चुनाव देश की नियति निर्धारित करते हैं, इसके लिए जरूरी है प्रत्याशी की नीयत साफ और ईमानदार हो

आज विचारों की गली सूनी-सूनी सी है। वहां पसरे सन्नाटे में हर आवाज तीखी और शोरनुमा लगती है। लोग लाचार हैं इनके कलरव और निनाद को झेलने के लिए।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Wed, 27 Mar 2019 12:00 AM (IST) Updated:Wed, 27 Mar 2019 12:33 AM (IST)
चुनाव देश की नियति निर्धारित करते हैं, इसके लिए जरूरी है प्रत्याशी की नीयत साफ और ईमानदार हो
चुनाव देश की नियति निर्धारित करते हैं, इसके लिए जरूरी है प्रत्याशी की नीयत साफ और ईमानदार हो

[गिरीश्वर मिश्र]: राजनीति एक सतत प्रवाह है जिसके अंतर्गत पहले जो कुछ हो चुका है उससे वर्तमान अछूता नहीं रहता और भविष्य की रचना में बीते अतीत को लेकर आधार सूत्रों की खोज की जाती है। आम चुनाव के मौके पर कांग्र्रेस और शेष गैर-कांग्रेस दलों के राष्ट्रीय और क्षेत्रीय खेमों में सत्ता की जोड़तोड़ में भाषा, आचरण और वैचारिक संगति-असंगति की चिंता से मुक्त होकर सारी मर्यादाएं तोड़कर जो दौड़धूप मचाई जा रही है वह सत्ता कब्जाने की हड़बड़ी ही दिखा रहा है। इस अफरातफरी का एकमात्र स्नोत मोदी-विरोध होता नजर आ रहा है। महागठबंधन किस तरह घोषित हुआ वह विचार और कार्यक्रम की साझी सोच के अभाव की स्वाभाविक परिणति है। पिछले आम चुनाव में कांग्र्रेस शासन के दस वर्षों में हुए तरह-तरह के अतिरेकों और संशयों के चलते कांग्रेस को सत्ता से हाथ धोना पड़ा था।

उच्चपदस्थ लोगों के आर्थिक भ्रष्टाचार में लीन होने के कारण सामाजिक जीवन में शुचिता और नैतिकता का एक महाशून्य उभरने लगा था। उस शून्य को भरने के लिए डरे सहमे लोगों ने, जिनके पास कुछ खास खोने को न था, एक बड़ा कदम उठाया था। बड़े भरोसे और विश्वास के साथ जनता ने शासन की बागडोर नरेंद्र मोदी के हाथों में सौंपी थी। उनकी नवीनता, देश के प्रति उनका अनूठा जज्बा, दृढ़ता ने धूमिल और अस्त-व्यस्त हो रहे राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य में नए रंग भरने की आशा बंधाई थी। उनकी मुखर संवाद शैली उनके पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की घोर मितभाषिता के ठीक उलट जनता में सीधे पैठ बनाने वाली थी। शीर्ष पर पहुंचे राजनेता के व्यवहार और बातचीत में लोग स्वयं को ढूंढने और पाने लगे।

नरेंद्र मोदी का ‘अच्छे दिन आएंगे’ वाला जुमला लोगों के मन को को भा गया था। वे अपने-अपने ढंग से इसका इंतजार करते रहे और एक हद तक सरल और नोटबंदी जैसी कठिन हर पहल का साथ भी देते रहे। अब पांच साल बाद जब जनता जनार्दन से भेंट हो रही है तो वह सब लोगों को कचोट रहा है। ऐसे में मोदी को पुनस्र्थापित करने की मुहिम पहले जैसी आसान नहीं रही। मोदी सरकार की स्वाभाविक जवाबदेही बनती है कि वह अपना रिजल्ट कार्ड पेश करे। देश के सामने अनेक समस्याएं हैं जिन पर सबका ध्यान जाता है।

कृषि, बाजार, सुरक्षा, स्वास्थ्य, महंगाई, आवास, सड़क और अन्य अधोसंरचना का निर्माण, रोजगार और गरीबी, काले धन का संचय आदि की हकीकत से बखूबी वाकिफ मोदी ने ऐसे कई व्यापक सुधारों को अंजाम दिया जिनसे गरीबों, स्त्रियों और हाशिए पर रहने वाले लोगों का भला हो सके। गरीबों को मिलने वाली सहायता के पैसे सीधे उन्हें ही मिलें और बिचौलियों से मुक्ति हुई। साथ ही देश की प्रगति और विकास के अनेक कार्य भी शुरू किए। इन मोर्चों पर उपलब्धि उतनी नहीं रही जितनी आशा की जाती थी। देश की अंतरराष्ट्रीय छवि में भी सुधार हुआ है।

समाज में कई श्रेणियां हैं। गरीब, अमीर, मध्यवर्ग, पिछड़े, अल्पसंख्यक, अनुसूचित, दलित, बहुजन आदि सामाजिक और वैधानिक श्रेणियां हैं। इस प्रसंग में जाति का प्रश्न राजनीति की नब्ज बना हुआ है जिसे नकारना संभव नहीं दिखता। राजनीति में घोषित तौर पर सभी दल समाजवादी ढांचे को दिखाते हैं। समता, समानता और सबके लिए अवसरों की समान उपलब्धता को सैद्धांतिक रूप से तो सभी स्वीकारते हैं, पर व्यवहार में इसकी मुश्किलें सारे प्रयासों को निष्प्रभावी बन देती हैं। जनसेवा और अंत्योदय सबका नारा है, परंतु पूंजी के प्रति सबका कितना गहरा आकर्षण है, यह नेताओं की आय में अप्रत्याशित वृद्धि से लगाया जा सकता है।

