लॉकडाउन के दौरान सरकार ने देश में लाखों प्रवासी श्रमिकों को दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया
हम इस सच्चाई से मुंह नहीं फेर सकते कि असल आंकड़े उपलब्ध नहीं और यही कारण है कि राहत के लिए जो भी सरकारी घोषणाएं की गईं वे अपर्याप्त साबित हुई हैं।
[ आरपीएन सिंह ]: हम एक अप्रत्याशित दौर से दो-चार हैं। यह पूरी दुनिया के लिए ऐसा संकट है जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी। इससे निपटने के लिए सरकार ने जब लॉकडाउन किया तो हमने उसका इसी आधार पर समर्थन किया कि इस संकट का मिलकर सामना करने की दरकार है। हालांकि सरकार राहत देने के मामले में सभी भारतीयों को एक दृष्टि से देखने में नाकाम रही। विदेश में बसे भारतीयों को बुलाने के लिए तो ऐड़ी चोटी का जोर लगा दिया, पर अपने ही देश में प्रवासी श्रमिकों को दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया। हालांकि विदेश से भारतीयों को बुलाना गलत नहीं, परंतु सरकार को उन गरीबों का भी तो ख्याल रखना चाहिए था जिनकी जिंदगी को बाहर से आई बीमारी ने रातोंरात तबाह कर दिया।
मजदूरों की साझा मांग थी कि उनके खाने-पीने का बंदोबस्त किया जाए
मेरा ताल्लुक पूर्वी उत्तर प्रदेश में कुशीनगर जिले के उस पडरौना से है जिसे दिल्ली के नीति नियंता शायद नक्शे में ढूंढ़ भी न सकें। यहां से हर साल हजारों की तादाद में शहरों की ओर पलायन होता है। लॉकडाउन के कुछ ही दिनों के भीतर विभिन्न राज्यों में बसे मेरे जिले के लोगों की सूचनाएं मिलने लगीं। मैंने तुरंत अपनी टीम के साथ एक इमरजेंसी हेल्पलाइन शुरू की। यह नंबर सार्वजनिक होते ही कॉल्स की झड़ी लग गई। हालात कितने खराब थे, इसका अंदाजा इससे लगा कि उन सभी की एक साझा मांग यही थी कि किसी तरह उनके खाने-पीने का बंदोबस्त किया जाए।
फैक्ट्रियां बंद होने से उनकी जमा राशि खत्म हो गई
यकायक फैक्ट्रियां बंद होने से उनकी जमा राशि खत्म हो गई थी। एक कॉल मध्य उत्तर प्रदेश से आई जहां खाने-पीने का इंतजाम करने के लिए युवाओं की एक टोली को अपने तीन मोबाइल फोन बेचने पड़े। घर से बाहर रहने वालों के लिए मोबाइल फोन ही परिवार से जुड़ने का एकमात्र जरिया होता है। समझिए कि कितना मजबूर होकर उन्होंने वह कदम उठाया होगा। उनमें से किसी के पास फोन बचा हुआ था जिससे उन्होंने हमसे संपर्क किया। हम उन तक तो पहुंच गए, लेकिन न मालूम कितने लोग ऐसी ही स्थितियों में ही फंसे होंगे?
संकट के दौर में सूरत के उद्यमी मजदूरों को आसरा नहीं दे सके
जम्मू-कश्मीर, असम, उत्तराखंड, गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु, कर्नाटक और दिल्ली जैसे राज्यों में फंसे लोगों ने हमसे संपर्क साधा। कांग्रेस की राज्य इकाइयों ने हेल्पलाइन शुरू की, लेकिन मुश्किल इससे बढ़ी कि अधिकांश प्रवासी श्रमिक रेड जोन में फंसे हुए थे। असल में यही शहरी इलाके आर्थिक गतिविधियों के केंद्र भी हैं। सूरत के उद्यमों ने बाहरी मजदूरों को बड़ा आसरा दिया, लेकिन संकट के इस दौर में वे भी आसरा नहीं दे सके।
सरकार मजदूरों की मदद करने में नाकाम रही- कांग्रेस
कांग्रेस पार्टी और शीर्ष नेताओं ने सरकार को चेताया कि यह एक बहुत बड़ी मानवीय आपदा बनती जा रही है, लेकिन इसे विपक्षी आलोचना बताकर खारिज कर दिया गया। आज यही कड़वी हकीकत हमारे सामने है कि जब लोगों को सरकार की सबसे अधिक जरूरत थी तो वह उन लोगों की मदद में नाकाम रही। इससे हमारे सिर शर्म से झुक गए। जो हालात बने उनका एक कारण उस मानसिकता में छिपा है जिसमें हमने राष्ट्र निर्माण के अहम शिल्पियों के साथ बाहरियों जैसा बर्ताव किया। बड़ी-बड़ी घोषणाएं करने वालों, जटिल आदेश जारी करने वाली नौकरशाही और शहरी भारत के लिए वे अदृश्य रहे। मजबूरन उन्हें उन सड़कों पर उतरना पड़ा जो उनके खून-पसीने की मेहनत से ही बनी थीं।
