गोपालदास नीरज के 97वें जन्मदिन पर विशेष, जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना, अन्धेरा धरा पर कहीं रह न जाए

04 जनवरी 1925 को उनका जन्म हुआ। जीवन में बाल्यकाल से युवावस्था तक के उनके संघर्ष से सभी परिचित हैं। उनके रचना-कर्म के बार में भी अधिक कुछ बताने की आवश्यकता नहीं है परन्तु उसका संक्षिप्त उल्लेख उनकी सक्रिय रचनाशीलता की अवधि को अवश्य स्पष्ट करेगा।

By Dhyanendra Singh ChauhanEdited By: Publish:Mon, 04 Jan 2021 08:30 PM (IST) Updated:Mon, 04 Jan 2021 08:33 PM (IST)
गोपालदास नीरज के 97वें जन्मदिन पर विशेष, जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना, अन्धेरा धरा पर कहीं रह न जाए
दिवंगत कवि गोपालदास नीरज की फाइल फोटो

[अनिल कुमार]। लखनऊ में नीरज के जन्मदिन को उत्सव के रूप में मनाए जाने की लम्बी परम्परा रही है। 04 जनवरी, 2009 को हजरतगजं स्थित प्रेस क्लब पर उनके 85वें जन्मदिन पर वे मंचासीन थे और अन्य कवियों ने उनके फिल्मी गीतों को उनके सामने गाया था। बीच-बीच में नीरज प्रत्येक गीत के साथ जुड़ी अपनी यादों को श्रोताओं के साथ साझा कर रहे थे। यह एक अनोखा कार्यक्रम था। 04 जनवरी, 2017 को उनके 93वें जन्मदिन पर इन्दिरा गांधी प्रतिष्ठान में आयोजित कार्यक्रम वास्तव में इस प्रकार का अन्तिम कार्य क्रम बन कर रह गया क्योंकि 04 जनवरी, 2018 को हिन्दी संस्थान में आयोजित उनके 94वें जन्मदिन का उत्सव आदरणीय अनवर जलालपुरी के देहावसान के कारण, स्वाभाविक रूप से, स्थगित कर दिया गया और 04 जनवरी, 2019 आने के पूर्व ही 19 जुलाई, 2018 को नीरज ने इस नश्वर शरीर को त्याग दिया।

अब हम सब 'काल के इस घूमते पहिए' के समक्ष विवश हैं, उनका जन्मदिन उनकी यादों के सहारे मनाने के लिए। तो आइए, पिछली सदी से लेकर इस सदी के भी लगभग दो दशकों तक पूरे विश्व में अपने चाहने वाले के दिलों पर राज करने वाले नीरज को उनके जन्मदिन पर बधाई दें और उस लोक से भी उनका आशीष लें जहां उन्होंने निश्चित रूप से परमपिता को भी मुग्ध कर रखा होगा।

04 जनवरी, 1925 को उनका जन्म हुआ। जीवन में बाल्यकाल से युवावस्था तक के उनके संघर्ष से सभी परिचित हैं। उनके रचना-कर्म के बार में भी अधिक कुछ बताने की आवश्यकता नहीं है, परन्तु उसका संक्षिप्त उल्लेख उनकी सक्रिय रचनाशीलता की अवधि को अवश्य स्पष्ट करेगा।

1944 में प्रथम काव्य संग्रह ‘संघर्ष’ का प्रकाशन हुआ, जो अब ‘नदी किनारे’ शीर्षक से उनकी रचनावली में संग्रहीत है। 1946 में ‘अन्तर्ध्वनि’ (अब ‘लहर पुकारे’), 1951 में ‘विभावरी’ (अब 'बादर बरस गयो’), 1954 में ‘प्राणगीत’, 1956 में ‘दर्द दिया है’, 1958-59 में ‘दो गीत’, ‘आसावरी’, ‘नीरज की पाती’, 1960 में ‘मुक्तकी’, 1963 में ‘गीत अगीत’ का प्रकाशन और इसके बाद के वर्षों में उनकी रचनाओं के अनेकान के संकलनों का प्रकाशन जो 2015 तक जारी रहा। बीच में 1965-1972 तक हिन्दी सिनेमा के लिये गीतकार के रूप में सक्रियता।

