राजग के बढ़ते राजनीतिक प्रभाव को रोकने में विपक्षी दलों के महागठबंधन को सफलता नहीं मिलेगी

महागठबंधन न तो विकासोन्मुखी उद्देश्यों वाला है और न ही उसकी विश्वसनीयता का कोई आधार है।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Mon, 19 Nov 2018 11:45 PM (IST) Updated:Tue, 20 Nov 2018 08:14 AM (IST)
राजग के बढ़ते राजनीतिक प्रभाव को रोकने में विपक्षी दलों के महागठबंधन को सफलता नहीं मिलेगी
राजग के बढ़ते राजनीतिक प्रभाव को रोकने में विपक्षी दलों के महागठबंधन को सफलता नहीं मिलेगी

[ भूपेंद्र यादव ]: पिछले लोकसभा चुनावों में पूर्ण बहुमत से विजयी होने के बाद भाजपा ने देश की राजनीति में स्वयं को और अधिक मजबूती से स्थापित किया, इसका प्रमाण इससे मिलता है कि 2014 में जहां केवल पांच राज्यों में भाजपा की सरकारें थीं वहीं आज वह 19 राज्यों में सत्ता में हैं। भारत की चुनावी राजनीति में किसी भी सरकार अथवा दल को मिलने वाला जनसमर्थन इस बात की तस्दीक करता है कि जनता के बीच उसकी कितनी लोकप्रियता है। इस आधार पर देखें तो केंद्र की सत्ता में आने के बाद से भाजपा की लोकप्रियता में लगातार वृद्धि ही हुई है। एक दौर था जब भाजपा को एक क्षेत्र-विशेष तक सीमित पार्टी माना जाता था, लेकिन आज पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक पार्टी का जनाधार और सक्रिय संगठन है। अब यह भी माना जाता है कि देश को नेतृत्व देने में भाजपा ही सर्वाधिक सक्षम दल है। 2014 के लोकसभा चुनावों को लेकर यह कहा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी की लहर के कारण भाजपा को जीत मिली, लेकिन यह ध्यान रहे कि उसके बाद भी भाजपा का मत प्रतिशत लगातार बढ़ा और साथ ही राजग में नए सहयोगी भी जुड़े।

लोकसभा चुनावों के दौरान भाजपा के नेतृत्व वाले राजग में पचीस के आसपास सहयोगी दल थे जो अब तीस के करीब हैं। लोकसभा चुनाव में जदयू भाजपा के साथ नहीं था, लेकिन अब वह भी साथ है। इसके साथ ही पूर्वोत्तर भारत के असम, त्रिपुरा आदि राज्यों में भी नए सहयोगी राजग का हिस्सा बने हैं। साफ है कि बीते चार साल में भाजपा के जनाधार, उसकी विश्वसनीयता और राजनीतिक प्रभाव में व्यापक और बहुआयामी विस्तार हुआ है। नि:संदेह यह नहीं कहा जा सकता कि भाजपा के बढ़ते राजनीतिक प्रभाव को रोकने के लिए कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने कोई कोशिश नहीं की। कांग्रेस सहित अन्य राजनीतिक दलों ने गठबंधन बनाकर भाजपा की राह रोकने की भरपूर कोशिश की। यह कोशिश आज भी जारी है। यह अलग बात है कि अधिकांश मौकों पर उनकी कोशिश असफल हुई। इसका कारण शायद यह रहा कि वैचारिक भिन्नता का ध्यान नहीं रखा गया।

उदाहरण के तौर पर भारतीय राजनीति में यह पहली बार हुआ कि केरल में कांग्रेस ने कम्युनिस्टों के खिलाफ चुनाव लड़ा और उसी दौरान पश्चिम बंगाल में उनके साथ मिलकर चुनाव में उतरे। हालांकि दोनों ही जगह उसे पराजय का सामना करना पड़ा। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ कांग्र्रेस ने गठबंधन किया तो वहां खुद भी हारी और सपा भी। कर्नाटक में भले ही कांग्रेस चुनाव बाद गठबंधन करके सत्ता में बैठी हो, लेकिन वहां भी उसकी राजनीतिक जमीन कमजोर ही हुई है और वह दूसरे नंबर की पार्टी बन गई है। बीते कुछ समय से 2019 के लोकसभा चुनाव को लेकर महागठबंधन की चर्चा है, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि अगर यह गठबंधन किसी तरह आकार ले भी लेता है तो इसमें कांग्र्रेस की स्थिति क्या और कैसी होगी?

उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा में से कोई भी कांग्र्रेस को महत्व देने को तैयार नहीं है। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस भी कांग्रेस की अनदेखी ही कर रही है। तेलंगाना में भी कांग्रेस के पास कोई मजबूत साथी नहीं है। इसके पीछे मुख्य दो कारण हैं। पहला कांग्र्रेस का कमजोर हो चुका जनाधार और दूसरा उसके नेतृत्व की समाप्त हो चुकी विश्वसनीयता। इसी कारण आज कोई भी बड़ा क्षेत्रीय राजनीतिक दल कांग्रेस के भरोसे चुनाव में उतरने का जोखिम लेने को तैयार नहीं है। कांग्र्रेस की इस उपेक्षा का कारण उसकी राजनीतिक जमीन का चुनाव दर चुनाव लगातार खिसकते जाना है।

कांग्रेस के जनता से कटे होने के दो कारण नजर आते हैैं। पहला,पार्टी के भीतर किसी लोकतांत्रिक ढांचे का न होना और दूसरा, नेतृत्व का धीरे-धीरे समाप्त होते जाना। इसी के चलते उत्तर प्रदेश बिहार, बंगाल, ओडिशा आदि अनेक राज्यों से कांग्रेस की एक बार सत्ता से जो विदाई हुई तो वह वहां दोबारा सत्ता में नहीं लौट पाई। इसका मतलब है कि जनता का विश्वास एक बार खोने के बाद कांग्रेस उसे दोबारा हासिल करने में नाकाम रही। पार्टी में वैचारिक स्थिरता का घोर अभाव भी उसकी कमजोरी का कारण है। उसे यह स्पष्ट नहीं कि किसका समर्थन करना है और किसका नहीं? कांग्रेस के नेता जेएनयू में देश विरोधी नारे लगाने वालों के समर्थन में नजर आए, कर्नाटक में हिंदू समुदाय को बांटने की कोशिश करते दिखे और गुजरात में समाज के जातिगत विभाजन की नीति को हवा देने की जुगत भिड़ाते रहे।

पिछले कुछ समय से वह भाजपा की राष्ट्रवादी विचारधारा की नकल करने की कोशिश में जुटी हुई है। इससे यही पता चलता है कि उसके पास अपनी कोई विचारधारा नहीं है। यह भी उल्लेखनीय है कि कथित महागठबंधन में शामिल होने वाले दल जब तक नेतृत्व का निर्णय नहीं करते तब तक उसे मिथक ही समझा जाना चाहिए। कांग्र्रेस में नेतृत्व की बात करें तो वहां राहुल गांधी को लेकर पार्टी और सहयोगी दलों में भी प्रश्न उठते रहे हैं। आज कांग्र्रेस का न तो कोई सांगठनिक स्वरूप बचा है और न ही उसके पास प्रभावी नेतृत्व है। कांग्रेस के खोए जनाधार पर अब क्षेत्रीय दल काबिज हो रहे हैं जबकि इस दौरान भाजपा ने अपनी विचारधारा से लेकर राजनीतिक प्रदर्शन में स्थिरता और निरंतरता बनाए रखी है। इसके पीछे एक बड़ा कारण सामाजिक, आर्थिक सहित विविध क्षेत्रों में भाजपा और उसके सहयोगी दलों की सरकारों के लोक हित के कार्य हैं।

लोक कल्याण के कार्यों और जनता के बीच हर समय उपस्थिति के कारण भाजपा का न केवल राजनीतिक जनाधार बढ़ा है, बल्कि सांगठनिक क्षमता में भी वृद्धि हुई है। भाजपा ने अपने कार्यक्रमों को सुनियोजित स्वरूप दिया है और केरल, बंगाल आदि जिन राज्यों में वह कमजोर रही वहां भी अपने मत प्रतिशत में सुधार किया है। पूर्वोत्तर के राज्यों में तो भाजपा ने सरकार बनाने में भी कामयाबी हासिल की है। आज भाजपा के खिलाफ जिस विपक्षी एकजुटता की चर्चा चल रही है, वह अवसरवाद की खोखली बुनियाद पर टिकी है। यह कथित महागठबंधन न तो विकासोन्मुखी उद्देश्यों वाला है और न ही उसकी विश्वसनीयता का कोई आधार है।

[ लेखक राज्यसभा सदस्य एवं भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव हैं ]

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