आतंक की खतरनाक आहट: आतंकी दुनिया का दस्तूर है कि जो जिहाद के साथ नहीं वे सब उनके दुश्मन हैं

मदद करने वालों को भी जिहादी बख्शते नहीं। उनके मददगार अगर उनसे सतर्क नहीं तो वे भी उनकी भेंट चढ़ सकते हैं।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Wed, 24 Apr 2019 05:57 AM (IST) Updated:Wed, 24 Apr 2019 05:57 AM (IST)
आतंक की खतरनाक आहट: आतंकी दुनिया का दस्तूर है कि जो जिहाद के साथ नहीं वे सब उनके दुश्मन हैं
आतंक की खतरनाक आहट: आतंकी दुनिया का दस्तूर है कि जो जिहाद के साथ नहीं वे सब उनके दुश्मन हैं

[ एमजे अकबर ]: जब तक हम सही सवाल नहीं करेंगे तब तक हमें उनके जवाब भी नहीं मिल पाएंगे। जब तक हम यह नहीं सीखते कि तथ्यों का सामना कैसे किया जाए तब तक सच्चाई को भी भलीभांति नहीं समझ पाएंगे। हम आतंक के साथ बड़े-बड़े विशेषण लगाकर उस पर चिंता जताकर ही उसके खतरे की अनदेखी नहीं कर सकते। इस मामले में मैं एक मिसाल देता हूं जो मौजूदा माहौल में काफी प्रासंगिक है। अक्सर हम किसी भी बर्बर कृत्य को नादानी समझकर उसके निर्मम प्रभाव को कम कर देते हैं। इसे लेकर कुछ बातें एकदम स्पष्ट कर देता हूं। श्रीलंका में रविवार को जो वीभत्स आतंकी हमला हुआ उसे केवल ‘नादानी’ कहकर ही नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। असल में यह उन घिनौनी ताकतों का कृत्य था जिन्हें भलीभांति मालूम था कि वे क्या करने जा रहे हैं। शुरुआती रपटें यही संकेत कर रही हैं कि नेशनल तौहीद जमात नाम का एक संगठन इसके लिए जिम्मेदार है। उसने प्रार्थना करने आए मासूम ईसाइयों के नरसंहार की योजना पूरी सावधानी के साथ बनाई और उसे ऐसी निर्मम मंशा के साथ अंजाम दिया ताकि इसमें अधिक से अधिक लोगों को मौत के घाट उतारा जा सके।

नेशनल तौहीद जमात का ताल्लुक मालदीव, बांग्लादेश और पाकिस्तानी संगठनों से है। वहीं कुछ और कुछ बड़े आतंकी समूहों से भी उसके तार जुड़े हैं। इनमें इस्लामिक स्टेट का भी नाम लिया जा रहा है। जहां उसने धमाकों की जिम्मेदारी ली है वहीं श्रीलंकाई रक्षा मंत्री कह रहे हैैं कि न्यूजीलैंड की मस्जिद में हमले का आतंकियों ने बदला लिया। नेशनल तौहीद जमात को कई ताकतवर सरकारी और गैर-सरकारी माध्यमों से सैन्य, प्रशिक्षण और वित्तीय मदद मुहैया होती है जिसमें उनके हित भी जुड़े होते हैं। श्रीलंका में भीषण आतंकी हमलों के बाद उपजा आक्रोश आतंकियों द्वारा शुरू की गई लंबी लड़ाई का एक अलग अध्याय है जिसमें उन्होंने धार्मिक उन्माद फैलाने के लिए नरसंहार को अपना जरिया बनाया। चर्चों के ध्वंसावशेष और मृतकों एवं घायलों की भयावह तस्वीर में इसके संकेत स्पष्ट रूप से झलकते हैं। इन हमलों में कम से कम आठ भारतीय मारे गए हैं। हमारा दिल उनके लिए द्रवित हो रहा है, लेकिन क्या मैं इससे जुड़ा एक और सवाल भी उठा सकता हूं? आखिर हमारे दिमाग हमारे दिल की बातें क्यों नहीं सुनते? आखिर जनाजे उठने के साथ ही हम सोचना क्यों बंद कर देते हैं?

