कांग्रेस को याद रखना चाहिए कि पंडित नेहरू अपनी गलतियों को सार्वजनिक रूप से स्वीकार भी करते थे

कांग्रेस को यह भी याद रखना चाहिए कि नेहरू समय-समय पर अपनी गलतियों को सार्वजनिक रूप से स्वीकार भी करते थे।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Thu, 14 Nov 2019 01:24 AM (IST) Updated:Thu, 14 Nov 2019 01:24 AM (IST)
कांग्रेस को याद रखना चाहिए कि पंडित नेहरू अपनी गलतियों को सार्वजनिक रूप से स्वीकार भी करते थे
कांग्रेस को याद रखना चाहिए कि पंडित नेहरू अपनी गलतियों को सार्वजनिक रूप से स्वीकार भी करते थे

[ सुरेंद्र किशोर ]: आज भारत और पाकिस्तान के बीच जो तनातनी है वह किसी से छिपी नहीं, फिर भी कांग्रेस के कुछ नेता उसके खिलाफ नहीं, बल्कि ऐसे बयान देते रहते हैैं जो भारत सरकार के विरुद्ध जाते हैं। जाहिर तौर पर पाकिस्तान इन बयानों को अपने पक्ष में इस्तेमाल करता है। नेहरू के जमाने में भी कांग्रेस अपना वोट बैंक थे, लेकिन चीनी हमले के समय नेहरू ने वोट बैंक की परवाह नहीं की। चीनी हमले से उत्पन्न विषम स्थिति में देश को बचाने के लिए उन्होंने उन देसी-विदेशी शक्तियों से भी मदद ली जिन्हें वह हिकारत भरी नजरों से देखते थे और जिनसे उनके राजनीतिक-सैद्धांतिक मतभेद थे। लगता है आज के कांग्रेसी नेता यह सब भूल चुके हैैं।

चीनी हमले के समय नेहरू ने इजरायल से भी हथियार मंगवाए थे

चीनी हमले के समय नेहरू ने इजरायल से भी हथियार मंगवाए। ध्यान रहे तब तक भारत ने इजरायल को मान्यता नहीं दी थी। हथियार मंगवाने के क्रम में नेहरू ने अरब देशों से अपनी दोस्ती की भी परवाह नहीं की। उन्होंने इजरायल को लिखा था कि आप ऐसे हथियार भेजें जिन पर आपके देश का ध्वज न हो। इजरायल जब इस पर राजी नहीं हुआ तो नेहरू ने ध्वज सहित जहाजों की अनुमति दी। कुछ कम्युनिस्टों को छोड़ तब प्रतिपक्ष ने आरोप नहीं लगाया कि नेहरू विदेश नीति से समझौता कर रहे हैैं, लेकिन आज जब मोदी सरकार अपनी सीमाओं की रक्षा और कश्मीर में आतंकियों के मुकाबले के लिए कुछ करती है तो प्रतिपक्ष उस पर युद्धोन्माद का आरोप लगाता है। क्या देश पर प्रत्यक्ष-परोक्ष हमले का विरोध करना युद्धोन्माद है?

नेहरू के लिए देश पहले था

नेहरू ने चीन के हमले के बाद न सिर्फ अमेरिका से संबंध सुधारे थे, बल्कि संघ के स्वयंसेवकों को गणतंत्र दिवस परेड में शामिल होने का मौका भी दिया था। साफ है कि उनके लिए देश पहले था। संघ के शाहदरा मंडल के कार्यवाह विजय कुमार 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में गणवेशधारी सदस्यों के समूह में शामिल थे। कुछ साल पहले उन्होंने बताया था कि परेड से सिर्फ 24 घंटे पहले शासन से यह आमंत्रण आया कि हमें परेड में शामिल होना चाहिए। कम समय की सूचना पर भी तीन हजार स्वंयसेवक परेड में शामिल हुए। इससे पहले स्वयंसेवकों ने चीनी हमले के समय सीमा पर स्थित बंकरों में जाकर सैनिकों को खीर खिलाई थी। संभवत: इसकी खबर नेहरू को थी। चीनी हमले के दौरान नेहरू ने चीन और सोवियत संघ, दोनों से एक साथ झटके खाए थे।

नेहरू के साथ न सिर्फ चीन ने धोखा किया, बल्कि सोवियत संघ ने भी मित्रवत व्यवहार नहीं किया

माना जाता है कि यदि नेहरू कुद और साल जीवित रहते तो वह संभवत: विदेश नीति को ही बदल देते, क्योंकि राष्ट्र धर्म यही मांग कर रहा था। कुछ दस्तावेजों से यह साफ है कि नेहरू के साथ न सिर्फ चीन ने धोखा किया, बल्कि सोवियत संघ ने भी मित्रवत व्यवहार नहीं किया।

नेहरू ने अमेरिका की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया तब चीन ने हमला बंद किया था