गगनचुंबी इमारतें बनाने वाले मजदूर नारकीय जीवन जीने को अभिशप्त हैं
चुनाव प्रचार के दौरान अक्सर मैं उन स्थानों पर गया जहां मेरे गृहराज्य के लोग बड़ी तादाद में रहते हैं। उन सभी का दुखड़ा एक समान था कि उन्हें वहां बाहरी माना जाता है। उन्हें इस बात की टीस सालती है कि मेट्रो और गगनचुंबी इमारतें बनाने में योगदान देने वाले वे लोग नारकीय जीवन जीने को अभिशप्त हैं। आठ-दस लोगों का परिवार दड़बों में रहने को मजबूर है। चूंकि उनके दस्तावेज स्थानीय पते के नहीं होते तो वे तमाम सरकारी योजनाओं के लाभ से भी वंचित रह जाते हैं। मैं यही सवाल उठाना चाहता हूं कि आखिर अपनी सीमाओं के भीतर ही कोई भारतीय बाहरी कैसे हो सकता है? इस सवाल के जवाब की तलाश के लिए हमें तत्काल रूप से तीन बिंदुओं पर गौर करना होगा। ये सुझाव मैं विपक्षी नेता के रूप में नहीं, बल्कि एर्क ंचतित भारतीय के रूप में दे रहा हूं।
असंगठित क्षेत्र में कार्यरत मजदूरों की स्पष्टता नहीं
सबसे पहले तो अपने राज्यों से बाहर रहने वालों के आंकड़े तैयार किए जाएं। चूंकि इनमें से अधिकांश असंगठित क्षेत्र में कार्यरत हैं तो उनके दर्जे को लेकर स्पष्टता नहीं। ऐसे में किसी राष्ट्रीय आपदा के वक्त यह अनुमान लगाना मुश्किल होता है कि आखिर कितने लोगों को मदद की दरकार है। दूसरा सुझाव यह है कि सरकार एक देश एक राशन कार्ड योजना के दायरे को और बढ़ाए।
श्रमिकों को भी स्थानीय स्तर पर सभी सरकारी सेवाओं का लाभ दिया जाना चाहिए
दूसरे राज्यों में रहने वाले श्रमिकों को भी स्थानीय स्तर पर सभी सरकारी सेवाओं का लाभ दिया जाना चाहिए। उन्हें स्थानीय प्रवास की जगह पर मताधिकार की भी अनुमति मिले ताकि उन्हें राजनीतिक महत्ता मिल सके। तीसरा सुझाव यह है कि श्रम सुधारों की आड़ में श्रमिकों के शोषण की बुनियाद न रखी जाए, क्योंकि उनके पास संरक्षण के लिए पहले ही कोई मजूबत आधार नहीं है। अब हमें इन श्रमिकों के लिए एक समान सामाजिक सुरक्षा योजना तैयार करनी चाहिए। सटीक आंकड़ों के साथ उसे परवान चढ़ाया जाए।
सही आंकड़े उपलब्ध नहीं होने से सरकारी राहत घोषणाएं अपर्याप्त साबित हुईं
हम इस सच्चाई से मुंह नहीं फेर सकते कि असल आंकड़े उपलब्ध नहीं और यही कारण है कि राहत के लिए जो भी सरकारी घोषणाएं की गईं वे अपर्याप्त साबित हुई हैं। अपनी जान खतरे में डालकर गरीब मजदूर जिस तरह पलायन कर रहे हैं उसका एक हासिल यही है कि शहरी भारत को आखिरकार यह मालूम पड़ा कि उनके साथी नागरिक किस दशा में रह रहे हैं। इसका वास्तविक असर तो उन्हें इस अहसास के साथ महसूस होगा कि हमारे शहरों को चमकाने में इन असहाय मेहनतकश लोगों का कितना बड़ा योगदान रहा।
औरैया ट्रक हादसे की मौत कोरोना की भेंट चढ़ेगी या राज्य की निर्दयता में गिनी जाएगी
औरैया ट्रक हादसे में मारे गए 19 वर्षीय अर्जुन चौहान के पिता ने मुझे बताया था कि जिंदगी संवारने के लिए कुछ पैसे कमाने के मकसद से उनके बेटे ने इतनी छोटी उम्र में पहली बार घर छोड़ा और अब उसका शव वापस आ रहा है। क्या यह मौत कोरोना की भेंट चढ़ेगी या राज्य की निर्दयता में गिनी जाएगी या मात्र एक आंकड़ा मानकर भुला दी जाएगी? वक्त आ गया है कि हम अपनी नीतियों पर पुनर्विचार करें तभी महात्मा गांधी के सपनों को भी साकार कर सकेंगे।
( लेखक कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं )