लापरवाही की कीमत चुकाता देश: अदालतों के हस्तक्षेप से सरकारों की कोशिश कामयाब हों और जल्द दूर हों महामारी की कमियां

जल्द से जल्द इतनी संख्या में लोगों को टीके लग जाएं जो हर्ड इम्युनिटी पैदा करने में सहायक हों। इसी के साथ जनता तब तक सचेत रहे जब तक स्वास्थ्य विशेषज्ञों की ओर से यह न कह दिया जाए कि कोरोना फिर सिर नहीं उठाएगा।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Sun, 09 May 2021 02:54 AM (IST) Updated:Sun, 09 May 2021 07:08 AM (IST)
लापरवाही की कीमत चुकाता देश: अदालतों के हस्तक्षेप से सरकारों की कोशिश कामयाब हों और जल्द दूर हों महामारी की कमियां
देश का स्वास्थ्य ढांचा अधिक कोरोना मरीजों का उपचार करने में समर्थ नहीं।

[ संजय गुप्त ]: कोविड महामारी की दूसरी लहर से उपजी स्थितियां संभलने का नाम नहीं ले रही हैं। यह महामारी ऐसा रूप धारण किए हुए है कि यह आकलन करना कठिन है कि अभी और कितने लोगों की जान जाएगी? कोविड महामारी की दूसरी लहर को विकराल रूप धारण किए हुए करीब 40 दिन बीत चुके हैं, लेकिन हमारा स्वास्थ्य ढांचा करीब-करीब हर राज्य में लचर ही दिख रहा है। इस महामारी से लड़ने का सबसे बड़ा हथियार ऑक्सीजन है, लेकिन उसकी किल्लत खत्म होती नहीं दिख रही है। जिन्हें बड़े अस्पतालों में आइसीयू बेड मिल गए हैं उन्हें तो राहत है, लेकिन छोटे अस्पतालों और घरों में आइसोलेट कोरोना मरीज आक्सीजन के लिए भटक रहे हैं। ऑक्सीजन के अभाव में तमाम मरीजों की मौत हो चुकी है।

देश का स्वास्थ्य ढांचा अधिक कोरोना मरीजों का उपचार करने में समर्थ नहीं

हालांकि केंद्र ने हर राज्य का ऑक्सीजन कोटा तय कर दिया है, लेकिन जरूरत के हिसाब से उसकी आपूर्ति नहीं हो पा रही है। कुछ राज्य अपना कोटा बढ़ाने की मांग कर रहे हैं और वे अदालतों तक पहुंच गए हैं। उच्चतर अदालतें केंद्र को ऑक्सीजन की व्यवस्था करने और संबंधित राज्य का कोटा अपने हिसाब से तय करने में लगी हुई हैं। इस क्रम में वे कभी केंद्र को फटकार लगाती हैं और कभी राज्यों को या कभी उनके प्रशासन को अथवा अस्पताल प्रबंधन को। जैसी किल्लत ऑक्सीजन की है, वैसी ही रेमडेसिविर दवा की। इसके साथ अस्पताल बेड की भी तंगी है। यह तंगी भी खत्म होने का नाम नहीं ले रही, क्योंकि प्रतिदिन करीब चार लाख नए कोरोना मरीज सामने आ रहे हैं, जिनमें से 5-10 प्रतिशत को ऑक्सीजन की जरूरत पड़ रही है। हमारा स्वास्थ्य ढांचा इतने अधिक कोरोना मरीजों का उपचार करने में समर्थ नहीं।

अदालतों के पास समस्या के समाधान का ठोस उपाय नहीं

अदालतों का दरवाजा खटखटाने का काम राज्य सरकारों के साथ अस्पताल संचालक भी कर रहे हैं। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि वे अदालतों की फटकार या अव्यवस्था के आरोपों से बचने के लिए पेशबंदी के तहत ऐसा कर रहे हैं, क्योंकि सच्चाई तो यही है कि अदालतों के पास भी इस समस्या के समाधान का कोई ठोस उपाय नहीं। लगभग हर दिन उच्च न्यायालय या फिर उच्चतम न्यायालय में स्वास्थ्य संसाधनों की कमी के मामलों की सुनवाई हो रही है। संकट के इस समय उनका हस्तक्षेप करना स्वाभाविक है, लेकिन उनकी ओर से सरकारों के खिलाफ जैसी तीखी टिप्पणियां की जा रही हैं, उनका औचित्य समझना कठिन है। ये टिप्पणियां फैसलों का हिस्सा तो नहीं बन रहीं, लेकिन सुर्खियां अवश्य बन रही हैं। ये सुर्खियां समस्या के समाधान में सहायक बनने के बजाय शासन-प्रशासन का मनोबल गिराने और उनकी प्राथमिकताओं की दिशा बदलने वाली साबित हो रही हों तो हैरानी नहीं।

