देश में खेती समस्याग्रस्त: किसानों की समस्याओं का हल अब किसानों को ही ढूंढना होगा

किसान नेतृत्व के नाम पर हमारे पास राजनीतिक नेताओं की फौज तो है, पर इनके बूते अभी तक तो कुछ हुआ नहीं, और न आगे कुछ होने की उम्मीद है।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Fri, 07 Dec 2018 12:35 AM (IST) Updated:Fri, 07 Dec 2018 05:00 AM (IST)
देश में खेती समस्याग्रस्त: किसानों की समस्याओं का हल अब किसानों को ही ढूंढना होगा
देश में खेती समस्याग्रस्त: किसानों की समस्याओं का हल अब किसानों को ही ढूंढना होगा

[ डॉ. राजाराम त्रिपाठी ]: आजादी के बाद से लेकर आज तक हरित, श्वेत, लाल, नीली, पीली, क्रांतियों के दावों और आंकड़ों के बावजूद वर्तमान में देश में खेती समस्याग्रस्त है, इस तथ्य को लेकर किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए। किसानों के बारे में सरकारों को अमूमन जब-तब याद आती है और न्यूनतम समर्थन मूल्य में थोड़ी-सी बढ़ोतरी करके अथवा कर्जमाफी का झुनझुना थमाकर किसानों को साधने की कोशिश की जाती है। दुर्भाग्य की बात है कि देश में कितनी ही बार सरकारें बदलीं, पर किसानों का भाग्य नहीं बदला और न ही खेती-किसानी की बदहाल दशा बदली। कभी-कभी ऐसा लगता है कि हम भारत के किसान पूरी तरह से किंकर्तव्यविमूढ़ हो चले हैं।

किसान नेतृत्व के नाम पर हमारे पास राजनीतिक नेताओं की फौज तो है, पर इनके बूते अभी तक तो कुछ हुआ नहीं, और न आगे कुछ होने की उम्मीद है। वास्तव में हमारी समस्याओं को हल करने के नाम पर विभिन्न राजनीतिक दल अपनी राजनीति अधिक करते रहे हैं। हाल में एक बार फिर हम किसान इसी राजनीति के शिकार हुए। बीते दिनों किसानों के नाम पर दिल्ली में जो कुछ हुआ उसे एक मल्टीस्टारर फिल्म या नाटक के रूप में देखिए तो बेहतर। यहां हाथों में हाथ डाले हुए योद्धा-सितारे थे। उनकी माथे की त्यौरियां चढ़ी हुई थीं। तमाम नेता मंच पर मौजूद थे। उनके साथ ही उनकी पार्टियों के किसान संगठनों के तथाकथित किसान नेता भी उपस्थित थे, जबकि असली किसान इनके और इनके झंडों, बैनरों के पीछे ‘बिना चेहरे की भीड़’ मात्र बनकर खडे़ थे। इसके पहले दिल्ली और मुंबई में भी ऐसा हो चुका है। आखिर किसान बार-बार दिल्ली-मुंबई क्यों दौड़ाए जा रहे हैैं और इससे उन्हें क्या हासिल हो रहा है?

एक अर्से से किसान आंदोलन, किसान मोर्चे आदि देश के किसानों का कोई प्रभावी संयुक्त मोर्चा बनने के बजाय राजनीतिक पार्टियों के सत्ता हासिल करने के उपकरण या गठजोड़ मात्र बनकर रह जा रहे हैैं। शायद इस बार भी उनका कोई न कोई गठजोड़ बन ही जाए। कल को वे सत्ता में आ भी जाएं, पर इसके बाद भी हम सब किसान वैसे ही उनके अथवा तत्कालीन विपक्षी दलों के खेती-किसानी बचाओ नाटक के पात्र ही बने रहेंगे। अब जरा खेती-किसानी बचाने के नाम पर हाथों में हाथ डालकर खड़े हुए आला विपक्षी नेताओं का स्मरण कीजिए। आप पाएंगे कि इनमें से राहुल गांधी की पार्टी का शासन कमोबेश पूरे देश में कई दशकों तक रहा।

अगर किसानों की समस्याओं को दूर करने के लिए ये इतने ही कृत संकल्प होते तो आज किसानों के हालात ऐसे क्यों होते? सवा तीन लाख से भी अधिक किसानों की मौत के लिए इन्हें क्यों न जवाबदेह ठहराया जाए? क्या खेती और किसानों की बदहाल दशा के लिए इनकी पार्टी जिम्मेदार नहीं है? कम्युनिस्ट पार्टी के जो नेता किसानों के हितों के नाम पर खड़े थे उनकी पार्टियों की सरकारें भी बंगाल, त्रिपुरा में दशकों तक सत्ता में रही हैं। आखिर उन्होंने किसानों का कौन-सा कल्याण अपने राज्यों में किया? इसे देखने के लिए किसी सूक्ष्मदर्शी या दूरबीन की आवश्यकता नहीं है। शरद पवार जो किसानों के हित के लिए हुंकार भरने के लिए तने खड़े थे वे लंबे समय तक देश के कृषि मंत्री रहे, लेकिन अफसोस कि उनकी खेती और कृषकों के उद्धार की दृष्टि और योजनाएं बारामती से बाहर कभी गईं ही नहीं। दिल्ली के किसान मार्च में कुछ ऐसे लोग भी सामने आए जो दरअसल अब किसानों के पैरोकार बनकर अपने लिए राजनीतिक जमीन तलाश रहे हैं।