लगभग 19 वर्ष की आयु में पहली कृति का अर्थ यह हुआ कि नीरज की सक्रिय रचनाशीलता की अवधि लगभग 30-35 वर्ष की होती है और उस समय तक उन्होंने अपनी जीवन-यात्रा का लगभग आधा सफर ही तय किया था। जीवन की विषम परिस्थितियां भी अवश्य ही आधार बनी होंगी उनकी रचनाओं की विषयवस्तु के असीमित विस्तार की।

जीवन के प्रत्येक पहलू को उन्होंने छुआ और न केवल गीत वरन मुक्तक, दोहा, गजल (जिसे उन्होंने ‘गीतिका’ कहा) आदि में भी वे उतने ही प्रभावी रहे। महापुरूषों की जयन्ती अथवा पुण्यतिथि पर प्रकाशित लेखों में प्रायः उनके साथ जुड़े व्यक्तियों के लेख होते हैं, जिनमें प्राधनता संस्मरणों की होती है। मेरा नीरज के साथ लगाव एक दीवाने प्रशंसक का लगाव है। यद्यपि मैं उनसे कई बार मिला परन्तु मैं स्वयं को

इस स्थिति में नहीं पाता कि संस्मरण के रूप मं कुछ प्रस्तुत कर सकं। इसलिए मैं उनकी जयन्ती पर उनके बारे में लिखते हुए अपने आपको उनके कृतित्व तक ही सीमित रखकर एक नये दृष्टिकोण से अपनी बात सुधि पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहा हूं।

नीरज की लोकप्रियता असीमित है और यही लोकप्रियता उनकी ऐसी अनेक रचनाओं की भी है जिन्हें हमने उनसे बार-बार सुना और कुछ सीमा तक उन्होंने भी बार-बार सुनाया। परन्तु इसका एक दुष्परिणाम यह रहा कि बार-बार सुनी जाने वाली इन रचनाओं के प्रभाव में हम नीरज के कृतित्व की व्यापकता का वैसा लाभ नहीं उठा सके जैसा कि उठाना चाहिए था।

अपने लेखनकाल के प्रारम्भिक दौर के गीत- ‘‘मैं विद्रोही हूं जग में विद्रोह कराने आया हूं‘‘; ‘‘मधु पीते-पीते थके अधर, फिर भी प्यासे अरमान‘‘ या सत्तर और अस्सी का दशक आते-आते अति लोकप्रिय हुए गीत- ‘‘आदमी को आदमी बनाने के लिए...‘‘; ‘‘आंसू जब

सम्मानित होंगें मुझको याद किया जायेगा‘‘; ‘‘इसीलिए तो नगर-नगर बदनाम हो गये मेरे आंसू‘‘;

‘‘यह प्यासों की प्रेमसभा है, यहां संभलकर आना जी‘‘; ‘‘मैं पीड़ा का राजकुंवर हूं‘‘; ‘‘प्यार अगर थामता न उंगली इस बीमार उमर की, हर पीड़ा वेश्या बन जाती हर आंसू आवारा होता‘‘; ‘‘छुप-छुप अश्रु बहाने वालों मोती व्यर्थ लुटाने वालों, कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है‘‘;

‘‘दो गुलाब के फूल छू गये जब से होंठ अपावन मेरे‘‘; ‘‘तुम बिछड़े मिले हजार बार, इस पार कभी उस पार कभी‘‘; ‘‘अपनी बानी प्रेम की बानी‘‘ जैसे गीतों को उन्होंनें खूब गाया। उन्होनें मंच से अपनी बात साझा करते हुए बताया कि ‘‘मृत्यु-गीत‘‘ को सुनाने की मांग उनसे बार-बार होती थी और उन्हें गाना पड़ता था।

उपरोक्त गीतों के अलावा उनके हस्ताक्षर गीत ‘‘कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे‘‘; ‘‘ऐसी क्या बात है, चलता हूं अभी चलता हूं‘‘; ‘‘अब युद्ध नहीं होगा‘‘ को भी नीरज ने बार-बार गुनगुनाया। बार-बार गायी गई गजलों में- ‘‘खुशबू सी आ रही है इधर जाफ़रान की‘‘; ‘‘अबके सावन में शरारत ये मेरे साथ हुई‘‘; ‘‘जितना कम सामान रहेगा उतना सफर आसान रहेगा‘‘; ‘‘अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाये‘‘; ‘‘एक जुग बाद शब-ए-ग़म की सहर देखी है‘‘; ‘‘गीत जब मर जायेंगे तो और क्या रह जायेगा‘‘; ‘‘इतने बदनाम हुए हम तो इस ज़माने में‘‘; ‘‘समय ने जब भी अंधेरों से दोस्ती की है‘‘; ‘‘आदमी ख़ुद को कभी यूं भी सजा देता है‘‘; ‘‘हम तेरी चाह में ए यार वहां तक पहुंचे‘‘ सम्मिलित हैं। कुछ दोहे और मुक्तक जो अपने काव्यपाठ की भूमिका या समापन में उन्होनें पढ़े या कुछ बातचीत जो उन्होनें मंच से अपने श्रोताओं से की, को भी ध्यान से सुना गया।