श्रीलंका में हुई इस भीषण त्रासदी को कम करके आंके बिना ही एक और बात का उल्लेख करना जरूरी हो जाता है और वह यह कि भारत भी निश्चित रूप से इन आतंकियों के निशाने पर था। हम कोई भविष्यवाणी नहीं कर सकते कि अब आगे क्या होगा। विशेषकर उन आम चुनावों के बीचोंबीच तो बिल्कुल भी नहीं जो बेहद तल्ख होने के साथ ही देश की तकदीर भी तय करने जा रहे हैं। वैसे तो आत्मतुष्टि के लिए कोई गुंजाइश नहीं है, लेकिन यह भी एकदम स्वाभाविक है कि अब भारत आतंकियों के लिए वैसा खुला मैदान नहीं रह गया जैसा कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी संप्रग सरकार के दौरान हुआ करता था। तब हर एक दीवाली के अवसर पर हम सशंकित हो जाया करते थे। प्रत्येक शहर अति-संवेदनशील लगने लगता था। आतंकियों को लगा कि जब वर्ष 2008 में मुंबई के भयावह आतंकी हमले के बाद डॉ. मनमोहन सिंह ने कुछ नहीं किया तो कोई जवाबदेही ही नहीं होगी, मगर वे दिन दिन अब गुजर गए हैं। अब सीमा पार आतंकवाद पर जवाबदेही के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास राजनीतिक इच्छाशक्ति और सैन्य सामथ्र्य, दोनों हैं।

राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर कांग्र्रेस का दृष्टिकोण और भी परेशान करने वाला है। उसका चुनावी घोषणापत्र हमारी सुरक्षा और सैन्य बलों को कमजोर करता है, क्योंकि उसमें ऐसे प्रावधान हटाने की बात की गई है जो सुरक्षा और सैन्य बलों को कवच प्रदान करते हैं। अनेकता में एकता और सद्भाव में हमारा विश्वास भारत की दार्शनिक विरासत की एक अमूल्य निधि है। हम कुछ लोगों के कृत्यों पर बहुत लोगों को उसके लिए दंडित नहीं करते। हमारा दुश्मन सोचता है कि आतंक का नृशंस स्वरूप देश में सांप्रदायिक दंगे करा देगा, मगर ऐसे हर एक अवसर पर हमने माहौल भड़काकर हालात बिगाड़ने के बजाय अपने सिद्धांतों का ही पालन किया है। इससे एक और प्रश्न यह दस्तक देता है कि आखिर कांग्र्रेस ने एक बड़े तबके के नाम पर कुछ उपद्रवियों को लगातार संरक्षण क्यों प्रदान किया?

जरा इस पर विचार कीजिए और साथ ही यह भी सोचिए कि क्या कांग्र्रेस नेतृत्व खासतौर से वह जिस वर्तमान स्वरूप में दिखता है, हमारे देश को महफूज रख सकता है या फिर यहां तक कि उसकी सुरक्षा से उसका कोई सरोकार भी होगा? यह वह कांग्र्रेस है जो एक विश्वविद्यालय परिसर में भारत के टुकड़े-टुकड़े करने का नारा लगाने वालों की पीठ थपथपा कर उनकी मदद के लिए आगे आती है।

एक बड़े समुदाय के कुछ गुमराह लोगों द्वारा जो उग्र्र जिहाद छेड़ा गया है उसने श्रीलंका को अपनी लड़ाई का अखाड़ा बना लिया है। इसके लिए श्रीलंका को किसी तात्कालिक नहीं, बल्कि सोची-समझी साजिश के तहत चुना गया है। जिहादी समूहों की रणनीति में एक खास पहलू शामिल रहा है। वे वहीं हमला करते हैं जहां उसकी सबसे कम उम्मीद होती है। उनकी बर्बरता की कोई भौगोलिक सीमा नहीं। असल में कुछ दोष हमारी स्मृति का भी है जो हादसों को भुला देती है। हमने विस्मृत कर दिया कि पाकिस्तानी आतंकी समूहों ने कैसे लाहौर में श्रीलंकाई क्रिकेट टीम पर हमला किया। अफसोस की बात यही है कि कोलंबो ने इस हमले को एक राष्ट्रीय आपदा की आशंका के तौर पर नहीं लिया। इस वजह को केवल तुष्टीकरण के रूप में ही देखा जा सकता है। अब हमें यही देखना होगा कि वर्ष 2019 में आगे क्या होगा?

आतंकी दुनिया का एक ही दस्तूर है कि जो जिहाद के साथ नहीं वे सब उनके दुश्मन हैं। यहां तक कि अपनी मदद करने वालों को भी ये जिहादी बख्शते नहीं। उनके मददगार अगर उनसे सतर्क नहीं तो वे भी उनकी भेंट चढ़ सकते हैं। भारत की एकता, सुरक्षा और समृद्धि इसी पर निर्भर है कि हम हत्यारों से खुद को कैसे बचा सकते हैं? हम एक ऐसे मुकाबले के बीच में हैं जिसमें हम फंसना नहीं चाहते। ऐसी स्थिति में जीत के लिए हमें एक ऐसे नेता की दरकार है जो निगरानी में मुस्तैद होने के साथ ही जवाबी हमला करने में सक्षम हो।

( लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )

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