनाने वाले आनंद पटवर्धन, रक्षाबंधन को हत्यारों का त्योहार बताने वाली कविता कृष्णन, नक्सल समर्थक नंदिनी सुंदर, आरएसएस पर ह्यूमन ट्रैफिकिंग का बेहूदा आरोप लगाने वाली नेहा दीक्षित, ब्राह्मणों को भद्दी गालियां देने वाली मीना कंडास्वामी आदि वक्ताओं को जोड़ा गया। अन्य वक्ता भी वाम चरमपंथी और धुर हिंदू विरोधी ही थे।

डिस्मैंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व इनकी हिंदू विरोधी, भारत विरोधी मुहिम को अंतरराष्ट्रीय मंच देने की कवायद के अलावा और कुछ नहीं। बुद्धिजीवियों का चोला ओढ़े ये चरमपंथी भले ही हिंदुत्व को हिंदू धर्म से अलग बताते हों, परंतु इनके मुंह से हिंदू धर्म के प्रति भी कभी कोई अच्छी बात नहीं निकलती। इन्होंने अपनी पहचान हिंदू प्रतीक और मान्यताओं के अपमान और हिंदुओं पर हुए अत्याचारों को नकार कर ही बनाई है। हिंदुत्व से इनका द्वेष इस कारण है, क्योंकि हिंदुत्व उन शक्तियों का विरोध करता है जो या तो हिंदू समाज को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष हमले, मतांतरण आदि द्वारा कमजोर करना चाहती हैं या फिर हिंदुओं को स्थायी अपराध बोध में रखना चाहती हैं। वह हिंदुत्व जो ‘सर्वजन सुखाय सर्वजन हिताय’ की बात करता है और जाति से ऊपर धर्म तथा धर्म से ऊपर राष्ट्र की कल्पना करता है, उससे इन्हें इसलिए तकलीफ है, क्योंकि वह भारत भूमि को आयातित विचारधाराओं और पश्चिमी मजहबों के लिए विजित करने की राह में बाधक बनता है।

हिंदुत्व पर हमले के बहाने चरमपंथी बुद्धिजीवी लोकतंत्र द्वारा चुनी हुई सरकार को कमजोर करने का निरंतर और पुरजोर प्रयास भी कर रहे हैं। उनका सबसे कुटिल पैंतरा हिंदुत्व विरोध की आड़ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या भाजपा जैसे संगठनों को ऐसे खलनायकों के रूप में प्रस्तुत करना है, जिनके सदस्यों पर होने वाली हिंसा या हत्याओं पर समाज में कोई उद्वेलना न फैले। अपने मंतव्य में इनको मिली सफलता इसी से स्पष्ट है कि गत सात वर्षों में संघ, भाजपा और अन्य हिंदूवादी संगठनों के सैकड़ों कार्यकर्ताओं की हत्या किसी उद्वेग का विषय नहीं बनी।

इस विद्वेषपूर्ण मंच को अपना मुखर समर्थन देने वाले गायक टीएम कृष्णा ने स्वयं माना कि संघ कार्यकर्ताओं की हत्याओं पर उनके मन में कोई संवेदना उत्पन्न नहीं होती। ऐसी क्रूर सोच के चलते धार्मिक घृणा से जनित अपराधों में बड़ी संख्या में मारे गए हिंदुओं पर मौन साध केवल मुस्लिम पीड़ितों की बात उठाकर इस वर्ग ने झूठे एकपक्षीय कथानक गढ़ने के प्रयास किए हैं। नागरिकता संशोधन कानून एवं बंगाल में चुनाव उपरांत हुई व्यापक हिंसा इन्हीं के भड़कावे का परिणाम थी। डिस्मैंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व के आयोजकों ने जिस पोस्टर का विमोचन किया वह नाजी प्रोपगंडा की तरह भयावह था। पोस्टर में जिस प्रकार संघ कार्यकर्ता को जंबूरे द्वारा उखाड़ने का चित्रण किया गया, वह सीधे-सीधे संघ के खिलाफ हिंसा को प्रोत्साहित करने वाला था।

चरमपंथी बुद्धिजीवियों की योजना और कार्यशैली में नाजियों से कई समानताएं मिलती हैं। मसलन हिटलर की तरह इनका भी उद्देश्य सिर्फ प्रौपेगंडा तक ही सीमित रहता है। कंडास्वामी तो खुलकर प्रौपेगंडा को आवश्यक और सुंदर क्रिया बता चुकी हैं। नाजियों की ही तरह वह अपने कुटिल मंतव्यों को शब्दों से ढकने की कला में निपुण हैं। जैसे हिटलर ने अपने प्रौपेगंडा मंत्रलय का नाम प्रबोधन मंत्रलय रखा था, वैसे ही चरमपंथी बुद्धिजीवी अपने हिंसक मंसूबों को मानवता, सहिष्णुता और शांतिप्रियता जैसे प्रपंचों से अलंकृत करने में माहिर हो चुके हैं। डिस्मैंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व को अमेरिका के नामचीन विश्वविद्यालयों का भी समर्थन मिला। ध्यान देने की बात यह है कि जिस घृणा और पूर्वाग्रह को बौद्धिक एवं अकादमिक मान्यता मिल जाए, उसका असर दूरगामी और भयावह होता है। यह आवश्यक है कि ऐसे कुत्सित प्रयासों की खुलकर निंदा की जाए अन्यथा हजार साल तक चले हिंदू नरसंहार में फिर एक दु:खद अध्याय जुड़ते देर नहीं लगेगी।

(लेखक इंडिक अकादमी के सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

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