काबुल में अभी खत्म नहीं हुआ खेल, अफगानिस्तान के बाद अब तालिबानी लड़ाके कश्मीर में शुरू कर सकते हैं जिहाद

अफगानिस्तान में बदले माहौल और वहां चीन की बढ़ी पैठ ने भारत के लिए अगर नई चुनौतियां खड़ी की हैं तो नई संभावनाएं भी जगाई हैं। एक तो अमेरिका के अचानक भाग खड़े होने से भारत को अमेरिका के पल्लू में बंधे रहने की मजबूरी से मुक्ति मिल गई है।

By TilakrajEdited By: Publish:Thu, 23 Sep 2021 07:56 AM (IST) Updated:Thu, 23 Sep 2021 05:40 PM (IST)
काबुल में अभी खत्म नहीं हुआ खेल, अफगानिस्तान के बाद अब तालिबानी लड़ाके कश्मीर में शुरू कर सकते हैं   जिहाद
इस्लामिक आतंकवाद की उलझनों में चीन के उलझने की आशंका भी अब उसकी हेकड़ी को कम ही करेगी

विजय क्रांति। अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद से भारत में एक खास वर्ग की खुशी का कोई ठिकाना नहीं रह गया है। इनमें देसी कम्युनिस्ट सबसे आगे हैं, जो एशिया में चीन के बढ़ते दबदबे से आह्लादित हैं। साथ ही इस्लामी जिहाद के पैरोकार, भाजपा तथा मोदी विरोधी पार्टियों के नेता और ऐसे छद्म-सेक्युलरिस्ट भी इनमें शामिल हैं, जिन्हें भारत के कमजोर होने का कोई मलाल नहीं, लेकिन मोदी सरकार के मुश्किल में पड़ने के आसार से उनकी बांछें खिल गई हैं। उन्हें अफगानिस्तान में अमेरिकी हार से भी ज्यादा खुशी इस उम्मीद में हो रही है कि अब मोदी सरकार दुनिया में अकेली पड़ जाएगी और उनका अपना एजेंडा चल निकलेगा। उधर पाकिस्तान में भी उम्मीद जताई जाने लगी है कि अफगानिस्तान में फतह हासिल करने वाले इस्लामी लड़ाके अब कश्मीर में जिहाद शुरू करेंगे।

इन तमाम लोगों के अलावा विश्लेषकों का भी एक वर्ग ऐसा है, जिसका मानना है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी पलायन से भारत के लिए हालात मुश्किल हो गए हैं। सतही तौर पर उनकी दलीलें कुछ हद तक तर्कसंगत भी दिखती हैं, लेकिन ये ऐसे विश्लेषक हैं, जो न तो भारत की भीतरी जिजीविषा को जानते हैं और न ही उस इतिहास को समझना चाहते हैं जिसमें कठिनतम परिस्थितियों के बावजूद भारत बार-बार विजयी और पहले से ज्यादा ताकतवर होकर उभरता आया है। विश्लेषकों की इस बिरादरी को यह याद दिलाना जरूरी है कि 1965 और 1971 के युद्धों में पाकिस्तान को अमेरिका के खुले समर्थन के बावजूद भारत ने उसे बुरी तरह धूल चटाई थी।

वहीं, लद्दाख के नवीनतम अध्याय में चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग और उनकी सेना सिवाय हाथ मलने और बार-बार अपने सेनापति बदलने के कुछ नहीं कर पा रही। यह बिरादरी मानकर चल रही है कि अफगानिस्तान में अमेरिका की जगह ले रहे चीन की उस योजना को नई गति मिलने जा रही है, जिसके तहत चीनी सरकार पाकिस्तान, रूस और ईरान के साथ मिलकर अमेरिका, भारत, आस्ट्रेलिया और जापान के ‘क्वाड’ के मुकाबले अपना नया ‘क्वाड’ बनाने को बेताब थी।

भारत के लिए निराशा भरी भविष्यवाणियां करने वालों का यह भी मानना है कि दक्षिण एशिया के नए समीकरणों में अब ईरान और रूस के साथ भारत के रिश्ते पहले की तरह भरोसेमंद नहीं रहेंगे, लेकिन अफगानिस्तान में अमेरिका की जगह चीन और पाकिस्तान की साझा उपस्थिति को भारत की हार बताने वाले लोगों की यह खुशी बहुत लंबी चलने वाली नहीं है। अफगानिस्तान में चीन की नई भूमिका चीन के लिए शायद उससे भी बड़ा जंजाल साबित होने जा रही है, जिसमें पहले सोवियत संघ और बाद में अमेरिका उलझ चुके हैं। फिलहाल तो चीन अफगानिस्तान के अकूत खनिज भंडारों और अपनी उपनिवेशवादी परियोजना बेल्ट एंड रोड के नए विस्तार की संभावनाओं से खुश दिख रहा है, लेकिन वह इस्लाम के उस कट्टरपंथी रूप से एकदम अनजान है, जो चीन के भीतर कम्युनिस्ट शासन और तानाशाही व्यवस्था के लिए भयंकर खतरा बनने वाला है।

