अंग्रेजी के आगे भी भविष्य है: अपनी भाषा को नजरंदाज करने से भावी पीढ़ियां सामाजिक एवं भाषाई धरोहर से हो जाएंगी वंचित

हर बड़े परिवर्तन की शुरुआत एक क्रांतिकारी कदम से ही होती है। शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होने का अर्थ यह नहीं कि हम कटकर अलग-थलग हो जाएं। हर व्यक्ति को यथासंभव अधिक से अधिक भाषाएं सीखनी चाहिए लेकिन जरूरी है कि मजबूत नींव मातृभाषा में ही पड़े।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Thu, 05 Aug 2021 05:23 AM (IST) Updated:Thu, 05 Aug 2021 05:23 AM (IST)
अंग्रेजी के आगे भी भविष्य है: अपनी भाषा को नजरंदाज करने से भावी पीढ़ियां सामाजिक एवं भाषाई धरोहर से हो जाएंगी वंचित
आठ राज्यों के 14 इंजीनियरिंग कालेजों ने पाठ्यक्रमों को स्थानीय भाषाओं में भी उपलब्ध कराने का फैसला लिया

[ एम वेंकैया नायडू ]: हर बड़े परिवर्तन की शुरुआत एक क्रांतिकारी कदम से ही होती है। हाल में आठ राज्यों के 14 इंजीनियरिंग कालेजों ने आगामी सत्र से अपने यहां चुने हुए पाठ्यक्रमों को स्थानीय भाषाओं में भी उपलब्ध कराने का फैसला लिया। यह देश की शिक्षा व्यवस्था में बदलाव के लिए लिया गया ऐसा ऐतिहासिक फैसला है, जिस पर भावी पीढ़ियों का भविष्य टिका है। इसके साथ अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद यानी एआइसीटीई द्वारा नई शिक्षा नीति के अनुरूप ही बीटेक पाठ्यक्रमों को 11 स्थानीय भाषाओं में उपलब्ध कराए जाने को भी स्वीकृति प्रदान की गई है। यह निर्णय हिंदी, मराठी, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, गुजराती, मलयालम, बांग्ला, असमिया, पंजाबी और उड़िया भाषाओं में बीटेक विद्यार्थियों के लिए अवसरों का एक नया संसार खोलेगा।

नई शिक्षा नीति में मातृभाषाओं को महत्व

राष्ट्रीय शिक्षा नीति की पहली वर्षगांठ के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस कदम की सराहना करते हुए कहा था कि नई शिक्षा नीति में शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषाओं को महत्व दिए जाने से गरीब, ग्रामीण और जनजातीय पृष्ठभूमि से आए मेधावी छात्रों में एक नया आत्मविश्वास पैदा होगा। उन्होंने विद्या प्रवेश नाम के नए प्रोग्राम का भी जिक्र किया, जिसका शुभारंभ भी इसी अवसर पर किया गया। इन सराहनीय कदमों का स्वागत होना चाहिए और आगामी कुछ वर्षों में इनका विस्तार भी किया जाना चाहिए, जिससे अपनी मातृभाषा में ही व्यावसायिक पाठ्यक्रम पढ़ने का लाखों विद्यार्थियों का सपना पूरा हो सके।

प्रगतिशील और दूरदर्शी नई शिक्षा नीति

प्रगतिशील और दूरदर्शी नई शिक्षा नीति, 2020 में प्राथमिक विद्यालय से ही शिक्षा को मातृभाषा में ही दिए जाने पर जोर दिया गया है, जिससे बच्चे की शिक्षा और समझ में सुधार हो। कितने ही अध्ययनों से सिद्ध हो चुका है कि वे बच्चे जिनकी अपनी शुरुआती शिक्षा मातृभाषा में होती है, वे उन बच्चों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन करते हैं, जिनकी प्रारंभिक शिक्षा किसी अन्य भाषा में हुई हो। यूनेस्को और अन्य संस्थाएं इस पर बल देती रही हैं कि मातृभाषा में सीखना, आत्मसम्मान और अपनी पहचान बनाने के लिए तथा बच्चे के संपूर्ण विकास के लिए भी आवश्यक है। दुर्भाग्य से कुछ अभिभावक और शिक्षक बिना जाने-बूझे अंग्रेजी के वर्चस्व पर ही बल देते हैं। परिणामस्वरूप बच्चे की अपनी ही मातृभाषा स्कूल में दूसरी या तीसरी भाषा बन जाती है।

विज्ञान को मातृभाषा में पढ़ाना चाहिए

प्रख्यात भौतिकशास्त्री और नोबल पुरस्कार से सम्मानित सर सीवी रमन ने कहा था, हमें विज्ञान को मातृभाषा में ही पढ़ाना चाहिए, अन्यथा वह एक गर्व या घमंड का विषय बन जाएगा। वह ऐसा विषय नहीं बन सकेगा जिसमें हर कोई शिरकत कर सके। हमारे शिक्षा तंत्र में अभूतपूर्व प्रसार हुआ है, लेकिन पिछले कई वर्षों में हमने अपने ही विद्यार्थियों की प्रगति के रास्ते में शैक्षणिक बाधाएं खड़ी कर दी हैं। हम अंग्रेजी माध्यम के चंद विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों के एक छोटे से बुलबुले को बनाकर ही संतुष्ट हैं, जबकि तकनीकी और व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में हमारी अपनी ही भाषाएं पिछड़ रही हैं। उच्चतर शिक्षा में शिक्षा के माध्यम के बारे में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचलित रीति-नीति पर नजर डालें तो हमें मालूम पड़ेगा कि हम कहां खड़े हैं?

