सामाजिक एकीकरण पर दें जोर, वर्ण विहीन समाज धर्म परिवर्तन के अभियानों से सरलता से होने लगते हैं प्रभावित
सनातन धर्म ने जनजातीय समाज को एक तरह से वर्णविहीन छोड़ दिया। इस कारण वनवासी समाज का वर्णव्यवस्था में पूर्ण समायोजन संभव नहीं हो सका और एक बड़ा वनवासी वर्ग हिंदू होते हुए भी वर्णविहीन बना रहा। संवैधानिक व्यवस्था में वे अनुसूचित जनजाति कहे गए।
[आर विक्रम सिंह]। एक हीं धर्म परिवर्तन, कहीं साधुओं पर हमले, कहीं दलित उत्पीड़न के समाचारों के बीच हिंदू समाज के लिए सामाजिक एकीकरण और एकजुटता की दिशा में आगे चलना अत्यंत आवश्यक होता जा रहा है, क्योंकि दलितों, आदिवासियों आदि को गैर हिंदू बताने की चेष्टा हो रही है। आज कुछ वैसा ही धर्मसंकट उपस्थित है जो दशमगुरु गुरु गोविंद सिंह जी के सम्मुख था। गुरुजी ने सर्वसमाज की सेनाएं बनाईं और खालसा योद्धा खड़े हुए, फिर उन्होंने देश का इतिहास बदल दिया। हम अपनी वर्ण व्यवस्था के समस्त वर्णों यथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों को भी छोड़ दें तो भी हिंदू समाज का एक बड़ा भाग है, जो शेष रहता है यानी वर्णव्यवस्था के तहत नहीं आता। जो बहुत से वर्ग इससे बाहर हैं, वे वर्णविहीन समाज के रूप में हैं। वर्णविहीन, वह समाज हुआ जिसके हिंदू धर्म में सदियों से बने रहने एवं महत्वपूर्ण दायित्वों यथा सैन्य या कृषि-पशुपालन के निर्वहन करने के बावजूद उनका स्पष्ट वर्ण निर्धारित नहीं हो सका। समाज में उन्हें वह स्थान नहीं मिला, जिसके वे असल अधिकारी थे। उदाहरण के लिए वनवासी समाज को लें। वनवासी समाज सदियों से प्राकृतिक शक्तियों का पूजक रहा है। उसमें मातृदेवियों और शिव के सरल प्रतीकों की पूजा की परंपरा रही है। जनजातीय समाज को क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के वर्गीकरण में सम्मिलित करना चाहिए था, लेकिन यह हुआ नहीं।
दक्षिण में ब्राह्मण समाज है मुख्य भूमिका में
सनातन धर्म ने जनजातीय समाज को एक तरह से वर्णविहीन छोड़ दिया। इस कारण वनवासी समाज का वर्णव्यवस्था में पूर्ण समायोजन संभव नहीं हो सका और एक बड़ा वनवासी वर्ग हिंदू होते हुए भी वर्णविहीन बना रहा। संवैधानिक व्यवस्था में वे अनुसूचित जनजाति कहे गए। दक्षिण भारत में वैदिक सनातन धर्म विस्तार पाता हुआ रामेश्वरम और फिर श्रीलंका तक पंहुच जाता है। दक्षिण में ब्राह्मण समाज तो मुख्य भूमिका में है, लेकिन शेष समाज, शासन सत्ता, वाणिज्य, कृषि के दायित्व के निर्वहन के बावजूद वर्णविहीन सा है। एक छोटा भाग सेवा सफाई संबंधी कार्यों के कारण शूद्र समाज माना जाता है। वहां समाज को क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र वर्ण में नहीं बांटा गया, बल्कि संपूर्ण समाज एकमात्र ब्राह्मण के अतिरिक्त वर्णविहीन ही रहा। यह स्थिति अच्छी भी थी और बुरी भी।
दक्षिण भारत के ब्राह्मण नगरों और मंदिरों तक रह गए सीमित
उत्तर भारत के समान वर्णव्यवस्था की अनुपस्थिति का लाभ यह हुआ कि वहां समरूप समाज का विकास हुआ। क्षति यह हुई कि जब कभी सामाजिक, धार्मिक समस्याएं उठीं तो दक्षिणवासियों को ब्राह्मण समाज पर दोषारोपण करना सरल हो गया। इसी कारण पेरियार के लिए ब्राह्मण विरोधी आंदोलन चलाना बड़ा सरल था। जो कश्मीरी पंडितों के साथ जनवरी 1990 में हुआ, लगभग वैसा ही कुछ 1950- 60 के दशक में नंबूदिरी ब्राह्मणों के साथ हुआ। दक्षिण भारत जो सनातन धर्म के लिए इस्लामिक आक्रांताओं से सुरक्षित क्षेत्र रहा, वहां ब्राह्मण आज नगरों और नगरों के मंदिरों तक सीमित रह गए हैं।
(लेखक पूर्व सैनिक एवं पूर्व प्रशासक हैं)
[लेखक के निजी विचार हैं]