घाव भरने का कारगर उपाय: सभी मजहबी संप्रदायों को एक मंच पर लाकर संवाद कराने की जरूरत

दुनिया के 40 देशों में टीआरसी है। टीआरसी भिन्न-भिन्न आग्रही समूहों को एक मंच पर लाने वाली संस्था है। भारत में सैकड़ों वर्षों से मजहबी सांप्रदायिक तनाव हैं। प्रश्न है कि क्या भारत में भी टीआरसी की आवश्यकता है? हिंदू प्रतीक्षा में हैं कि उनकी व्यथा सुनी जानी चाहिए।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Mon, 12 Apr 2021 02:44 AM (IST) Updated:Mon, 12 Apr 2021 02:44 AM (IST)
घाव भरने का कारगर उपाय: सभी मजहबी संप्रदायों को एक मंच पर लाकर संवाद कराने की जरूरत
इस्लामी आक्रांताओं ने भारत को लूटा, लाखों मंदिर गिराए गए, लाखों हिंदुओं का धर्मांतरण हुआ!।

[ हृदयनारायण दीक्षित ]: गहरे घाव जल्दी नहीं भरते। राष्ट्र जीवन पर हुए आक्रमणों के घाव लगातार व्यथित करते हैं। भारत के मन पर भी गहरे घाव हैं। राष्ट्रीय स्मृति उन्हेंं कुरेदती रहती है। राष्ट्र घनीभूत पीड़ा झेलता है। भारतीय संस्कृति और राष्ट्र पर हुए हमलों का इतिहास पुराना है। कुछ विद्वान इस विवरण को स्वाधीनता संग्राम व स्वाधीनता के समय से प्रारंभ करते हैं और कुछ सन् 711 के मो. बिन कासिम के हमले से। भारत ब्रिटिश सत्ता से 1947 में स्वतंत्र हुआ। इसी समय भारत विभाजन हुआ। यह भयंकर रक्तपात से भरापूरा था। लाखों लोगों के घर-परिवार छूटे। कांग्रेस व मुस्लिम लीग को सत्ता मिली। दोनों ने अपने-अपने सत्ता क्षेत्रों में पीड़ितों की चिंता नहीं की। पाकिस्तानी राज्य में हिंदू उत्पीड़न जारी है। भारत में इतिहास का विरूपण हुआ। इस्लामिक हमलावरों की भी पक्षधरता हुई। इस्लामी राजनीति औरंगजेब, गोरी, गजनी को अपना नायक बताती है। डॉ. भीमराव आंबेडकर ने मध्यकालीन इस्लामी आक्रामकता का कार्यकाल 762 वर्ष बताया है।

इस्लामी आक्रांताओं ने भारत को लूटा, लाखों मंदिर गिराए गए, लाखों हिंदुओं का धर्मांतरण हुआ

इस्लामी आक्रांताओं ने भारत को लूटा था। लाखों मंदिर गिराए गए थे। लाखों हिंदुओं का धर्मांतरण हुआ। मंदिर ध्वस्तीकरण व धर्मांतरण इस्लामी सत्ता में भी जारी था। स्वतंत्र भारत में आज भी धन लोभ व जबर्दस्ती के धर्मांतरण हैं। भारत पर पहला हमला सन् 711 में मो. बिन कासिम ने उत्तर पश्चिम से किया था। गजनी के महमूद ने सन् 1001 में लगातार 17 भयावह हमले किए। सिमी जैसे संगठनों ने स्वतंत्र भारत में गजनी को महानायक बताया और अल्लाह से गुजारिश की-‘या इलाही भेज दे, महमूद कोई।’ 1173 में मोहम्मद गोरी ने इसी तरह हमला किया। इसके बाद 1221 में चंगेज खां, फिर 1398 में तैमूर ने भयानक हमले किए। 1526 में बाबर चढ़ आया। 1738 में नादिर शाह और 1761 में अब्दाली का हमला।

'हमलों का उद्देश्य लूट करना ही नहीं, मूर्ति मंदिर का ध्वस्तीकरण व भारत का इस्लामीकरण था'

डॉ. आंबेडकर ने लिखा है कि ‘इन हमलों का उद्देश्य लूट करना ही नहीं था। इनका उद्देश्य मूर्ति मंदिर का ध्वस्तीकरण व भारत का इस्लामीकरण था।’ उन्होंने मो. बिन कासिम द्वारा हज्जाज को लिखे खत का उल्लेख किया है, ‘मूर्ति पूजकों का इस्लामी धर्मांतरण करा दिया गया है। मूर्तियों मंदिरों की जगह मस्जिदें बना दी गई हैं।’ इसी तर्ज पर अयोध्या, मथुरा और काशी सहित भारत के लाखों मंदिरों का ध्वस्तीकरण किया गया।

सीएए का भारत के मुसलमानों से कोई लेना देना नहीं फिर भी विरोध में जबर्दस्त आंदोलन हुए

