सामाजिक एकीकरण पर दें जोर, वर्ण विहीन समाज धर्म परिवर्तन के अभियानों से सरलता से होने लगते हैं प्रभावित

सनातन धर्म ने जनजातीय समाज को एक तरह से वर्णविहीन छोड़ दिया। इस कारण वनवासी समाज का वर्णव्यवस्था में पूर्ण समायोजन संभव नहीं हो सका और एक बड़ा वनवासी वर्ग हिंदू होते हुए भी वर्णविहीन बना रहा। संवैधानिक व्यवस्था में वे अनुसूचित जनजाति कहे गए।

By Dhyanendra SinghEdited By: Publish:Mon, 02 Nov 2020 06:20 AM (IST) Updated:Mon, 02 Nov 2020 06:20 AM (IST)
सामाजिक एकीकरण पर दें जोर, वर्ण विहीन समाज धर्म परिवर्तन के अभियानों से सरलता से होने लगते हैं प्रभावित
काशी के पंडित गागा भट्ट ने शिवाजी को क्षत्रिय मानते हुए राज्याभिषेक अवश्य किया था, उनकी वही स्थिति बनी रही

[आर विक्रम सिंह]। एक हीं धर्म परिवर्तन, कहीं साधुओं पर हमले, कहीं दलित उत्पीड़न के समाचारों के बीच हिंदू समाज के लिए सामाजिक एकीकरण और एकजुटता की दिशा में आगे चलना अत्यंत आवश्यक होता जा रहा है, क्योंकि दलितों, आदिवासियों आदि को गैर हिंदू बताने की चेष्टा हो रही है। आज कुछ वैसा ही धर्मसंकट उपस्थित है जो दशमगुरु गुरु गोविंद सिंह जी के सम्मुख था। गुरुजी ने सर्वसमाज की सेनाएं बनाईं और खालसा योद्धा खड़े हुए, फिर उन्होंने देश का इतिहास बदल दिया। हम अपनी वर्ण व्यवस्था के समस्त वर्णों यथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों को भी छोड़ दें तो भी हिंदू समाज का एक बड़ा भाग है, जो शेष रहता है यानी वर्णव्यवस्था के तहत नहीं आता। जो बहुत से वर्ग इससे बाहर हैं, वे वर्णविहीन समाज के रूप में हैं। वर्णविहीन, वह समाज हुआ जिसके हिंदू धर्म में सदियों से बने रहने एवं महत्वपूर्ण दायित्वों यथा सैन्य या कृषि-पशुपालन के निर्वहन करने के बावजूद उनका स्पष्ट वर्ण निर्धारित नहीं हो सका। समाज में उन्हें वह स्थान नहीं मिला, जिसके वे असल अधिकारी थे। उदाहरण के लिए वनवासी समाज को लें। वनवासी समाज सदियों से प्राकृतिक शक्तियों का पूजक रहा है। उसमें मातृदेवियों और शिव के सरल प्रतीकों की पूजा की परंपरा रही है। जनजातीय समाज को क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के वर्गीकरण में सम्मिलित करना चाहिए था, लेकिन यह हुआ नहीं।

दक्षिण में ब्राह्मण समाज है मुख्य भूमिका में

सनातन धर्म ने जनजातीय समाज को एक तरह से वर्णविहीन छोड़ दिया। इस कारण वनवासी समाज का वर्णव्यवस्था में पूर्ण समायोजन संभव नहीं हो सका और एक बड़ा वनवासी वर्ग हिंदू होते हुए भी वर्णविहीन बना रहा। संवैधानिक व्यवस्था में वे अनुसूचित जनजाति कहे गए। दक्षिण भारत में वैदिक सनातन धर्म विस्तार पाता हुआ रामेश्वरम और फिर श्रीलंका तक पंहुच जाता है। दक्षिण में ब्राह्मण समाज तो मुख्य भूमिका में है, लेकिन शेष समाज, शासन सत्ता, वाणिज्य, कृषि के दायित्व के निर्वहन के बावजूद वर्णविहीन सा है। एक छोटा भाग सेवा सफाई संबंधी कार्यों के कारण शूद्र समाज माना जाता है। वहां समाज को क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र वर्ण में नहीं बांटा गया, बल्कि संपूर्ण समाज एकमात्र ब्राह्मण के अतिरिक्त वर्णविहीन ही रहा। यह स्थिति अच्छी भी थी और बुरी भी।

दक्षिण भारत के ब्राह्मण नगरों और मंदिरों तक रह गए सीमित

उत्तर भारत के समान वर्णव्यवस्था की अनुपस्थिति का लाभ यह हुआ कि वहां समरूप समाज का विकास हुआ। क्षति यह हुई कि जब कभी सामाजिक, धार्मिक समस्याएं उठीं तो दक्षिणवासियों को ब्राह्मण समाज पर दोषारोपण करना सरल हो गया। इसी कारण पेरियार के लिए ब्राह्मण विरोधी आंदोलन चलाना बड़ा सरल था। जो कश्मीरी पंडितों के साथ जनवरी 1990 में हुआ, लगभग वैसा ही कुछ 1950- 60 के दशक में नंबूदिरी ब्राह्मणों के साथ हुआ। दक्षिण भारत जो सनातन धर्म के लिए इस्लामिक आक्रांताओं से सुरक्षित क्षेत्र रहा, वहां ब्राह्मण आज नगरों और नगरों के मंदिरों तक सीमित रह गए हैं।

