फासीवादी मानसिकता वाले बुद्धिजीवी: आज फासीवादी वही, जो दूसरों को फासीवादी कह रहा, भले ही बुद्धिजीवी का चोला ओढ़ ले

एक वर्ग के प्रति इतनी नफरत कि उसकी हत्या पर संवेदना भी पैदा न हो यही फासीवाद का असल रूप है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो आज का फासीवादी वह है जो दूसरों को फासीवादी कह रहा है। वह भले बुद्धिजीवी का चोला ओढ़ ले।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Wed, 07 Apr 2021 02:12 AM (IST) Updated:Wed, 07 Apr 2021 02:38 AM (IST)
फासीवादी मानसिकता वाले बुद्धिजीवी: आज फासीवादी वही, जो दूसरों को फासीवादी कह रहा, भले ही बुद्धिजीवी का चोला ओढ़ ले
तृणमूल कांग्रेस द्वारा जारी हिंसा शर्मनाक अध्याय के रूप में याद रखी जाएगी।

[ विकास सारस्वत ]: हिंसा को केवल झूठ के द्वारा ही छिपाया जा सकता है और झूठ को केवल हिंसा द्वारा कायम रखा जा सकता है।’ नोबेल पुरस्कार विजेता अलेक्जेंडर सोलजेनित्सिन ने यह प्रसिद्ध उक्ति यूं तो सोवियत संघ की अत्याचारी कम्युनिस्ट सरकार के संबंध में कही थी, परंतु यह किसी भी काल और समाज में पनपी तानाशाही प्रवृत्ति का लक्षण है।

तृणमूल कार्यकर्ताओं की हिंसा की शिकार वृद्ध शोभा का मार्मिक विवरण राष्ट्रीय चेतना के लिए चुनौती

एक माह पूर्व तृणमूल कार्यकर्ताओं द्वारा बेरहमी से पीटी गईं 82 वर्षीय शोभा मजूमदार का पिछले दिनों बंगाल के उत्तरी 24 परगना में निधन हो गया। अपने पुत्र के साथ शोभाजी को केवल इसलिए पीटा गया, क्योंकि पुत्र गोपाल ने चुनाव में भाजपा के समर्थन का फैसला किया था। इस हमले का वृद्ध शोभाजी द्वारा मार्मिक विवरण उस राष्ट्रीय चेतना के लिए चुनौती है, जो भारत के सफल लोकतंत्र होने का गुमान रखती है। शोभाजी की मृत्यु से एक दिन पहले ही एक छोटी बच्ची का वीडियो वायरल हुआ था। उस वीडियो में चोटिल बच्ची कह रही है कि तृणमूल वालों ने उसे तब मारा, जब वह पिता को बचाने के लिए आगे आई।

तृणमूल कांग्रेस द्वारा जारी हिंसा शर्मनाक अध्याय के रूप में याद रखी जाएगी

बंगाल में सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस द्वारा जारी हिंसा शर्मनाक अध्याय के रूप में याद रखी जाएगी, परंतु तृणमूल कार्यकर्ताओं द्वारा विरोधी भाजपा समर्थकों के साथ मारपीट और लगातार हत्याएं जितनी उद्वेगकारी हैं, उतनी ही हैरानी वाली बात इन घटनाओं पर कथित भारतीय बुद्धिजीवियों की चुप्पी है। जिन बुद्धिजीवियों ने ‘जय श्रीराम’ जैसे अभिवादन और स्वेच्छा से दिए गए त्यागपत्रों में फासीवाद ढूंढ लिया उन्हें हाड़-मांस के मानवों की राजनीतिक विरोध में हुई हत्याओं में निरंकुश सत्ता का बोध कभी नहीं हुआ। बावजूद इसके कि ‘फासीवाद’, ‘तानाशाही’ और ‘असहिष्णुता’ जैसे शब्दों का कोलाहल बीते वर्षों में पूरी तरह विमर्श पर छाया रहा है। बंगाल में त्रिलोचन महतो, सुखदेव प्रमाणिक, गणेश राय, चंद्र हलदर, रॉबिन पॉल, पूर्णचरण दास जैसी हिंसा का शिकार हुईं दर्जनों आत्माएं बुद्धिजीवियों के सहानुभूति पटल पर पंजीकृत नहीं हो पाईं।

फासीवाद’ का बुद्धिजीवी प्रलाप

केवल बंगाल ही नहीं, केरल, कर्नाटक में हुई राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्याएं या महाराष्ट्र सरकार द्वारा सत्ता मद में आम नागरिकों और मीडियाकर्मियों पर ज्यादतियां या फिर दिल्ली सहित देश के अलग-अलग हिस्सों में हिंदुओं की हत्याओं पर छद्म बुद्धिजीवी चुप्पी साधे रहे हैं। ऐसे घोर अतिवाद पर मौन रहकर ‘बहुसंख्यकवाद’, ‘चुनावी अधिनायकवाद’, ‘एकाधिकारी राजसत्ता’ जैसे ऊलजुलूल और बेईमान जुमले गढ़ ये बुद्धिजीवी लोकतांत्रिक व्यवस्था को ही कोसने लगे हैं। दरअसल ‘फासीवाद’ का यह बुद्धिजीवी प्रलाप सोलजेनित्सिन की बात को चरितार्थ करता है। जहां एक ओर ये बुद्धिजीवी असल हिंसा को छुपाने का प्रयास करते हैं, वहीं नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए और कृषि कानून विरोधी आंदोलन जैसे भ्रामक और उग्र विरोधों को हवा देकर हिंसा फैलाने का काम करते हैं।