इसे देखकर उन्होंने अपनी पुरानी लाइन के खिलाफ जाकर अमेरिका की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया। ज्ञात हो कि अमेरिका के भय से ही चीन ने हमला बंद किया था। यह आम धारणा सही नहीं कि 1962 में सोवियत संघ की नीति थी कि ‘दोस्त भारत’ और ‘भाई चीन’ के बीच युद्ध में हमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। लेखक एजी नूरानी का कहना है कि सोवियत संघ की सहमति के बाद ही चीन ने 1962 में भारत पर चढ़ाई की थी। इसकी पुष्टि में लेखक ने सोवियत अखबार ‘प्रावदा’ और चीनी अखबार ‘पीपुल्स डेली’ में 1962 में छपे संपादकीय लेखों को सबूत के रूप में पेश किया था। चूंकि खुद नेहरू भी वास्तविकता से वाकिफ हो चुके थे इसलिए उन्होंने अमेरिका के साथ अपने ठंडे रिश्ते भुलाकर राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी को मदद के लिए कई संदेश भेजे। इससे कुछ समय पहले नेहरू से अपनी एक मुलाकात के बारे में खुद कैनेडी ने कहा था, ‘नेहरू का व्यवहार काफी रूखा रहा।’

चीन के हमले के समय भारत की सैन्य तैयारी लचर थी

चीन ने अक्टूूबर 1962 में भारत पर हमला किया था। चूंकि तब हमारी सैन्य तैयारी लचर थी और हम ‘पंचशील’ के मोहजाल में फंसे थे इसलिए चीन भारी पड़ा। नेहरू का कैनेडी के नाम ‘त्राहिमाम संदेश’ इतना समर्पणकारी था कि अमेरिका में भारत के राजदूत बीके नेहरू कुछ क्षणों के लिए इस दुविधा में पड़ गए थे कि इस पत्र को व्हाइट हाउस तक पहुंचाएं या नहीं? आखिर में उन्होंने यह काम बेमन से किया। इस पत्र में अपनाया गया रुख नेहरू के अमेरिका के प्रति पहले के विचारों से विपरीत था। इससे लगा कि नेहरू अपनी विफल विदेश और घरेलू नीतियों को बदलने की भूमिका तैयार कर रहे थे।

चीनी हमले को लेकर भाकपा दो हिस्सों में बंट गई थी

चीनी हमले को लेकर भाकपा भी दो हिस्सों में बंट गई थी। एक गुट मानता था कि ‘विस्तारवादी भारत’ ने ही चीन पर चढ़ाई की। बाद में चीनपंथी गुट ने सीपीआई-एम बनाया। नेहरू ने 19 नवंबर, 1962 को अमेरिकी राष्ट्रपति को लिखा था, ‘हम न केवल लोकतंत्र की रक्षा, बल्कि देश के अस्तित्व की रक्षा के लिए भी चीन से हारता हुआ युद्ध लड़ रहे हैं। इसमें आपकी तत्काल सैन्य मदद की सख्त जरूरत है।’ उस दौरान नेहरू ने अमेरिका को एक ही दिन में दो-दो चिट्ठियां लिखीं। इन चिट्ठियों को पहले गुप्त रखा गया ताकि नेहरू की दयनीयता देश के सामने न आ पाए, पर चीनी हमले की 48 वीं वर्षगाठ पर एक अखबार ने उन्हें सार्वजनिक किया।

आजादी के बाद नेहरू के प्रभाव में भारत ने गुट निरपेक्षता की नीति अपनाई

आजादी के बाद नेहरू के प्रभाव में भारत ने गुट निरपेक्षता की नीति अपनाई, जबकि सरकार का झुकाव सोवियत लॉबी की ओर था। एक संवदेनशील प्रधानमंत्री, जो देश के तमाम लोगों का ‘हृदय सम्राट’ था, 1962 के धोखे के बाद भीतर से टूट गया। युद्ध के बाद नेहरू सिर्फ 18 माह ही जीवित रहे।

किसी भी दल के लिए राष्ट्रहित और सीमाओं की रक्षा का दायित्व सर्वोपरि होना चाहिए

चीन युद्ध में पराजय से हमें यही शिक्षा मिली कि किसी भी दल के लिए राष्ट्रहित और सीमाओं की रक्षा का दायित्व सर्वोपरि होना चाहिए। इस दायित्व का निर्वाह दुनिया के सब देश करते हैं, लेकिन अपने देश में उसे लेकर भी संकीर्ण राजनीति होती है। कांग्रेस को यह भी याद रखना चाहिए कि नेहरू समय-समय पर अपनी गलतियों को सार्वजनिक रूप से स्वीकार भी करते थे। वह कई बार सहकर्मियों की राय के सामने झुके। 1950 में राष्ट्रपति का नाम तय करने के समय नेहरू ने पहले तो राज गोपालाचारी को राष्ट्रपति बनाने की जिद की, पर जब देखा कि उनके नाम पर पार्टी में सहमति नहीं बन रही तो वह राजेंद्र प्रसाद के नाम पर राजी हो गए।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैैं )

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