जाति-मजहब की राजनीति के चलते ही शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी जैसे मुद्दे चुनावी चर्चा से बाहर हैैं

देश में वोट की राजनीति में केवल तीन अहम पैमाने नजर आते हैैं। पहला जाति दूसरा मजहब तीसरा सरकार से मोह भंग यानी एंटी इनकंबैंसी।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Wed, 24 Apr 2019 06:09 AM (IST) Updated:Wed, 24 Apr 2019 06:09 AM (IST)
जाति-मजहब की राजनीति के चलते ही शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी जैसे मुद्दे चुनावी चर्चा से बाहर हैैं
जाति-मजहब की राजनीति के चलते ही शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी जैसे मुद्दे चुनावी चर्चा से बाहर हैैं

[ डॉ. बृजेश ]: देश में वोट की राजनीति में केवल तीन अहम पैमाने नजर आते हैैं। पहला जाति, दूसरा मजहब, तीसरा सरकार से मोह भंग यानी एंटी इनकंबैंसी। हिंदुस्तान की सियासत इन तीन मुद्दों पर टिकी है। जाति जन्म से है जिसे बदला नहीं जा सकता। प्रजातंत्र संख्या का खेल है। जिसकी जितनी संख्या भारी उतनी उसकी भागीदारी जैसे नारों ने भारतीय राजनीति में जातीय गणना को सर्वोपरि कर दिया है। इतिहास के प्रतीकों को जातियां अपने-अपने राजनीतिक हितों की खातिर महिमामंडित करने लगी हैं। सभी दल अब चुनाव में जातियों का गणित बिठाने लगे हैं। मतदाता भी बेरोजगारी, महंगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य संबंधी मुद्दे भूलकर जातिगत स्वार्थ में फंसकर मतदान करते हैैं। इस यथार्थ को शुरू में डॉ. राममनोहर लोहिया ने पकड़ा।

शुरुआती चुनावों में लोहिया की पार्टी की करारी हार ने उन्हें कांग्रेस के मुकाबले अपना जनाधार वोट बनाने को बाध्य किया। उनके जाति तोड़ो, दाम बांधो, सस्ता उपचार, मुफ्त शिक्षा, अंग्रेजी हटाओ जैसे आंदोलनों ने राजनीतिक कार्यकर्ता तो पैदा किए, लेकिन चुनाव नहीं जीत पाए। राष्ट्रीय आंदोलन से उपजे जनाधार (मूलत: ब्राह्मण-हरिजन-अल्पसंख्यक) के बल पर कांग्रेस चुनाव जीतकर सत्ता पर काबिज रही। लोहिया ने लगातार पराजय झेलते हुए यह महसूस किया कि मतदाता बेरोजगारी, महंगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य इत्यादि मुद्दे भूलकर, जातिगत स्वार्थ में फंसकर मतदान करता है।

उन्होंने कांग्रेस के विकल्प में नारा दिया-संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़ें पावे सौ में साठ। इस तरह उन्होंने पिछड़ी जातियों को जोड़ा, हालांकि उन्होंने आगाह किया था कि इसका जाति विशेष के पक्ष में धु्रवीकरण होने का भय है, जो आगे सही साबित हुआ। उन्होंने रामसेवक यादव, कर्पूरी ठाकुर, मनीराम बागड़ी, सत्यनारायण रेड्डी, रविराय, बेनीप्रसाद वर्मा, धनिकलाल मंडल, उपेंद्र नाथ वर्मा, पुरुषोत्तम कौशिक, बृजलाल वर्मा, चिमनलाल शाह, रविनारायण परमार इत्यादि नेताओं को चुनाव में उतारकर पिछड़ी जातियों को जोड़ा। इससे उनकी पार्टी जीतने लगी। अनेक प्रांतों में संविंद सरकारें बनी।

लोहिया की आकस्मिक मृत्यु के बाद उनके आंदोलन से उपजी जनचेतना को चौधरी चरण सिंह ने अपना सियासी हथियार बनाया और पिछड़ी जातियों-मूलत: किसान जातियों का प्रतिनिधि बन प्रधानमंत्री पद हासिल किया। फिर मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू होने के बाद जातियां अपनी-अपनी संख्या के आधार पर राजनीतिक छावनियों में संगठित होने लगीं और चुनावी समर में अपनी हिस्सेदारी की दावेदारी करने लगीं। इसी के चलते दस्यु सुंदरी फूलन देवी का लोकसभा में पहुंचना संभव हुआ। जब लोहिया जाति की बात करते थे तो वामपंथी उसे नकारते थे। खांटी कम्युनिस्ट नेता मित्रसेन यादव भी सामाजिक न्याय के रास्ते मुलायम सिंह की पार्टी में शामिल हो गए। वामपंथी इस हृदय परिवर्तन को समझ नहीं पाए। एक समय बिहार, उप्र, पंजाब आदि से कई वामपंथी सांसद चुने जाते थे। जातिवादी राजनीति के चलते वामपंथी अपना अस्तित्व खो बैठे। बिहार में महागठबंधन ने उन्हें अप्रासंगिक मानकर अपने साथ जोड़ा ही नहीं।

