हिंदू पद पादशाही: सुशासन का चिरस्मरणीय प्रेरणा स्त्रोत

मुग़ल शासक तलवार के बाल पर पूरे हिंदू समाज को मुस्लिम बनाना चाहते थे। छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित हिंदू पद पादशाही तथा 1857 में हुए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम पर उसके असर को वीर सावरकर ने लिखा है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Wed, 23 Jun 2021 03:57 PM (IST) Updated:Wed, 23 Jun 2021 04:01 PM (IST)
हिंदू पद पादशाही: सुशासन का चिरस्मरणीय प्रेरणा स्त्रोत
इतिहास के इन स्वर्णिम पृष्ठों के पुन: स्मरण की आवश्यकता है ताकि वे सतत प्रेरणा के स्त्रोत बने रहें।

राजीव तुली। किसी राष्ट्र का इतिहास उस देश की विरासत है और उसे सुरक्षित रखना राष्ट्र के मंगल के लिए आवश्यक है। हिंदू राष्ट्र का इतिहास जब कभी लिखा जाएगा और उसका ठीक मूल्यांकन होगा तो छत्रपति शिवाजी के कार्यों का और विनायक दामोदर सावरकर उपाख्य वीर सावरकर द्वारा उनका लेखन निश्चय ही महत्वपूर्ण स्थान पाएगा। कवि भूषण ने छत्रपति शिवाजी महाराज के बारे में लिखा

''कासी हूँ की कला गई मथुरा मसीत भई

शिवाजी न होतो तो सुनति होती सबकी।''

शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित हिंदू पद पादशाही: मुग़ल शासक तलवार के बाल पर पूरे हिंदू समाज को मुस्लिम बनाना चाहते थे। अधिकतर बड़े—छोटे हिंदू राजाओं को तलवार के ज़ोर पर या लालच दे कर अपने साथ मिला चुके थे। ऐसे में ये कल्पना भी करना कि कोई उस इस्लामी ताक़त के ख़िलाफ़ अपना राज्य खड़ा करेगा कल्पनातीत माना जाता। शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित हिंदू पद पादशाही तथा 1857 में हुए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम पर उसके असर को वीर सावरकर ने लिखा है।

परंतु विडम्बना देखिए दोनों को ही यथोचित सम्मान और स्थान नहीं मिला। और इतिहास का मनन इसलिए नहीं करना चाहिए कि हमें पुराने झगड़े और फ़साद को चिरस्थायी रखने के लिए कोई कारण ढूंढ निकालने हैं और आज भी मातृभूमि या खुदा के नाम पर खून की नदियां बहानी हैं। इतिहास का काम तो उन मूल तत्वों की खोज करना है जो झगड़े फ़साद इत्यादि को मिटा कर मनुष्य को मनुष्य से मिला सके क्योंकि उनका बनाने वाला एक ही है।

मित्रता बराबर वालों में ही होती है : भारत के संदर्भ में इन मापदंडों पर जब इतिहास का लेखन होगा तो एक बात अवश्य निकल कर आएगी और वो ये है कि भारत के मुसलमानों को अपने शासक होने और हिंदुओं को शासित होने का भाव मन से निकालना पड़ेगा। दूसरी ओर ये भी सत्य हैं कि मनुष्य समुदायों में बंटे हुए हैं और युद्ध और संघर्ष में भी संलग्न होते हैं। एकता और मित्रता भी वहीं होती है जहां बराबरी हो, स्वामी और ग़ुलाम में आधारभूत मेल नहीं हो सकता। आठवीं शताब्दी में मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण से लेकर सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक मुस्लिम आक्रांताओं और हिंदू समाज की यही स्थिति थी। यदि हिन्दुओं ने अपनी शक्ति का परिचय न दे कर अपने पर किए गए अत्याचारों का मुँह तोड़ उत्तर न दिया होता होता, तो उस समय मुसलमान मित्रता का हाथ बढ़ाते भी तो उसमें मित्रता की अपेक्षा दया का भाव होता क्यों कि मित्रता बराबर वालों में ही होती है।

शिवाजी महाराज का जन्म 1627 ईस्वी में हुआ : जिस हिंदू पद पादशाही की स्थापना छत्रपति शिवाजी महाराज ने की थी उस की परिणति 1761 में दिल्ली के तख़्त और ताज से मुग़लिया परचम उखाड़ कर उनके वंशजों भाऊ और विश्वसराव ने की। संभवत: 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के समय हिंदू मुस्लिम एकता का रास्ता भी वहीं से निकला। शिवाजी महाराज का जन्म 1627 ईस्वी में हुआ। उनके जन्म के साथ ही एक नए युग की शुरुआत हुई। अपने जीवन में छत्रपति शिवाजी और समर्थ गुरु रामदास ने एक ऐसे राज्य की नींव रखी जो वास्तव में “सुशासन” था। परंतु इस “सुशासन” समझना आसान नहीं है, तो भी जिन परिस्थितियों में हिंदू पद पादशाही तथा इस सुशासन की स्थापना हुई वह प्रशंसनीय तथा उल्लेखनीय है। पिछले लगभग 900 साल से भारत छोटे छोटे राज्यों बँटा रहा या कोई न कोई विदेशी शक्ति भारत पर शासन करती रही।

