कोरोना महामारी के दौर में शराब जैसे मुद्दे पर सिर्फ आर्थिक पक्ष को देखना कितना जायज?

कोरोना के दूसरी लहर के बीच राज्यों द्वारा लगाए गए लाकडाउन के बाद घरेलू हिंसा के मामलों में बढ़ोतरी देखी गई है। देश के अधिकांश राज्यों के राजस्व संग्रह में शराब की महत्वपूर्ण भूमिका के साथ ही इसके सामाजिक संदर्भ जैसे पहलुओं को भी समझना चाहिए।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Fri, 04 Jun 2021 12:50 PM (IST) Updated:Fri, 04 Jun 2021 12:59 PM (IST)
कोरोना महामारी के दौर में शराब जैसे मुद्दे पर सिर्फ आर्थिक पक्ष को देखना कितना जायज?
विभिन्न राज्यों में लाकडाउन की घोषणा के तत्काल बाद शराब की दुकानों पर उमड़ी भीड़। फाइल

अमरजीत कुमार। पिछले करीब सवा साल से कोरोना महामारी से पूरा देश जूझ रहा है। वहीं स्वास्थ्य सुविधाओं को बहाल करने में राज्य सरकारों को सीमित संसाधनों और आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में शराब की बिक्री राज्यों के लिए राजस्व का महत्वपूर्ण माध्यम बन चुका है जिसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राज्यों द्वारा महामारी के दौरान लॉकडाउन की घोषणा होते ही शराब की दुकानों पर खरीदारों की लंबी कतार आम बात हो गई है।

पिछले दिनों तेलंगाना में लॉकडाउन की घोषणा होने के महज चार घंटे में रिकॉर्ड 125 करोड़ रुपये की शराब की बिक्री दर्ज की गई। यही स्थिति कमोबेश अधिकांश राज्यों में देखी गई है। तमाम राज्य सरकारें भी शराब की बिक्री को सहज बनाने के लिए कई छूट दे रही हैं। छत्तीसगढ़ सरकार के बाद अब दिल्ली सरकार ने भी राज्य में शराब की ऑनलाइन बिक्री और होम डिलीवरी की अनुमति दे दी है, जबकि राजस्थान और कर्नाटक समेत अन्य कई राज्यों ने भी इसकी बिक्री के लिए कई रियायतें दी हैं।

महामारी के दौरान आर्थिक संकट से जुझ रही राज्य सरकारें राजस्व प्राप्ति के लिए कई हथकंडे अपना रही हैं, जबकि शराबबंदी कानून लागू करने वाले राज्य इससे प्राप्त होने वाले राजस्व के नुकसान से पहले से ही र्आिथक चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। पिछले साल अक्टूबर में भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार 25 राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों में शराब की कीमतों में महज साल भर में 120 फीसद तक वृद्धि हुई है। महत्वपूर्ण है कि पेट्रोलियम और शराब उत्पाद अभी भी जीएसटी प्रणाली के अंतर्गत नहीं आते हैं, यही कारण है कि राज्य सरकार के पास राजस्व का बड़ा हिस्सा पेट्रोलियम और शराब उत्पादों पर लगने वाले बिक्री कर और उत्पाद शुल्क से प्राप्त होता है।