दक्षिण कोरिया में 70 फीसदी विश्वविद्यालयों में शिक्षण कोरियन भाषा में होता है

दक्षिण कोरिया में 70 प्रतिशत विश्वविद्यालयों में शिक्षण कोरियन भाषा में ही होता है। अग्रेजी के प्रति अभिभावकों में बढ़ते आग्रह को देखते हुए 2018 में दक्षिण कोरियाई सरकार ने स्कूलों में कक्षा तीन से पहले अंग्रेजी की पढ़ाई पर ही प्रतिबंध लगा दिया, क्योंकि विद्यार्थियों की कोरियाई भाषा में प्रवीणता कम हो रही थी। इसी प्रकार जापान में भी विश्वविद्यालयों में अधिकांश पाठ्यक्रम जापानी भाषा में ही पढ़ाए जाते हैं। यही स्थिति चीन में भी है। फ्रांस और जर्मनी की शिक्षा पद्धति हमें सिखाती है कि राष्ट्र अपनी भाषा को कैसे संरक्षित रखते हैं। इस वैश्विक परिदृश्य में यह अजीब है कि भारत में अधिकांश व्यावसायिक पाठ्यक्रम अंग्रेजी में पढ़ाए जाते हैं। विज्ञान, इंजीनियरिंग, चिकित्सा विज्ञान, विधि में तो स्थिति और भी खराब है, जहां स्थानीय भाषाओं में पाठ्यक्रम न के बराबर हैं। सौभाग्य से अब हम अपनी भाषा में ही अपनी आवाज पा सकेंगे। इस विषय में राष्ट्रीय शिक्षा नीति हमारा मार्गदर्शन करती है, जिसमें हमारी भाषाओं के संरक्षण के साथ-साथ अच्छी शिक्षा भी सभी की पहुंच में हो, इसका खाका तैयार किया गया है।

स्थानीय भाषाओं में उच्चतर शिक्षा

हालांकि व्यावसायिक पाठ्यक्रमों के लिए 14 कालेजों द्वारा लिया गया कदम सर्वथा सराहनीय है, लेकिन हमें और भी ऐसे ही प्रयास चाहिए। निजी विश्वविद्यालयों को भी इसमें जुड़ना चाहिए। स्थानीय भाषाओं में उच्चतर शिक्षा लेने के मार्ग में सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि छात्रों को स्तरीय पुस्तकें नहीं मिल पातीं, खासकर तकनीकी शिक्षा में। इस कमी का समाधान जल्द करना जरूरी है। आज के डिजिटल युग में भारतीय भाषाओं में पाठ्यक्रमों को दूरस्थ स्थानों में रहने वाले विद्यार्थियों को उपलब्ध कराने के लिए तकनीक का प्रयोग किया जा सकता है। डिजिटल माध्यम में उपलब्ध पाठ्य सामग्री प्राय: अंग्रेजी में ही होती है, जिससे बड़ी संख्या में हमारे बच्चे वंचित रह जाते हैं। इस दिशा में एआइसीटीई और आइआइटी, मद्रास के सहयोग से स्वयं पाठ्यसामग्री को तमिल, हिंदी, तेलुगु, कन्नड़, बांग्ला, मराठी, मलयालम और गुजराती आदि भाषाओं में अनुवाद कर उपलब्ध कराया जाना सराहनीय कदम है। इससे इंजीनियरिंग के छात्रों को बड़ी सहायता मिलेगी।

हर व्यक्ति को अधिक से अधिक भाषाएं सीखनी चाहिए, लेकिन नींव मातृभाषा में ही पड़े

शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होने का अर्थ यह नहीं कि हम कटकर अलग-थलग हो जाएं। हर व्यक्ति को यथासंभव अधिक से अधिक भाषाएं सीखनी चाहिए, लेकिन जरूरी है कि मजबूत नींव मातृभाषा में ही पड़े। मैं मातृ भाषा बनाम अंग्रेजी की वकालत नहीं कर रहा हूं, बल्कि मैं मातृभाषा के साथ अंग्रेजी का भी हिमायती हूं। आज हम परस्पर निर्भर और आपस में जुड़े हुए विश्व में रह रहे हैं। ऐसे में विभिन्न भाषाओं में प्रवीणता वृहत्तर विश्व के नए द्वार ही खोलेगी। यदि हम अपनी भाषा को नजरंदाज करते हैं तो न सिर्फ ज्ञान की एक बहुमूल्य निधि को खो देंगे, बल्कि अपनी भावी पीढ़ियों को उनकी सांस्कृतिक जड़ों से भी काट देंगे और उन्हेंं सामाजिक एवं भाषाई धरोहर से वंचित कर देंगे।

( लेखक उपराष्ट्रपति हैं )

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