Guru Tegh Bahadur Jayanti 2021: सिख गुरुओं के आदर्शों का अनुसरण हम कर सकते हैं नए भारत का निर्माण

Guru Tegh Bahadur Jayanti 2021 मानव जाति परिवर्तनशील नए पड़ाव में प्रवेश कर रही है। ऐसे समय में गुरु जी का पुण्य स्मरण तो यही है कि उनके मार्ग पर चलकर उस नए भारत का निर्माण करें जिसकी जड़ें उसकी अपनी मिट्टी में सिमटी हों।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Sat, 01 May 2021 09:41 AM (IST) Updated:Sat, 01 May 2021 10:55 AM (IST)
Guru Tegh Bahadur Jayanti 2021: सिख गुरुओं के आदर्शों का अनुसरण हम कर सकते हैं नए भारत का निर्माण
गुरु जी ने त्याग, शौर्य और बलिदान का मार्ग दिखाया।

दत्तात्रेय होसबाल। Guru Tegh Bahadur Jayanti 2021 भारतीय इतिहास में नवम गुरु श्री तेगबहादुर जी का व्यक्तित्व और कर्तृत्व एक उज्ज्वल नक्षत्र की तरह दैदीप्यमान है। उनका जन्म वैशाख कृष्ण पंचमी को पिता गुरु हरगोबिंद जी तथा माता नानकी जी के घर अमृतसर में हुआ। नानकशाही कैलेंडर के अनुसार एक मई, 2021 को उनके प्रकाश को 400 वर्ष पूर्ण हो रहे हैं। जिस कालखंड में भारत के अधिकांश भू-भाग पर मध्य एशिया के मुगलों ने कब्जा कर रखा था, उस समय जिस परंपरा ने उन्हें चुनौती दी, तेगबहादुर जी उसी के प्रतिनिधि थे। उनका व्यक्तित्व तप, त्याग और साधना का प्रतीक है। उनका कर्तृत्व शारीरिक और मानसिक शौर्य का अद्भुत उदाहरण था।

तेगबहादुर जी की वाणी एक प्रकार से व्यक्ति निर्माण का सबसे बड़ा प्रयोग है। नकारात्मक वृत्तियों पर नियंत्रण कर लेने से सामान्य जन धर्म के रास्ते पर चल सकता है। निंदा-स्तुति, लोभ-मोह, मान-अभिमान के चक्रव्यूह में जो फंसे रहते हैं, वे संकट काल में अविचलित नहीं रह सकते। जीवन में कभी सुख आता है और कभी दुख आता है, सामान्य आदमी का व्यवहार उसी के अनुरूप बदलता रहता है, लेकिन सिद्ध पुरुष इन स्थितियों से ऊपर हो जाते हैं। गुरु जी ने इसी साधना को कहा, ‘उसतति निंदिआ नाहि जिहि कंचन लोह समानि’ और ‘सुखु दुखु जिह परसै नही लोभु मोहु अभिमानु।’

गुरु जी ने अपने श्लोकों में कहा, ‘भै काहु कउ देत नहि नहि भै मानत आन’, लेकिन मृत्यु का भय तो सबसे बड़ा है। उसी भय से व्यक्ति मतांतरित होता है, जीवन मूल्यों को त्यागता है और कायर बन जाता है। ‘भै मरबे को बिसरत नाहिन तिह चिंता तनु जारा।’ गुरु जी अपनी वाणी एवं कार्य से ऐसे समाज की रचना कर रहे थे, जो सभी प्रकार की चिंताओं एवं भय से मुक्त होकर धर्म के मार्ग पर चल सके। गुरु जी का संपूर्ण जीवन धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के पुरुषार्थ का सर्वोत्तम उदाहरण है। उन्होंने सफलतापूर्वक अपने गृहस्थ जीवन में अर्थ और काम की साधना करते हुए अपने परिवार और समाज में उत्कृष्ट मानवीय मूल्यों का संचार किया। धर्म की रक्षा के लिए उन्होंने प्राणोत्सर्ग कर दिया। उनका दृष्टिकोण संकट काल में भी आशा एवं विश्वास का है। उन्होंने बताया, ‘बलु होआ बंधन छुटे सभु किछु होत उपाइ।’ गुरु तेगबहादुर जी के कृतित्व से सचमुच देश में बल का संचार हुआ, बंधन टूट गए और मुक्ति का रास्ता खुला। ब्रज भाषा में रचित उनकी वाणी भारतीय संस्कृति, दर्शन एवं आध्यात्मिकता का मणिकांचन संयोग है।