ऐसे में पिछले वर्ष अनलॉक के दौरान जहां दिल्ली सरकार ने शराब की बिक्री पर 70 प्रतिशत ‘विशेष कोरोना शुल्क’ लगाया जिससे भारी राजस्व की प्राप्ति हुई, वहीं शराबबंदी लागू करने वाले राज्यों को राजस्व प्राप्ति के अन्य विकल्पों पर निर्भर रहने और आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ा। प्रश्न यह उठता है कि ऐसे में शराबबंदी कानून को लागू करने वाले राज्यों के सामने यह चुनौतीपूर्ण कार्य है कि कैसे शराबबंदी को लागू करते हुए इस महामारी में आर्थिक संकट से निपटा जाए? बिहार में पूर्ण शराबबंदी को पांच साल पूरे हो चुके हैं। वर्ष 2016 में बिहार निषेध और उत्पाद शुल्क अधिनियम 2016 के तहत एक अप्रैल को शराबबंदी लागू करने की अधिसूचना जारी कर दी गई थी, जबकि पांच अप्रैल से पूर्ण शराबबंदी पूरे राज्य में लागू कर दी गई। महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि राजस्व प्राप्ति के लिए बिहार सरकार ने अन्य विकल्पों पर काम किया जिमसें विनिर्माण कार्य में बालू उत्खनन पर लगने वाला टैक्स खबरों में बना रहा।

शराबबंदी का मुद्दा कभी सामाजिक तो कभी आर्थिक पक्षों को लेकर आए दिन राजनीतिक अखाड़े का प्रश्न बनता रहा है। ऐसे में स्वाभाविक है कि इस पर एक व्यापक विमर्श होना चाहिए। भारतीय संविधान में राज्य के नीति निर्देशक तत्वों से संबंधित अनुच्छेद-47 में मादक पेयों व हानिकारक नशीले पदार्थों का प्रतिषेध करने का प्रयास करने को कहा गया है। वर्तमान में गुजरात, बिहार, मिजोरम और नगालैंड में शराबबंदी लागू है। हालांकि पूर्व में हरियाणा, केरल, मणिपुर और तमिलनाडु में भी शराबबंदी लागू की गई थी जिसे कुछ समय बाद हटा लिया गया। उपरोक्त पक्ष इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि शराबबंदी को जारी रखने में कई राज्य पूर्व में असमर्थता दिखा चुके हैं, जबकि वर्तमान में जिन राज्यों में शराबबंदी लागू है, वे कोरोना महामारी की दूसरी लहर के दौरान आर्थिक चुनौतियों के बावजूद इसे लागू करने में सफल रहे हैं जो एक सकारात्मक पहलू है।

कोरोना महामारी से निपटने के लिए राज्यों को भारी राजस्व की आवश्यकता है, ऐसे में राज्य सरकारें राजस्व प्राप्ति के लिए हर संभव प्रयास कर रही हैं। यहां एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि इस दौर में जहां अनेक राज्यों ने शराब को राजस्व प्राप्ति का एक बड़ा जरिया बना दिया है, वहीं शराबबंदी कानून को लागू करने वाले बिहार जैसे राज्य कैसे आर्थिक संकट से निपट रहे हैं, इसे भी समझना चाहिए। जबकि अन्य समकक्ष राज्यों के मुकाबले बिहार की राजस्व प्राप्ति और बजट का आकार काफी कम है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 30 प्रतिशत से अधिक महिलाओं को घरेलू हिंसा और मानसिक परेशानी का सामना करना पड़ा है जिसके पीछे अशिक्षा और शराब को मुख्य रूप से जिम्मेदार माना गया है।

कोरोना के दूसरी लहर के बीच राज्यों द्वारा लगाए गए लाकडाउन के बाद घरेलू हिंसा के मामलों में बढ़ोतरी देखी गई है। ऐसे में शराब उत्पादों से राज्यों को प्राप्त होने वाले राजस्व को प्राप्त करने के लिए वैकल्पिक माध्यमों पर ध्यान देने की आवश्यकता है। विगत वर्षों में शराबबंदी को लागू करने को लेकर आर्थिक चुनौतियों के प्रश्न काफी महत्वपूर्ण हो गए हैं, वहीं प्रश्न यह है कि शराबबंदी जैसे मुद्दे पर सिर्फ आर्थिक पक्ष को देखना कितना जायज है, जबकि इसके सामाजिक निहितार्थ कम महत्वपूर्ण नहीं हैं।

[शोधार्थी, वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा, बिहार]

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