Coronavirus Vaccine India: आसान नहीं कोरोना वायरस जनित महामारी की दवा का परीक्षण

Coronavirus Vaccine India भारत की ही एक कंपनी भारत बॉयोटेक हैदराबाद ने National Institute of Virology पुणे के सहयोग से कोरोना वैक्सीन को विकसित किया है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Mon, 06 Jul 2020 09:06 AM (IST) Updated:Mon, 06 Jul 2020 09:28 AM (IST)
Coronavirus Vaccine India: आसान नहीं कोरोना वायरस जनित महामारी की दवा का परीक्षण
Coronavirus Vaccine India: आसान नहीं कोरोना वायरस जनित महामारी की दवा का परीक्षण

प्रमोद भार्गव। Coronavirus Vaccine Indiaआज दुनिया के अधिकांश देश कोरोना महामारी से जूझ रहे हैं। इस बीमारी से मुक्ति के स्थाई उपचार के लिए टीका (वैक्सीन) बनाने का काम कई देशों में चल रहा है। इसी बीच भारत की बायोटेक्नोलॉजी कंपनी भारत बॉयोटेक हैदराबाद द्वारा निर्मित टीके को मानव परीक्षण की अनुमति मिल गई है। इस कंपनी ने कोविड-19 वैक्सीन बना लेने का दावा किया है।

कोरोना के मरीजों पर इसका क्लीनिकल ट्रायल यानी परीक्षण किया जाएगा। इस परीक्षण की अनुमति ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया ने दी है। दूसरी तरफ पतंजलि संस्थान द्वारा निर्मित कोरोना की आयुर्वेदिक दवा कोरोनिल को भी आयुष मंत्रालय ने सही बताया है। हालांकि आयुर्वेद व अन्य उपचार पद्धतियों में एलोपैथी की तरह दवा का परीक्षण नहीं किया जाता। बहरहाल यह उम्मीद बढ़ी है कि देर-सवेर कोरोना का टीका एवं प्रभावी दवा को विकसित कर लिया जाएगा।

चूंकि दवा पहली बार मरीजों के मर्ज पर आजमाई जाती है, इस कारण इसके विपरीत असर की आशंका भी बनी रहती है। दवा जानलेवा भी साबित हो सकती है, यह बात दवा कंपनी और चिकित्सक बखूबी जानते हैं। इसलिए पहले ये प्रयोग चूहा, खरगोश, बंदर आदि के बाद इंसान पर किए जाते हैं। परीक्षण के बहाने गुमनामी के ये प्रयोग कई बार चिकित्सकों की नाजायज कमाई का भी बड़ा हिस्सा बनते हैं। एक अनुमान के मुताबिक भारत में ड्रग ट्रायल का कारोबार सालाना तीन हजार करोड़ रुपये का है। वर्तमान में विभिन्न प्रकार की करीब दो हजार दवाओं के क्लीनिकल ट्रायल भारत में पंजीकृत हैं।

नई दवा के विकास के बाद उसके असर की जानकारी एवं रोग निदान के दृष्टिगत दवा की कितनी मात्रा जरूरी है, इस प्रक्रिया को चिकित्सा विज्ञान की भाषा में क्लीनिकल ड्रग ट्रायल कहते हैं। यह प्रक्रिया चार चरणों में पूरी होती है। पहले चरण में दवा को जानवरों पर आजमा कर देखते हैं। इसके बुरे असर का आकलन किया जाता है। इसी दौरान यह पता लगाया जाता है कि दवा की कितनी मात्रा मनुष्य झेल पाएगा। यह असर 40 से 45 रोगियों पर परखा जाता है। दूसरे चरण में 100 से 150 मरीजों पर दवा का प्रयोग किया जाता है। तीसरे चरण में नई दवा का एक चीनी की गोली से तुलनात्मक प्रयोग करते हैं। इसे प्लेसिबो ट्रायल कहा जाता है।

यदा-कदा बीमारी विशेष की दवा जो बाजार में पहले से ही मौजूद है, उसके साथ तुलनात्मक अध्ययन-परीक्षण किया जाता है। यह प्रयोग 500 से 1000 मरीजों पर अमल में लाया जाता है। इन तीनों चरणों की कामयबी तय होने पर इस नमूने को भारतीय दवा नियंत्रक के पास लाइसेंस हेतु भेजा जाता है। लाइसेंस हासिल हो जाने पर दवा का व्यावसायिक उत्पादन शुरू होता है। फिर क्षेत्र विशेष के लोगों पर बड़ी संख्या में दवा का प्रयोग शुरू होता है। यह प्रक्रिया दवा परीक्षण के चौथे चरण का हिस्सा है। क्षेत्र विशेष में दवा का परीक्षण इसलिए किया जाता है ताकि स्थानीय जलवायु पर रोगी के प्रभाव के साथ दवा के असर की भी पड़ताल हो सके।