ऐसे में ये कल्पना भी करना कि पूरे देश में राज करने वाले मुग़लों के विरुद्ध कोई हिंदू राजा नए सिरे से राज स्थापित करके उसे सुचारु रूप से चला लेगा अकल्पनीय था। सुशासन माने जवाबदेही, पारदर्शिता, पूर्वानुमान- क्षमता, सहभागिता, न्ययाचार। राम राज्य या जो संकल्पना भगवान कृष्ण ने अर्जुन को समझाई वो सुशासन ही है अर्थात् सही ग़लत, न्याय-अन्याय, नैतिक-अनैतिक के बीच का अंतर जहां समझ आए वो सुशासन है। सुशासन की व्यवस्था के लिए अष्ट प्रधान (मंत्री मंडल) की कल्पना थी। राज्य संचालन को दो भागों में बाँटा गया एक सामान्य प्रशासन तथा दूसरा सैन्य शक्ति। शिवाजी ने कभी भी सैन्य शक्ति को लोक शासन या प्रशासन से ऊपर नहीं रखा बल्कि उसके आधीन ही रखा। अष्ट प्रधान व्यवस्था में प्रधान मंत्री या पेशवा, अमात्य या वित्तमंत्री, पन्त सचिव या सूरनवीस, मंत्री, सेनापति, सुमन्त, पंडितराव या धर्मस्व तथा न्यायाधीश थे। सबके काम,अधिकार क्षेत्र, तथा मानदेय भी तय थे।

शिवाजी तथा समर्थ रामदास ने सुशासन की स्थापना के बाद क्रमशः 1680 तथा 1681 में देह का त्याग किया। इस राज्य का अंत ऐसा लगता था इनके साथ ही हो जाएगा, परंतु यह नहीं हुआ। ठीक वैसे ही जैसे 1925 में प्रारम्भ हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा. केशव बलिराम हेडगेवार के देहांत के बाद लगता था कि संघ भी समाप्त हो जाएगा परंतु उसका भी लगातार विस्तार हुआ। इसी प्रकार इन दोनो के जाने के बाद भी छोटे से प्रांत से प्रारम्भ हुआ प्रभाव व कार्य क्षेत्र भी लगातार बढ़ता गया। विचित्र बात ये है कि कहीं भी इतिहास में इस सब की चर्चा नहीं है। शिवाजी के बाद संभाजी को उत्तराधिकारी बनाया गया। औरंगज़ेब उस समय जीवित था।

संभाजी की गिरफ़्तारी तथा उसके बाद निर्मम हत्या इतिहास में दर्ज है। उसे मुसलमान बनने को कहा गया। मना करने पर पहले आँखें निकली गयीं, फिर जीभ काटी गयी और अंत में शरीर के टुकड़े टुकड़े कर दिए गए। इससे पूरे महाराष्ट्र मंडल में दुःख और क्षोभ का वातावरण बन गया। जिस प्रकार संभाजी का बलिदान हुआ, उसने एक क्रांति को जन्म दिया। तदुपरांत शिवाजी के दूसरे पुत्र राजा राम का राज्याभिषेक किया गया। खंडो बलाल उसके पालक नियुक्त हुए। छत्रपति शिवाजी के विषय में तो फिर भी सही या ग़लत कुछ तो हमारी पाठ्यपुस्तकों में बताया—पढ़ाया जाता है, परंतु उसके बाद जिस प्रकार उत्तर की मुग़लिया सल्तनत, बुंदेलखंड के आस पास नजीबजंग, दक्षिण में आदिलशाह और निज़ामशाही से मराठों ने चौथ या सरदेसाई वसूली की वह जनमानस की जानकारी में ही नहीं है। शिवाजी के राज्याभिषेक के समय अधिकार क्षेत्र में केवल एक प्रांत था, परंतु उनके उत्तराधिकारी राघोबा दादाजी के आधिपत्य में पंजाब की राजधानी लाहौर में धूमधाम से मराठे प्रविष्ट हुए और उस से आगे सिंध के किनारे तक पहुंचे।

शिवाजी के द्वारा स्थापित राज्य को एक के बाद एक शूरवीर सरदार मिलते रहे और इसकी एक अखंड परंपरा पानीपत की तीसरी लड़ाई बाद तक चलती रही। खंडो बलाल, धाना जी, संताजी, बाला जी, बाज़ीराव भाऊ, मल्हार राव, दत्ताजी शिंदे, माधव राव, परशुराम पन्त और बापू जी जैसे महान व्यक्तित्व क्रमशः अपने आपको इस राष्ट्र तथा धर्म की बलिवेदी पर चढ़ाते रहे। वास्तव में हिंदू पद पादशाही का इतिहास शिवाजी के देह त्याग के बाद एक नए स्वरूप में प्रारम्भ होता है। औरंगज़ेब की सशक्त, सुसंगठित तथा सुसज्जित सेना के आगे मराठों की शक्ति तुच्छ थी तो भी उन्होंने अद्भुत युद्ध कला जिसे “गानिमि काबा” कहते हैं ईजाद की और इस युद्ध कला से मुग़लों को खूब छकाया और युद्ध कौशल के कारण मुग़लों को ही जगह से दुम दबा कर भागना पड़ा। तीन लाख की सेना लेकर दक्षिण विजय को निकाले औरंगजेब का निराश हो कर 1707 में अहमद नगर में इंतकाल हो गया। मुग़लों से खानदेश, गोंडवाना, बरार, गुजरात के क्षेत्रों और दक्षिण के छह सूबों सहित मैसूर, त्रावणकोर आदि रियासतों को अपने आधिपत्य में लेकर हिंदू साम्राज्य स्थापित हुआ। इन सब को एक सूत्र में बांध कर महाराष्ट्र मंडल को वास्तविक हिंदू पद पादशाही बनाया। इतिहास के इन स्वर्णिम पृष्ठों के पुन: स्मरण की आवश्यकता है ताकि वे सतत प्रेरणा के स्त्रोत बने रहें।

(लेखक संघ से जुड़े)

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