कहा गया है ‘जाके पैर न फटी बिवाई वो क्या जाने पीर पराई’। वास्तव में इन नेताओं का किसानों के मुद्दों से, किसानों की तकलीफों से, उनकी ऋणग्रस्तता से उनकी रोजमर्रा की दिनचर्या से और उनकी आत्महत्या करने के भयावह हालात से न तो कोई लेना-देना है, न ही कोई सरोकार। क्या वास्तव में इन सभी नेताओं में और इनकी पार्टियों में किसानों की विषम समस्याओं को हल करने का कोई ठोस संकल्प दिखता है? जी नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है। नि:संदेह इसका मतलब यह भी नहीं है कि वर्तमान सरकार किसानों की कोई बड़ी हितैषी साबित हो रही है। उसने किसानों के हित के लिए जो उपाय किए हैैंं वे नाकाफी ही सिद्ध हो रहे हैैं और इसी कारण किसान आज भी अपने भविष्य को लेकर बेचैन हैैं। इसके आसार नहीं नजर आते कि 2022 तक किसानों की आय दोगुनी हो सकेगी।

ऐसा लगता है कि राजनीतिक दल बस किसी तरह किसानों के कंधों पर सवार होकर सत्ता तक पहुंचना चाहते हैं। अगर ऐसा न होता तो वे सब किसानों की समस्याओं को दूर करने के लिए एक दस-बीस साल की दूरगामी कृषकोन्मुख नीति या कार्ययोजना बनाते। सच तो यह है कि ऐसा कोई ब्लू प्रिंट आज तक बना ही नहीं। आखिर इसकी जरूरत क्यों नहीं समझी गई? अगर किसानों के आक्रोश की लहरों पर सवार होकर सत्ता तक पहुंच भी गए तो किसानों का कोई दूरगामी विशेष कल्याण करेंगे, इसकी उम्मीद नगण्य है। अब तक की इनकी कथनी और करनी का फर्क देखने के बावजूद किसान इस या उस राजनीतिक दल के झूठ पर बार-बार भरोसा करने को मजबूर हो जाते हैं।

किसानों की समस्याओं का हल अब किसानों को ही ढूंढना होगा। अपने बीच कृषक हितों के लिए समर्पित ईमानदार किसान नेतृत्व का विकास करना होगा। किसान नेतृत्व के नाम पर राजनीतिक पार्टियों की जी-हुजूरी करने वाला जो अवसरवादी वर्ग तैयार हो रहा है उससे किसानों को सावधान रहना होगा। राजनीतिक पार्टियों के अलावा ये अवसरवादी तत्व किसान नेतृत्व के विकास में सबसे बड़े बाधक हैैं। किसानों को अब जात-पांत, बोली-भाषा, क्षेत्रीयता तथा विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के प्रभाव से बाहर निकलकर एक ठोस, संगठित वोट बैंक बनना होगा। जिस देश में 34-35 प्रतिशत वोट पाने वाली पार्टी की सरकार बनती हो, वहां 55 प्रतिशत किसान सरकार बनाने में निर्णायक भूमिका क्यों नहीं निभा सकते? यदि भविष्य में किसानों का ध्रुवीकरण हो सके तो वह भारतीय राजनीतिक प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण पड़ाव होगा। राजनीतिक पार्टियां इसकी अनदेखी चाहकर भी नहीं कर सकतीं।

जब तक देश में किसानों का कृषक हितों के लिए कृत संकल्प, पार्टियों के प्रभाव से मुक्त एक सशक्त राष्ट्रीय संगठन तैयार नहीं होगा तब तक किसान इस देश में दोयम दर्जे के नागरिक बने रहेंगे। हम इसी तरह किसान मोर्चे निकालते रहेंगे और मोर्चों के मंच पर हर बार अलग-अलग अथवा इन्हीं में से कुछ चेहरे हमारे हितों के नाम पर मुट्ठियां भींचे हुए दिखेंगे और हम सब किसान मंच के पीछे बिना चेहरे की भीड़ में शामिल होंगे, इस चिंता के साथ कि दिल्ली के इस भीड़-भड़ाके में कहीं कोई हमारी जेब न काट ले।

[ लेखक अखिल भारतीय किसान महासंघ के राष्ट्रीय समन्वयक हैैं ]

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