रक्षात्मक प्रक्रिया में व्यक्ति अपनी खामियों और दुर्व्यवहार को दूसरे पर प्रक्षेपित करता है

राजसत्ता द्वारा पोषित भारत का वामपंथी बुद्धिजीवी वर्ग जो बुद्धिजीवी कम और अभिजात्य ज्यादा है, केंद्र में सत्ता परिवर्तन के बाद से क्रोध, घृणा और क्षोभ में डूबा हुआ है। अपनी आयातित विचारधारा को भारत पर थोपने को आतुर यह वर्ग भारतीय संस्कृति और सभ्यता के पुनरुत्थान से तिलमिलाया हुआ है। स्वयं असहिष्णुता का पर्याय यह वर्ग बंगाल समेत देशभर में सत्ताधारी भाजपा और उसके समर्थकों पर हो रही हिंसा का मौन समर्थक है। ऐसा ही मौन समर्थक वह नक्सली हिंसा का भी है। कई बार तो वह इस हिंसा को जायज ठहराने की भी कोशिश करता दिखता है। मनोविज्ञान कुंठितों में मनोवैज्ञानिक प्रक्षेपण की बात करता है। यह वह रक्षात्मक प्रक्रिया है, जिसमें व्यक्ति अपनी खामियों और अपने दुर्व्यवहार को दूसरे पर प्रक्षेपित करता है। प्रसिद्ध मनोविज्ञानी सिग्मंड फ्रायड मानते थे कि ऐसा व्यक्ति प्रक्षेपण की प्रक्रिया में उन विचारों, प्रेरणाओं, इच्छाओं और भावनाओं को बाहरी दुनिया में रखकर किसी और को उनके लिए जिम्मेदार ठहरा देता है, जिन्हें उसे अपने व्यवहार में स्वीकार करना असहज होता है।

स्वयंभू प्रगतिवादी वामपंथी बुद्धिजीवियों में मनोवैज्ञानिक प्रक्षेपण को समूह स्तर पर देखा जा सकता है

स्वयंभू प्रगतिवादी वामपंथी बुद्धिजीवियों में मनोवैज्ञानिक प्रक्षेपण को समूह स्तर पर देखा जा सकता है। झूठ और मक्कारी से भरे इनके व्यवहार में प्रति पल उलट प्रक्षेपण दिखता है। ये धुर सांप्रदायिक नीतियों और शक्तियों का समर्थन करते हैं और दूसरों को सांप्रदायिक बताते हैं। ये विशेष राजनीतिक दलों के क्रियाकलापों पर मौन साधकर अन्य पत्रकारों को गोदी मीडिया कहकर संबोधित करते हैं। बड़ी सरलता से हिंसा और तोड़फोड़ को जनतांत्रिक प्रदर्शन और लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकारों को चुनावी अधिनायकवाद बता देते हैं। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शरारतपूर्ण और झूठे प्रोपेगेंडा चलाने के बाद यदि कभी कोई एजेंसी हल्की कार्रवाई कर दे तो उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दमन से जोड़ देते हैं। वहीं दूसरे पक्ष की अभिव्यक्ति चाहे वह ऐतिहासिक साक्ष्यों या मजहबी पुस्तकों पर आधारित हो, उसे हेट स्पीच बताते हैं। इनकी दुनिया में सिद्धांतों की नहीं, समूहों और दलों की प्रधानता है। इनकी नैतिकता राज्यसत्ता और पीड़ित की सामाजिक-राजनीतिक पृष्ठभूमि देख जागृत होती है।

राजसत्ता द्वारा शासकीय तंत्र का विरोधियों के दमन के लिए प्रयोग फासीवाद का मूल सिद्धांत

राजसत्ता द्वारा शासकीय तंत्र का विरोधियों एवं आम नागरिकों के दमन के लिए प्रयोग फासीवाद का मूल सिद्धांत है। भारतीय छद्म बुद्धिजीवी इसी राज्य प्रायोजित तानाशाही को छोड़कर काल्पनिक क्रियाओं या यकायक हुए अपराधों में शब्दाडंबर द्वारा कृत्रिम फासीवाद का निर्माण करते हैं। इनके प्रयासों का चुनावी राजनीति पर उतना फर्क न पडे़, परंतु एक बडे़ वर्ग की नैतिकता पर इसका प्रभाव पड़ा है। इस प्रयास की सफलता इसी से पता चलती है कि शोभाजी और उन जैसे सैकड़ों पीड़ितों के प्रति एक बडे़ वर्ग में संवेदनशून्यता दिखती है। संघ और भाजपा की लगातार खलनायक के रूप में प्रस्तुति ही वह कारण है कि इनके कार्यकर्ताओं, समर्थकों और विधायकों तक पर हिंसा न सिर्फ आम हो गई है, बल्कि उसे सहज सामाजिक क्रिया मान लिया गया है। एक वर्ग के प्रति इतनी नफरत कि उसकी हत्या पर संवेदना भी पैदा न हो, यही फासीवाद का असल रूप है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो आज का फासीवादी वह है, जो दूसरों को फासीवादी कह रहा है। वह भले बुद्धिजीवी का चोला ओढ़ ले, पर सैकड़ों मासूमों के खून की थोड़ी बहुत जिम्मेदारी उसके सिर भी है।

( लेखक इंडिक अकादमी के सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )

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