अब गणतंत्र के चुनावी उत्सव का माहौल गरमा रहा है। आरोपों-प्रत्यारोपों को इतिहास और पुरातत्व की खुदाई से निकल रहे ध्वंसावशेषों द्वारा पुष्ट करते हुए पेश किया जा रहा है। चमत्कृत कर सकने वाले करिश्माई खेल खेले जा रहे हैं। सभी दल और नेता एक बार फिर राजनीति के कुंभ में स्नान को आतुर हैं। मजमा लगाने की हर जुगत लगाई जा रही है। अब वे संत या साधु पुरुष तो रहे नहीं। उन्हें हर सुख-सुविधा, ऐशो-आराम की व्यवस्था करनी होती है। नारों के दम पर अक्षमता का दंभ लेकर भीड़ जुटाई जा रही है ताकि जनसमर्थन जुटाया जा सके। भाषा प्रयोग की छटाएं दिल दुखा रही हैं। अभिधा, लक्षणा और व्यंजना की शब्द शक्तियां जिस तरह प्रयोग में आ रही हैं वह सुधी जनों के लिए दुख का एक बड़ा कारण हो रहा है।

न भाषा की बंदिश, न उम्र या पद का ही कोई लिहाज। कोई भी व्यक्ति किसी को कुछ भी कहने के लिए स्वतंत्र है। यदि विधानमंडल गणतंत्र के विद्यालय जैसे माने जाएं तो उसके विद्यार्थी भी आम विद्यार्थियों जैसे ही होते जा रहे हैं। सभा में वे प्राय: अनुपस्थित रहते हैं। यदि आए तो हंगामा, बेबात का विरोध और निरर्थक प्रलाप ही उनका प्रिय शगल होता है। देश छोड़िए उन्हें अपने क्षेत्र के विकास की भी शायद ही चिंता हो। वे प्रश्न भी नहीं पूछते, न उपलब्ध विकास राशि का सदुपयोग ही कर पाते हैं। ऐसे में जनतंत्र का ढांचा यदि चरमराने लगे तो क्या आश्चर्य!

अपने हितों की पूर्ति के लिए आज राजनीति के सेनानी जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र आदि के रथों की सवारी के लिए उतावले हैं। चुनावी समुद्र में अपना बेड़ा पार लगाने के लिए चाहे जैसे हो पनघट की टेढ़ी होती डगर तो पार करनी ही है। सत्ता-सुख मादक होता है और उस पर काबिज बने रहना या हथियाना ही परम धर्म है। वाद, प्रवाद, विचार, दुर्विचार सभी का स्वागत है। सारे वैचारिक या अन्य प्रकार के अंतर या बाह्य विरोध और आग्रह स्थगित कर वे समझौते के सभी प्रकार अपनाते हुए वोट-समीकरण को अपने पलड़े की ओर झुकाने को आमादा हैं।

हद तो तब हुई जब एक दल को छोड़ दूसरे दल में जा रहे नेता के बारे में उनके पहले वाली पार्टी के बड़े नेता ने कहा कि ‘हमारे कहने पर और हमारी अनुमति से वह दूसरी पार्टी में गए हैं।’ सत्ता कब्जाने का एकमात्र लक्ष्य सभी तरह के मतभेदों और आपसी कलह आदि पर भारी पड़ता है। परिणाम यह है कि स्थानीय स्वीकृति और राष्ट्र के स्तर पर किसी राजनीतिक पार्टी की छवि को एक साथ जुटाना मुश्किल हो रहा है। एक ही पार्टी अनेक राज्यों में अन्य पार्टियों के साथ किसी भी तरह के तालमेल के लिए स्वतंत्र हो रही है। कुछ दिनों तक तो गलबहियां अच्छी लगती हैं, पर जल्द ही मोहभंग हो जाता है।

आज विचारों की गली सूनी-सूनी सी है। वहां पसरे सन्नाटे में हर आवाज तीखी और शोरनुमा लगती है। लोग लाचार हैं इनके कलरव और निनाद को झेलने के लिए। ऐसे में दृश्य मीडिया हर किसी जायज या नाजायज जरूरी या गैर जरूरी घटना को जरूरत से ज्यादा स्थान देता नजर आ रहा है। खबरों का टोटा पड़ा है। हर डीह डाबर की खबर ली जा रही है। चुनावी रणनीतिकार प्रचार माध्यमों की सहायता से वोटरों के बीच हवा बनाने और फिर उनके मतों को बटोरने की सटीक तरकीबें ढूंढने में लग चुके हैं। पक्ष और सारी मर्यादाएं तोड़कर विपक्ष दिन-रात छिद्रान्वेषण करते हुए खामियों को निकालने में भरसक जुटा है। चुनाव देश की नियति निर्धारित करते हैं। इसके लिए जरूरी है कि इसकी देख-रेख करने वालों की नीयत साफ और ईमानदार हो।

( लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति हैं )

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