लेकिन नीरज का रचना संसार तो इतना बड़ा है कि हम उसके मात्र कुछ अंश का ही आनन्द उठा सके। उनके द्वारा हिन्दी फिल्मों के लिए लिखे गये गीतों की भी बात कर लेते हैं। ‘‘ए भाई जरा देख के चलो‘‘; ‘‘शोखियों में घोला जाय फूलों का शबाब‘‘; ‘‘आदमी हूं आदमी

से प्यार करता हूं‘‘ जैसे कुछ गीत ही उन्होंने मंच से गाये। सुनने वालों ने भी अपनी ओर से अन्य गीतों के लिए आग्रह नहीं किया। नहीं तो ‘‘देखती ही रहो आज दर्पण न तुम‘‘ जैसे उत्कृष्ट गीत को उनकी मनोहारी वाणी से सुनने का जो आनन्द होता, उसकी अब केवल कल्पना ही की जा सकती है। फिल्म में आये इस गीत और मूल गीत में थोड़ी भिन्नता है। फिल्मी गीत के एक अन्तरे में शब्द आये है- ‘‘मत महावर रचाओ बहुत पांव में, फर्श का मरमरी दिल दहल जायेगा‘‘। वहीं मूल गीत के अन्तिम अंश में आता है -‘‘हम अधूरे अधूरा हमारा सृजन, पूर्ण तो एक बस प्रेम ही है यहां‘‘; ‘‘कांच से ही न नजरे मिलाती रहो, बिम्ब को मूक प्रतिबिम्ब छल जायेगा‘‘। दोनों ही स्थानों पर शब्दों

का चयन इतना शानदार है कि बस मुंह से वाह-वाह के अलावा कुछ निकलता ही नहीं। फिल्मों के लिए लिखे गीतों में भी काव्य सौष्ठव, शब्दों का चयन और भाव की उत्कृष्टता का सीधा परिणाम यह हुआ कि ये गीत अमर हो गये। परन्तु उनके कंठ से हमने इन्हें नहीं सुना। ऐसे गीतों में-‘‘काल का पहिया घूमे भईया‘‘; ‘‘आज की रात बड़ी शोख बड़ी नटखट है‘‘; ‘‘अपने होठों की बंशी बना लो मुझे‘‘; ‘‘जीवन की बगिया महकेगी‘‘;

‘‘लिखे जो खत तुझे‘‘; ‘‘मेघा छाये आधे रात बैरन बन गई निन्दिया‘‘; ‘‘जैसे राधा ने माला जपी श्याम की‘‘; ‘‘खिलते हैं गुल यहां खिलके बिखरने को‘‘; ‘‘प्रेम के पुजारी हम हैं‘‘ जैसे अनेक गीत हैं। फिल्मी गीतों को साहित्यिक उत्कृष्टता से भर देने वाले नीरज के एक गीत - ‘‘फूलों के रंग से दिल की कलम से‘‘ का एक अन्तरा देखें और स्वयं अनुमान लगाऐं कि यदि इसे हमने मंच से नीरज से सुना होता तो कैसा नज़ारा होता -

‘‘सांसों की सरगम, धड़कन की वीणा, सपनों की गीतांजलि तू मन की गली में महके जो हरदम ऐसी जूही की कली तू छोटा सफर हो, लम्बा सफर हो, सूनी डगर हो या मेला याद तू आए, मन हो जाये, भीड़ के बीच अकेला।‘‘  

(लेखक उत्तर प्रदेश सचिवालय सेवा के अधिकारी है और वर्तमान मे विशेष सचिव के पद पर कार्यरत रहते हुए शौकिया लेखन करते हैं) 

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