दूसरा महत्वपूर्ण अंश है मजहब। धार्मिकता के नाम पर पार्टी विशेष या प्रत्याशी विशेष के लिए ध्रुवीकरण किया जाता है। प्रथम आम चुनाव में प्रखर समाजवादी नेता आचार्य नरेंद्र देव जब अयोध्या से लोकसभा के प्रत्याशी थे तो कांग्रेस ने बाबा राघवदास को उनके विरुद्ध खड़ा कर दिया। ध्रुवीकरण से उन्होंने आचार्य जी को पराजित किया। जवाहरलाल नेहरू भी चुनावों के लिए पंडित नेहरू बन गए थे। हिंदूवादी तत्वों के चलते अल्पसंख्यकों का ध्रुवीकरण होता है और जातिवादी नेता उन्हें अपने सियासी हितों के पोषण के लिए बनाए रखते हैं। कहीं एमवाई यानी मुस्लिम-यादव समीकरण बनता है तो कहीं जाट-मुस्लिम समीकरण। दक्षिण में वोक्कालिंगा-मुस्लिम समीकरण के चलते घोर जातिवादी नेतृत्व उभर आया है। समय के साथ सामाजिक न्याय के पुरोधा अपनी जाति और फिर परिवार के पोषक बन गए और अल्पसंख्यक समाज अपने ध्रुवीकरण के चलते जातिवादी एवं परिवारवादी नेताओं की राजनीति के चंगुल में फंसकर रह गया। इसके चलते वह अपने बुनियादी मुद्दों से निष्प्रभावी बना रहा।

तीसरा मुद्दा है चुनावी वादे और उनकी उपेक्षा से स्थापित सरकार से मोहभंग। 1977 में जनता पार्टी को अप्रत्याशित जीत मिली थी, लेकिन छह महीने बाद आजमगढ़ उपचुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी मोहसिना किदवई जीत गईं। हाल में मप्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को मिली सफलता स्थापित सरकारों से मोहभंग का परिणाम है। यह मुद्दा प्राय: जनमानस को बुनियादी सवालों पर चर्चा के लिए प्रेरित करता है। जैसे बेरोजगारी, विकास, कानून व्यवस्था, शिक्षा, स्वास्थ्य, महंगाई, भ्रष्टाचार इत्यादि। अफसोस है कि ज्यादातर मतदाता जाति और मजहब के चलते इन पर ध्यान नहीं दे पाते।

अल्पसंख्यक समाज खासतौर पर मुस्लिम समाज अपनी गरीबी, बेरोजगारी, शासन-प्रशासन में भागीदारी, अशिक्षा, स्वास्थ्य, कानून व्यवस्था पर वोट नहीं करता। वह मजहब के मठाधीशों के प्रभाव में आकर जातिवादी या फिर परिवारवादी नेताओं के चंगुल में फंसा रहता है। अब चुनावों में जन धारणा की महत्वपूर्ण भुमिका होती है। प्रिंट मीडिया के साथ बीते कुछ वर्षों से टीवी, सोशल मीडिया जन धारणा बनाने का काम करता है। यह नया मीडिया तंत्र पूरे समाज पर अपनी प्रायोजित अवधारणा को थोपने का काम करता है। इस नए मीडिया तंत्र की ओर से कोई भी मुद्दा उछाल दिया जाता है और जनता उसी में उलझकर रह जाती है। झूठ को सच बनाना, अद्र्धसत्य उछालना, छोटी घटना को बढ़ा-चढ़ाकर उत्तेजक बनाना टीवी और सोशल मीडिया का कौशल बन गया है। सोशल मीडिया तो इतिहास में दफन हुए मुद्दों को पुन: उजागर करने का भी काम करता है।

2014 में भाजपा को मिली अभूतपूर्व सफलता ने उसे एक अवसर दिया था कि वह अपने शासन में अल्पसंख्यकों को भयमुक्त करती और देश में धार्मिक भाईचारा स्थापित करती। अफसोस कि ऐसा नहीं हो पाया। लव जिहाद, गोकशी जैसे मुद्दे उठे। इससे अल्पसंख्यक समाज सशंकित हुआ और उसने परिवारवादी, जातिवादी दलों की शरण में जाना बेहतर समझा। वह शासन-प्रशासन में प्रतिनिधित्व, गरीबी इत्यादि को मुद्दा नहीं बना सका। यदि वर्तमान सरकार ने अपने संगठनों को शुद्ध मन से स्वच्छता, बेटी बचाओ, कौशल विकास इत्यादि राष्ट्रीय कार्यक्रमों से जोड़ा होता और देश में सौहार्द को बल दिया होता तो सबका साथ-सबका विकास का नारा सर्वग्राही बन जाता और जातिवादी एवं परिवारवादी राजनीति भी निष्प्रभावी हो जाती। इसके फलस्वरूप आम चुनाव विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, भ्रष्टाचार से मुक्ति इत्यादि सवालों पर केंद्रित होता।

( लेखक डब्ल्यूएचओ के दक्षिण एशिया नेटवर्क से संबद्ध हैं )

chat bot
आपका साथी