चीनी नेता यह भूल रहे हैं कि 1949 में छोटी-सी आबादी वाले मुस्लिम देश ईस्ट-तुर्किस्तान (चीनी नाम शिनजियांग) पर कब्जा करने के 72 साल बाद भी वे उसे हजम नहीं कर पाए और शिनजियांग उनके लिए आज भी भारी सिरदर्द बना हुआ है। चीन को बहुत जल्द पता चल जाएगा कि भ्रष्ट और अक्खड़ तालिबान नेताओं की एक जमात को साध लेने के बाद भी वह शिनजियांग से एकदम सटे हुए अफगानिस्तान में इस्लामी आतंकवादी संगठनों को कभी पालतू नहीं बना सकता है। इतिहास बताता है कि ये संगठन खुद को एक-दूसरे से ज्यादा शुद्ध मुस्लिम सिद्ध करने की होड़ में समूचे शिनजियांग को आग के शोले में बदलने की हैसियत रखते हैं।

उधर, पाकिस्तान में कुछ लोग अभी से मानने लगे हैं कि अफगानिस्तान पर तालिबानी कब्जे के बाद इस्लामी जिहाद जल्द ही पाकिस्तान में भी जोर पकड़ेगी। इससे रूस और ईरान के सामने बड़ी चिंता खड़ी हो गई है। उनकी देहरी पर कट्टर और हिंसक इस्लाम की नई मौजूदगी से उनके आंतरिक समीकरण गड़बड़ाने का खतरा पैदा हो गया है। कोढ़ में खाज का आलम यह है कि ईरान और रूस के बगल में बसे अफगानिस्तान में चीन की दादागीरी वाली उपस्थिति उनके लिए एक गंभीर चुनौती बनने जा रही है। रूस तो चीनी दुश्मनी का स्वाद कई बार चख चुका है। अब बारी है अमेरिका की नई क्षमताओं की, जो विदेशी भूमि पर अपने सैनिकों की शहादत के खौफ से पूरी तरह मुक्त हो गया है। अफगानिस्तान से निकलने के बाद अमेरिका को अपने पैसे, हथियारों और खुफिया तंत्र के बूते पर हर किसी का खेल बिगाड़ सकने की जो नई क्षमता मिल गई है, उसकी कल्पना चीन, रूस और ईरान को अभी से कर लेनी होगी।

अफगानिस्तान में बदले माहौल और वहां चीन की बढ़ी पैठ ने भारत के लिए अगर नई चुनौतियां खड़ी की हैं, तो कई नई संभावनाएं भी जगाई हैं। एक तो अमेरिका के अचानक भाग खड़े होने से भारत को अमेरिका के पल्लू में बंधे रहने की मजबूरी से मुक्ति मिल गई है। नए समीकरणों में अब वह ईरान और रूस के साथ रिश्तों को नए सिरे से परिभाषित कर सकता है, क्योंकि न केवल इन दोनों देशों के लिए, बल्कि खुद अमेरिका के लिए भी अब भारत का महत्व पहले से ज्यादा बढ़ने वाला है।

इस्लामिक आतंकवाद की उलझनों में चीन के उलझने की आशंका भी अब उसकी हेकड़ी को कम ही करेगी। खुद अफगानिस्तान के भीतर पिछले बीस साल में भारत ने जिस तरह से विकास और सहयोग के बूते अपनी दोस्ताना छवि बनाई है वह केवल आम अफगानों के ही मन में नहीं, बल्कि तालिबान के दिलों में भी भारत के लिए अपने दरवाजे खोलेगी। जहां तक भारत में मोदी-विरोध और भारत-विरोध के बुखार में तपे हुए लोगों की बात है तो उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि उनके सभी उकसावों के बावजूद मोदी सरकार अपने हजारों लोगों को सुरक्षित लाने में कामयाब रही है। इतने तनाव भरे माहौल में यह सफलता दिखाती है कि अफगानिस्तान में हुए परिवर्तनों ने अगर भारत के सामने कई चुनौतियां खड़ी की हैं तो एशिया में एक नई शक्ति बनकर उभरने के नए अवसर भी पैदा कर दिए हैं।

 

(लेखक सेंटर फार हिमालयन एशिया स्टडीज एंड एंगेजमेंट के चेयरमैन हैं एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

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