क्षत्रियोचित होने के बाद भी वर्णव्यवस्था में नहीं मिला कोई स्थान
वर्णविहीन समाज धर्मपरिवर्तन के अभियानों से भी सरलता से प्रभावित होने लगते हैं। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि ऐसे समाजों को गैर हिंदू बताने की भी कोशिश हो रही है। इसका मुकाबला किया जाना चाहिए। जो वर्णविहीन समाज दक्षिण में सनातन धर्म की प्रबल शक्ति हो सकता था, वह दूरदर्शिता के अभाव के कारण हाशिये पर चला गया। आंध्र प्रदेश में रेड्डी, केरल में नायर, ओडिशा में खोंडायत, असम में अहोम आदि हिंदू समाज के शासक-युद्धक वर्ग हैं। क्षत्रियोचित होने के बाद भी वर्णव्यवस्था में उन्हें कोई स्थान नहीं मिला। भारत की सर्वकालिक वीर जातियों में मराठा समाज को क्षत्रियोचित क्षमताओं के बाद भी महाराष्ट्र के चितपावन ब्राह्मणों द्वारा क्षत्रिय नहीं माना गया। काशी के पंडित गागा भट्ट ने शिवाजी को क्षत्रिय मानते हुए राज्याभिषेक अवश्य किया था, लेकिन उनकी वही स्थिति बनी रही। मराठे वैश्य या शूद्र तो थे नहीं, क्षत्रिय ही हो सकते थे, पर तब नहीं माने गए।
 
महाराजा सूरजमल का शासन स्वयं दिल्ली ने देखा
आज सामाजिक स्थिति में वे एक तरह से वर्णविहीन हिंदू ही हैं। उत्तर भारत में जाट अपनी समस्त युद्धक क्षमताओं के बाद भी धर्माधिकारियों द्वारा क्षत्रिय नहीं माने गए, जबकि महाराजा सूरजमल का शासन स्वयं दिल्ली ने देखा। मराठों से अपने को जोड़ने वाला कुर्मी क्षत्रिय समाज भी इसी कारण वर्णविहीन जैसा रह गया। इसी प्रकार हमारा गुर्जर समाज है। हूण, कुषाण, शक यवन आदि क्षत्रियों में समायोजित होते गए किंतु अपने योद्धा प्रतीक्षारत रह गए।

इतिहास में बलिदान देकर क्षत्रियों ने राष्ट्र और धर्म की रक्षा की 
वर्णव्यवस्था से इतर वर्गों को प्राय: शूद्र समाज के साथ श्रेणीबद्ध करने का प्रयास हुआ, पर संवैधानिक व्यवस्था में उन्हें मुख्यत: पिछड़े वर्ग में शामिल किया गया है। यह अच्छा ही है कि वर्ण विभाजन की बेड़ियां इस वर्ग के पैरों में नहीं पड़ी हैं। आज यही वर्ग देश की जनसंख्या में 40 फीसद से अधिक है। यह सनातन धर्म का नया रक्षक वर्ग है। इतिहास के लंबे दौर में लगातार बलिदान देकर क्षत्रियों ने राष्ट्र और धर्म की रक्षा की, पर आज उनकी संख्या कम है। सदियों के संघर्ष के बाद भी इस्लामिक आक्रांताओं और बलात धर्मपरिवर्तन के अभियानों को रोका नहीं जा सका।
 
यदि तब क्षत्रियोचित वर्णविहीन समाज को क्षत्रिय धर्म में दीक्षित कर दायित्व दे दिया गया होता तो शायद देश कभी पराजित और खंडित होने की स्थितियों तक न पहुंचता। जो तब नहीं हुआ, वह कम से कम आज हो सकता है। हिंदू धर्म के गुरुतर दायित्व का निर्वहन कर रहे प्रबुद्धों को इन सब सामाजिक समस्याओं पर ऐसे निर्णय लेने हैं, जो उन्होंने पहले नहीं लिए। वर्ण व्यवस्था को आज जन्मना से पुन: कर्मणा यानी कर्म आधारित बनाने का समय आ गया है। बिना वर्ण का हिंदू समाज, जिसे पहले कोई भूमिका नहीं दी गई थी, आज नया इतिहास लिखने की स्थिति में आ रहा है। ऐसे में जरूरी है कि उसे हाशिये से उठाकर राष्ट्र धर्म निर्वहन के लिए मुख्य भूमिका में लाया जाए। समय आ गया है कि इसके लिए मार्ग प्रशस्त किया जाए।
 

(लेखक पूर्व सैनिक एवं पूर्व प्रशासक हैं)

[लेखक के निजी विचार हैं]

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