भारत में राष्ट्रीय एकता की प्रमुख समस्या मजहबी सांप्रदायिकता है। नागरिकता संशोधन कानून का भारत के मुसलमानों से कोई लेना देना नहीं है बावजूद इसके उक्त कानून के विरोध में जबर्दस्त आंदोलन हुए। वे राष्ट्रभाव के विरोध में आक्रामक रहते हैं। वे लड़कियों का जोर जबर्दस्ती धर्मांतरण कराते हैं। विवाह कराते हैं। ईसाई मिशनरी भी धर्मांतरण में पीछे नहीं हैं। हिंदू सैकड़ों वर्ष से अपमानित हैं। ऐसे सांप्रदायिक तत्वों के मन में मजहबी श्रेष्ठता की ग्रंथि है। ब्रिटिश राज के समर्थक ईसाई मिशनरियों के मन में भी ऐसा ही भाव है। दोनों यहां शासक रहे हैं। लेकिन हिंदू बहुसंख्यक हैं। इसके बावजूद अपने ऊपर हुए अत्याचारों के विरुद्ध सक्रिय नहीं होते। वे संविधान और संस्कृति के प्रति एकनिष्ठ हैं। सो राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए सभी पक्षों व आस्था समूहों के मध्य तनाव नहीं अंतरसंगीत चाहिए। मूलभूत प्रश्न है कि भारत के सभी वर्ग समूह एक साथ प्रसन्न मन क्यों नहीं रह सकते? हम सब मिलकर संवादहीनता की यह स्थिति क्यों नहीं दूर कर सकते? सत्य तथ्य भी होता है। हिंदू व्यथा सत्य है। यही तथ्य इतिहास भी है। इतिहास कल्पना नहीं होता, लेकिन सरकारों ने इतिहास को मनमाने ढंग से लिखवाया।

भारत हर्षोल्लास पूर्ण देश था, पारस्परिक संबंधों के सहारे दयालुता व सौजन्य के स्तर को प्राप्त किया

लंदन विश्वविद्यालय के रीडर एएल बाशम ने ‘दि वंडर दैट वाज इंडिया’ लिखी थी। किताब के प्रारंभ में उल्लेख है, ‘मुसलमानों के भारत आने के पूर्व भारतीय उपमहाद्वीप की संस्कृति का सर्वेक्षण।’ उनके शब्द ध्यान देने योग्य हैं। वे लिखते हैं, ‘भारत हर्षोल्लास पूर्ण देश था। यहां के निवासियों ने शनै: शनै: विकसित सामाजिक प्रणाली में पारस्परिक संबंधों के सहारे दयालुता व सौजन्य के उस स्तर को प्राप्त किया, जो किसी भी जाति (राष्ट्रीयता) के स्तर से अपेक्षाकृत उच्च था।’ उनकी बातें सत्य हैं। सबके तथ्य अपने होते हैं और सत्य भी, लेकिन राष्ट्रीय सत्य सर्वोपरि होता है। इसलिए भिन्न भिन्न सत्य आग्रहियों के मध्य संवाद और सुलह जरूरी है। इसका सुंदर प्रयोग दक्षिण अफ्रीका में हुआ। नेल्सन मंडेला के सत्तारूढ़ होने के पहले का श्वेत शासन अत्याचारी था। काले-गोरे का भेद था। काले लोगों का भयंकर उत्पीड़न हुआ था। मानवीय गरिमा भी कुचली गई थी। देश को स्वतंत्रता मिली। मंडेला सत्ता में आए। राजनीतिक टिप्पणीकारों का अनुमान था कि अब यहां नरसंहार की संभावना है।

दक्षिण अफ्रीका में मंडेला: सभी पक्षों की सुनवाई में सत्य प्राप्ति का उद्देश्य था 

चुनौती बड़ी थी। मंडेला ने ‘ट्रुथ एंड रिकांसीलिएशन कमीशन’ (सत्य और समझौता/सुलह आयोग-टीआरसी) गठित किया। यह न्यायिक प्रकृति वाला आयोग था। पीड़ितों को खुलेआम अपनी व्यथा सुनाने का अवसर दिया गया। सभी पक्षों की सुनवाई में सत्य प्राप्ति का उद्देश्य था। परस्पर आत्मीयता का संवर्धन भी आयोग का लक्ष्य था। समाचार माध्यमों को खुली छूट थी। टीआरसी के इस महत्वपूर्ण कार्य पर फिल्म निर्माण, उपन्यास, काव्य रचना के लिए कोई प्रतिबंध नहीं था। श्वेत सरकार के अत्याचार का सत्य उद्घाटित था। सबके मध्य आत्मीयता का विकास मुख्य ध्येय था। इससे हिंसा बची। दक्षिण अफ्रीकी टीआरसी की प्रशंसा पूरे विश्व ने की।

भारत में सैकड़ों वर्षों से मजहबी सांप्रदायिक तनाव, दुनिया के 40 देशों में टीआरसी है

राष्ट्रजीवन में वर्ग तनाव होते हैं। सामाजिक पहचान के भी तनाव होते हैं। अमेरिका में श्वेत-अश्वेत का तनाव है। वहां भी टीआरसी की चर्चा है। दुनिया के 40 देशों में टीआरसी है। टीआरसी भिन्न-भिन्न आग्रही समूहों को एक मंच पर लाने वाली संस्था है। भारत में सैकड़ों वर्षों से मजहबी सांप्रदायिक तनाव हैं। मूलभूत प्रश्न है कि क्या भारत में भी टीआरसी की आवश्यकता है? हिंदू प्रतीक्षा में हैं कि उनकी व्यथा सुनी जानी चाहिए। अन्य संप्रदायों को भी अलगाववाद की उनकी निष्ठा आदि विषयों पर अपना पक्ष रखने का अवसर दिया जाना चाहिए। सबको एक मंच पर लाकर संवाद कराने की जरूरत है। यह टीआरसी जैसी संस्था से संभव है। भारत में टीआरसी को समन के अधिकार सहित कुछ अन्य अधिकार दिए जा सकते हैं। कुछ न कुछ करना ही होगा। घाव को खुला छोड़ना अच्छा नहीं होता।

( लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं )

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