दवा परीक्षण का जाल : दवा निर्माता कंपनियां रोगियों पर ड्रग ट्रायल का जाल बेहद कुटिल चतुराई से फैलाती हैं। इसके लिए सरकार की नीतियां और कार्य प्रणालियां भी दोषी हैं, क्योंकि ज्यादातर राज्य सरकारें आम आदमी को बेहतर चिकित्सकीय परामर्श और मुफत इलाज करवाने में नाकाम रही हैं। ड्रग ट्रायल करने वाले डॉक्टर रोगी को मुफ्त दवा का लालच देकर उसे दवा परीक्षण-अध्ययन परियोजना का हिस्सा बना लेते हैं। अंग्रेजी में छपे दस्तावेजों पर मरीज या उसके अभिभावक से अंगूठा अथवा दस्तखत करा लिए जाते हैं। दस्तावेज अंग्रेजी में होने के कारण मरीज यह नहीं समझ पाता कि वह दवा परीक्षण के लिए मुफ्त इलाज का हिस्सा बन रहा है अथवा वास्तविक मर्ज के उपचार का? सहमति पर हस्ताक्षर होते ही ताबड़तोड़ एक फाइल बनाई जाती है, जिस पर मरीज के नाम के स्थान पर एक गुप्तनाम लिखा जाता है। यहीं से मरीज परीक्षण का विषय बन जाता है और दवा निर्माता कंपनी की नई विकसित की गई दवा से उसका इलाज शुरू हो जाता है। यह एक ऐसी दवा होती है, जिसकी उपलब्धता सिर्फ प्रयोग कर रहे डॉक्टर के पास होती है। दवा दुकानों पर नहीं मिलती। यहां डॉक्टर मरीज को यह हिदायत भी देता है कि वह खाली पत्ता यानी स्ट्रीप लौटाता रहे, ताकि उसे दवा की अगली खुराक उपलब्ध कराई जाती है।

हालांकि दुनिया की दवा निर्माता कंपनियों के पास धन की कमी नहीं है, लेकिन नए रोगाणुओं की नई दवा या टीका बनाने की प्रक्रिया बेहद खर्चीली, अनिश्चितता से भरी और लंबी अवधि तक चलने वाली होती है। इसलिए दवा कंपनियों की इन कार्यों में अधिक रुचि नहीं होती है। बीसवीं सदी का मध्य और उसके बाद का काल इस नाते स्वर्ण युग था, जब चेचक, पोलियो, टिटनेस, रेबिज और हैपिटाइटिस जैसी बीमारियों के नियंत्रण के लिए टीकों को विकसित किया गया।

दुनिया भर में दवाओं का बाजार 80 खरब रुपये से भी ज्यादा का है। पर इसमें टीकों की भागीदारी केवल तीन प्रतिशत है। विषाणुओं को समाप्त करने के लिए टीका बनाने की प्रक्रिया महंगी व लंबी होने के कारण दवा कंपनियां इसे बनाने की प्रक्रिया में हाथ नहीं डालती हैं। विकसित देशों के समूह ही इन कार्यक्रमों में धन खर्च कर सकते हैं। शायद इसीलिए कोरोना का टीका बनाने के दावे तो कई देश कर रहे हैं, लेकिन इनमें सच्चाई कितनी है, फिलहाल इसमें संदेह है।

दवा परीक्षण की नैतिकता : ड्रग ट्रायल की अपनी अहमियत है, बशर्ते वह नैतिक शुचिता और पेशागत पवित्रता से जुड़ा हो, क्योंकि एलोपैथी चिकित्सा पद्धति एक ऐसी प्रणाली है, जिसमें नई दवा की खोज उपचार की तात्कालिक जरूरत से जुड़ी होती है। इसलिए इसमें लगातार नए-नए शोधों का हिस्सा बनाकर स्वास्थ्य लाभ के लिए कारगर बनाए रखने के उपाय जारी रहते हैं। इन परीक्षणों के बाद जो दवाएं बाजार में विक्रय के लिए आती हैं, वे आजमाई हुई अर्थात साक्ष्य आधारित दवाएं होती हैं। लेकिन ड्रग ट्रायल को कुछ चिकित्सक व चिकित्सालयों ने गलत तरीके से मरीजों को धोखे में रखकर अवैध धन कमाने का धंधा बना लिया है। इसलिए इसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं।

[वरिष्ठ पत्रकार]

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