Hindi Day: हिंदी को यूएन की भाषा बनाने की बात तो होती है, पर न्यायपालिका की भाषा हिंदी पर लोग मौन हैं

अब न्याय की पश्चिमी प्रणाली को नकारने के लिए मैक्सवेल को भी खारिज करना होगा।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Mon, 14 Sep 2020 06:20 AM (IST) Updated:Mon, 14 Sep 2020 06:20 AM (IST)
Hindi Day: हिंदी को यूएन की भाषा बनाने की बात तो होती है, पर न्यायपालिका की भाषा हिंदी पर लोग मौन हैं
Hindi Day: हिंदी को यूएन की भाषा बनाने की बात तो होती है, पर न्यायपालिका की भाषा हिंदी पर लोग मौन हैं

[ प्रो. रजनीश कुमार शुक्ला ]: राजभाषा पर संसदीय समिति ने 28 नवंबर, 1958 को संस्तुति की थी कि सर्वोच्च तथा उच्च न्यायालयों में कार्यवाही की भाषा हिंदी होनी चाहिए। इस संस्तुति को पर्याप्त समय बीत गया, किंतु इस दिशा में अब तक कोई सार्थक प्रगति नहीं हुई, जबकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 348 की धारा-दो के अनुसार किसी भी प्रदेश के राज्यपाल राष्ट्रपति की सहमति से हिंदी या उस प्रदेश की राजभाषा में उच्च न्यायालय की कार्यवाही संपादित करने की अनुमति दे सकते हैं। इसी अनुच्छेद का लाभ लेते हुए राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार के उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी में भी कार्यवाही की अनुमति दी गई है, परंतु इसी तरह की मांग जब अन्य राज्यों से की गई तो उनकी मांग को ठुकरा दिया गया।

विधि आयोग ने हिंदी को सुप्रीम कोर्ट, उच्च न्यायालयों के कामकाज के लिए अव्यावहारिक बताया

2008 में विधि आयोग को सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में हिंदी में कामकाज की संभावना पर अपनी संस्तुति देने का कार्य सौंपा गया, किंतु उसने नकारात्मक रिपोर्ट दी और उच्चतर न्यायपालिका में हिंदी सहित भारतीय भाषाओं के प्रवेश पर एक बार फिर प्रतिबंध लग गया। 27 जुलाई, 2009 को संसद में विधि आयोग के 216 वें प्रतिवेदन के संबंध में जानकारी देते हुए तत्कालीन विधि एवं न्याय मंत्री वीरप्पा मोइली का वक्तव्य था कि आयोग ने हिंदी को सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के कामकाज के लिए अव्यावहारिक बताया है। इसके पीछे राजनीति तो थी ही, भारतीय विधि शिक्षा का अभारतीय स्वरूप भी एक महत्वपूर्ण कारण था। इससे बड़ी विडंबना और कोई नहीं कि हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने की बात तो होती है, परंतु देश में उच्चतर न्यायपालिका की भाषा हिंदी हो, इस पर लोग मौन हैं।

71 वर्ष के बाद भी न्याय व्यवस्था नागरिकों को स्वभाषा में न्याय नहीं उपलब्ध करा सकी

शिक्षा के भारतीयकरण के अभियान को नई शिक्षा नीति 2020 के द्वारा सफलता प्राप्त हुई है, लेकिन उच्चतर न्यायपालिका में भारतीय भाषाओं के प्रतिबंध को लेकर कहीं कोई बहस नहीं हो रही है। भारत की स्वतंत्रता के 73 वर्ष और हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकृति के 71 वर्ष पूर्ण होने के बाद भी देश की न्याय व्यवस्था नागरिकों को स्वभाषा में न्याय नहीं उपलब्ध करा सकी है। न्याय व्यवस्था का प्रश्न मात्र भाषा का नहीं है। स्वयं न्याय की अवधारणा, विधि का विवेचन और उसके न्यायानुकूल होने का प्रश्न भी महत्वपूर्ण है। न्याय व्यवस्था का आधार विधिशास्त्र है। विधि का लेखन जिस भाषा में होता है, वह साधारण भाषा है। प्रत्येक साधारण भाषा स्वाभाविक रूप से अपने परिवेश के आधार पर ही अर्थ संस्थान का निर्माण करती है। अनूदित विधि हमेशा अर्थ बोध के लिए मूल भाषा की मुखापेक्षी होती है।

न्यायिक कामकाज की भाषा बनाना है तो संविधि की व्याख्या का सिद्धांत तैयार करना होगा

सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों का मुख्य कार्य विधि को संविधान एवं प्राकृतिक न्याय के आलोक में व्याख्यायित करने का है, साथ ही अवर न्यायालयों के निर्णयों का न्यायिक पुनरीक्षण भी करना है। ये दोनों कार्य भाषाई विश्लेषण पर आधारित निर्वचन प्रणाली की अपेक्षा करते हैं। यह कार्य किसी भी विधिक पाठ अथवा संविधि की व्याख्या से जुड़ा हुआ कार्य है। अत: इसमें किसी भी विधि पाठ का अर्थ बोध सुनिश्चित करना अपेक्षित होता है। अभी तक भारत में विधि के निर्वचन के लिए जिस सिद्धांत का प्रयोग होता है, वह मैक्सवेल का ‘ऑन दी इंटरप्रिटेशन ऑफ स्टेट्यूट्स’ नामक ग्रंथ है। यह किताब लंबे काल से ब्रिटिश विधि के क्षेत्र में व्याख्या की बाइबिल समझी जाती है। यह किताब स्वयं में कोई विधि नहीं है, अपितु विधिशास्त्र की एक ऐसी किताब है, जो परंपरा द्वारा विधि की प्रमाणिक व्याख्या प्रणाली के रूप में स्वीकृत हो गई है। यह सच है कि हिंदी भाषा में इस तरह की प्रणाली का विकास नहीं हुआ है। अत: सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के हिंदी में कामकाज में कठिनाई स्वाभाविक है। यदि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को वास्तविक रूप से न्यायिक कामकाज की भाषा बनाना है तो संविधि की व्याख्या का सिद्धांत तैयार करना होगा। यह कार्य अनुवाद से संभव नहीं है।

मैक्सवेल की निर्वचन प्रणाली ब्रिटिश विधि व्यवस्था और उसके परंपरागत विधिशास्त्र पर आधारित है

मैक्सवेल की निर्वचन प्रणाली ब्रिटिश विधि व्यवस्था और उसके परंपरागत विधिशास्त्र पर आधारित है। भारतीय संदर्भ उसमें नहीं हैं। यही कारण है कि जटिल विषयों पर प्रस्तुत निर्णय समस्त शास्त्रीय शुद्धता के बाद भी आमजन को चौंकाने वाले हो जाते हैं। न्यायालयों में हिंदी के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं के प्रयोग को संभव बनाने का एकमात्र तरीका है कि मैक्सवेल को अपदस्थ किया जाए एवं भारतीय प्रणाली, संस्कृति को प्रकट करने वाली व्याख्या विधि को स्थापित किया जाए। स्वाभाविक तौर पर इसके लिए भारतीय इतिहास की ओर झांकना होगा।

न्याय की पश्चिमी प्रणाली को नकारने के लिए मैक्सवेल को भी खारिज करना होगा

1857 से भारतीय विधि के इतिहास और विकास को समझने के स्थान पर विधिशास्त्र के संपूर्ण भारतीय इतिहास को समझना होगा, जो 1857 के पूर्व से प्रारंभ होता है। ऐसी स्थिति में हमारा ध्यान स्वाभाविक रूप से मीमांसा की निर्वचन विधि की ओर जाएगा, जो विधि सहित विविध शास्त्रों की व्याख्या प्रणाली के रूप में सहस्नों वर्षों से भारत में स्वीकृत रही है। इसमें अनुभव आश्रित एक ऐसी विशिष्ट गतिशीलता है, जो इसे मैक्सवेल की अपेक्षा अधिक उपयोगी और वस्तुनिष्ठ बनाती है। भारत में पुरातन काल से ही इसका प्रयोग होता रहा है। 20वीं और 21वीं शताब्दी में भी इस दिशा में अनेक कार्य हुए हैं। यदि ये कार्य हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाओं में हुए होते तो इसके आधार पर व्याख्या की एक ऐसी प्रणाली का विकास किया जा सकता था, जो मैक्सवेल को खारिज कर सकता था, किंतु इस दिशा में कार्य करने वाले सभी विद्वानों ने भाषा के महत्व की ओर ध्यान नहीं दिया। मैकाले को नकार कर भारतोचित शिक्षा की आवश्यकता को नई शिक्षा नीति 2020 पूर्ण करती है। अब न्याय की पश्चिमी प्रणाली को नकारने के लिए मैक्सवेल को भी खारिज करना होगा।

( लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति हैं )

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