स्वास्थ्य ढांचे की दुर्दशा के लिए सरकारें ही जिम्मेदार

अदालतों की ओर से कभी अवमानना की कार्रवाई करने के लिए चेताया जा रहा और कभी सरकारों को शुतुरमुर्ग बताया जा रहा है। यह तल्खी समझ आती है, लेकिन क्या इससे संकट का समाधान हो जाएगा या फिर जैसा सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि क्या दो-चार अधिकारियों को जेल भेजने से बात बन जाएगी? सवाल यह भी है कि अगर संकट से जूझ रही नौकरशाही हर वक्त अदालतों की फटकार झेलती रही तो फिर वह समस्याओं का निस्तारण कब और कैसे करेगी? यह सही है कि स्वास्थ्य ढांचे की दुर्दशा के लिए सरकारें ही जिम्मेदार हैं, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि जो अभूतपूर्व संकट खड़ा हो गया है, वह रातों-रात दूर नहीं हो सकता। आजाद भारत में ऐसा संकट इसके पहले कभी नहीं आया। बेहतर हो कि अदालतों की ओर से यह देखा जाए कि वे इस तरह हस्तक्षेप कैसे करें, जिससे सरकारों की कोशिश कामयाब हो और उनकी कमियां जल्द दूर हों। अदालतों को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि एक समय अमेरिका और इटली जैसे समर्थ और कम आबादी वाले देशों का स्वास्थ्य ढांचा भी चरमरा गया था।

दूसरी लहर से जूझ रही सरकारों को और सक्रियता दिखानी होगी

चूंकि संविधान यह कहता है कि राज्य हर नागरिक के जान-माल की रक्षा करेगा, लिहाजा जब उपचार न मिलने से लोगों की जान जा रही हो तो अदालतों को सक्रिय होना ही पड़ेगा, लेकिन बात तब बनेगी जब उनकी सक्रियता हालात बदलने में मददगार साबित हो। चूंकि संक्रमण की तीसरी लहर आने की भी आशंका है, इसलिए दूसरी लहर से जूझ रही सरकारों को भी और सक्रियता दिखानी होगी। कायदे से उन्हेंं दूसरी लहर का सामना करने की भी तैयारी करनी चाहिए थी, लेकिन वे इसमें असफल रहीं। यह असफलता केंद्र और राज्यों, दोनों की है, क्योंकि समय रहते न तो आक्सीजन प्लांट लग सके, न अस्पताल बेड बढ़ सके और न ही दवाओं का भंडारण हो सका। ढिलाई सभी सरकारों ने बरतीं, लेकिन अब वे दोषारोपण में लगी हुई हैं। खेद की बात यह है कि राजनीतिक वर्ग संकट का सामना मिलकर करने के बजाय तू तू- मैं मैं कर रहा है। इससे खराब बात और कोई नहीं कि विभिन्न दल और खासकर कांग्रेस संकट समाधान में सहयोगी बनने के बजाय राजनीतिक बढ़त हासिल करने के फेर में दिख रही है।

महामारी की दूसरी लहर के समक्ष सरकारें हुईं नाकाम 

महामारी की दूसरी लहर के समक्ष सरकारें जिस तरह नाकाम हुईं, उसके लिए उन्हें लोगों के आक्रोश का सामना करना ही होगा, लेकिन यह भी ध्यान रहे कि लापरवाही का परिचय देश की जनता की ओर से भी दिया गया। यह तथ्य है कि आम और खास, सभी लोगों ने उन आदेशों-निर्देशों की परवाह नहीं की, जो कोरोना से बचने के लिए लगातार दिए जा रहे थे। नए साल का आगमन होते ही देश का माहौल ऐसा हो गया, मानों कोरोना चला गया हो। लोगों ने सब कुछ कोरोना काल के पहले की तरह करना शुरू कर दिया।

देश को लापरवाही की भारी कीमत चुकानी पड़ रही

बाजार, शापिंग मॉल, पर्यटन स्थल आदि में भीड़ बढ़ने लगी। शादी-ब्याह और अन्य सांस्कृतिक, धार्मिक आयोजन पहले की तरह होने लगे। इसके साथ ही सार्वजनिक स्थानों पर शारीरिक दूरी बरतना और मास्क का इस्तेमाल भी बंद कर दिया गया। यह सब इसलिए और हुआ कि जनता के साथ राजनीतिक वर्ग ने भी सतर्कता का परित्याग कर रैलियां, जलसे करने शुरू कर दिए। देश को इसी की भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। जो भूलें हुईं उनसे सबक सीखते हुए यह सुनिश्चित करना चाहिए कि जल्द से जल्द इतनी संख्या में लोगों को टीके लग जाएं, जो हर्ड इम्युनिटी पैदा करने में सहायक हों। इसी के साथ जनता तब तक सचेत रहे, जब तक स्वास्थ्य विशेषज्ञों की ओर से यह न कह दिया जाए कि कोरोना फिर सिर नहीं उठाएगा।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]

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