गुरु जी का निवास आनंदपुर साहिब मुगलों के अन्याय एवं अत्याचार के खिलाफ जनसंघर्ष का केंद्र बनकर उभरने लगा था। औरंगजेब हिंदुस्तान को दारुल-इस्लाम बनाना चाहता था। कश्मीर बौद्धिक एवं आध्यात्मिक केंद्र होने के कारण मुगलों के निशाने पर था। कश्मीर के लोग गुरु जी के पास इन सभी विषयों पर मार्गदर्शन के लिए पहुंचे। गुरु जी ने गहन विचार-विमर्श किया। कश्मीर सहित पूरे देश की परिस्थिति गंभीर थी, पर मुगलों के दारुल-इस्लाम बनाने के क्रूर कृत्य को रोकने का मार्ग क्या था? एक ही मार्ग था कि कोई महापुरुष देश और धर्म की रक्षा के लिए आत्मबलिदान दे। उस बलिदान से पूरे देश में जन चेतना का जो ज्वार उठेगा, उसमें विदेशी मुगल साम्राज्य की दीवारें हिल जाएंगी, लेकिन प्रश्न था यह बलिदान कौन दे? इसका समाधान गुरु तेगबहादुर जी के सुपुत्र र्गोंवद राय जी ने कर दिया। उन्होंने अपने पिता से कहा, इस समय देश में आपसे बढ़कर महापुरुष कौन है?

औरंगजेब की सेना ने गुरु जी को तीन साथियों समेत कैद कर लिया। सभी को कैद कर दिल्ली लाया गया। वहां उन पर अमानुषिक अत्याचार किए गए। इस्लाम स्वीकार करने के लिए उन पर शिष्यों सहित तरह-तरह के दबाव बनाए गए। धर्म गुरु बनाने एवं सुख संपदा के आश्वासन भी दिए गए, पर वे धर्म के मार्ग पर अडिग रहे। दिल्ली के चांदनी चौक में गुरु तेगबहादुर जी की आंखों के सामने भाई मति दास को आरे से बीचों-बीच चीर दिया गया, भाई दियाला को खौलते तेल में उबाल दिया गया और भाई सती दास को रूई के ढेर में बांधकर जला दिया गया। शायद मुगल साम्राज्य को लगता था कि अपने साथियों के साथ हुआ यह व्यवहार गुरु जी को भयभीत कर देगा।

गुरु जी जानते थे कि अन्याय और अत्याचार से लड़ना ही धर्म है। इसलिए वह अविचलित रहे। काजी ने आदेश दिया और जल्लाद ने गुरु जी का सिर धड़ से अलग कर दिया। उनके इस आत्मबलिदान ने पूरे देश में एक नई चेतना पैदा कर दी। दशम गुरु गोविंद सिंह ने अपने पिता के बलिदान पर कहा, ‘तिलक जंजू राखा प्रभ ताका। कीनो बड़ो कलू महि साका। साधनि हेति इति जिनि करी। सीस दीआ पर सी न उचरी।’ आज जब देश गुरु जी के प्रकाश के चार सौ साल मना रहा है तो उनके बताए रास्ते का अनुसरण करना ही उनकी वास्तविक पुण्य स्मृति होगी। आज सर्वत्र भोग और भौतिक सुखों की होड़ लगी हुई है, लेकिन गुरु जी ने तो त्याग और संयम का रास्ता दिखाया था। चारों तरफ ईर्ष्या-द्वेष, स्वार्थों एवं भेदभाव का बोलबाला है।

गुरु जी सृजन, समरसता और मन के विकारों पर विजय पाने की साधना की चर्चा करते हैं। यह गुरु जी के साधनामय आचरण का ही प्रभाव था कि वह दिल्ली जाते हुए जिस-जिस गांव से गुजरे, वहां के लोग आज भी तंबाकू जैसे नशे की खेती नहीं करते। कट्टरपंथी एवं मतांध शक्तियां आज पुन: विश्व में सिर उठा रही हैं। गुरु जी ने त्याग, शौर्य और बलिदान का मार्ग दिखाया। मानव जाति परिवर्तनशील नए पड़ाव में प्रवेश कर रही है। ऐसे समय में गुरु जी का पुण्य स्मरण तो यही है कि उनके मार्ग पर चलकर उस नए भारत का निर्माण करें जिसकी जड़ें उसकी अपनी मिट्टी में सिमटी हों।

(लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह हैं)

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