कांग्रेस की एकतरफा हार, चुनाव परिणामों में मिले जनादेश से सबक सीखे विपक्ष

यह जरूरी है कि विपक्षी दल अपनी पृथक अस्मिता को खत्म करके एकजुट होकर एक नए युग की शुरूआत करें।

By Dhyanendra SinghEdited By: Publish:Sat, 25 May 2019 04:53 AM (IST) Updated:Sat, 25 May 2019 04:53 AM (IST)
कांग्रेस की एकतरफा हार, चुनाव परिणामों में मिले जनादेश से सबक सीखे विपक्ष
कांग्रेस की एकतरफा हार, चुनाव परिणामों में मिले जनादेश से सबक सीखे विपक्ष

मक्खन लाल। आमतौर पर लोकसभा चुनाव के नतीजों को आश्चर्यजनक बताया जा रहा है। नतीजों को ऐसा बताए जाने पर मैं आश्चर्यचकित हो रहा हूं, क्योंकि आखिर जो बात साधारण मतदाता को दिखाई दे रही थी वह बड़े-बड़े चुनावी पंडितों की दृष्टि से कैसे ओझल रही? चुनावों के दौरान जब यह कहा जाता था कि भाजपा पहले से बेहतर प्रदर्शन करेगी तो उस पर यकीन करने वाले कम ही होते थे। जो भी हो, आम चुनावों के नतीजे कुछ बड़े सवाल खड़े कर रहे हैं जिनकी ओर हमें ध्यान देना चाहिए।

2019 के आम चुनाव को यदि हम 2014 के चुनाव के साथ जोड़ कर देखें तो हमें पता चलेगा कि कैसे इन दोनों चुनावों ने भारतीय चुनाव पटल पर स्थापित कई मान्यताओं को धराशायी कर दिया। कांग्रेस मात्र 52 सीटें पाकर एक बार फिर मुख्य विपक्षी दल के पद से वंचित रही, बल्कि 17 प्रदेशों एवं केंद्र शासित क्षेत्रों में खाता भी नहीं खोल सकी। नौ प्रदेशों जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, झारखंड, महाराष्ट्र आदि में तो कांग्रेस को मात्र एक-एक सीट से संतोष करना पड़ा।

कांग्रेस के अतिरिक्त जब हम तथाकथित महागठबंधनों की तरफ देखते हैं तब स्थिति और भी दयनीय दिखती है। जहां समाजवादी पार्टी में मुलायम परिवार के भी सभी सदस्य नहीं जीत सके वहीं वहीं लालू यादव के दल को एक भी सीट नहीं मिली। हारने वालों की लिस्ट में लोकसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे के साथ वीरप्पा मोइली, सुशील कुमार शिंदे, भूपेंद्र सिंह हुड्डा, शीला दीक्षित आदि के नाम जुड़े। इनमें ज्यादातर मुख्यमंत्री रह चुके हैं।

कई मायनों में यह चुनाव बहुत अनोखा रहा। पहली बार सेकुलरिज्म और कम्युनलिज्म मुद्दा नहीं बन सके। जाति और परिवारवाद की राजनीति भी मुंह के बल गिरी। क्षेत्रवाद का कोई नामलेवा नहीं रहा। हमें याद रहना चाहिए कि ये सब पिछले चुनावों के मुद्दे थे, लेकिन अब बदलते समय में इन सभी मुद्दों की जगह देश और लोगों की प्रगति, राष्ट्रवाद और विश्वपटल पर हमारी हैसियत आदि ने ले ली है। लगता नहीं कि आने वाले समय में हम चुनावों के पुराने मुद्दों और नारों पर वापस लौट सकेंगे। एक तरह से यह भारत की चुनावी राजनीति के लिए नया परिदृश्य है। ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि राजनीतिक दलों के साथ वे सभी जो प्रजातंत्र में भरोसा रखते हैं, अपनी रीति-नीति बदलने के लिए तैयार रहें।

स्वस्थ एवं स्थिर प्रजातंत्र के लिए न केवल एक मजबूत और देशहित में कठोर निर्णय ले सकने वाली सरकार चाहिए, बल्कि एक मजबूत विपक्ष भी चाहिए जो सरकार के अच्छे कामों में तो उसका समर्थन करे, लेकिन गलती की ओर बढ़ रहे कदमों को रोके भी। किसी भी प्रजातंत्र के लिए यह सुखद स्थिति नहीं कि नेता विपक्ष का पद इसलिए खाली रहे कि कोई विपक्षी दल संसद की कुल संख्या का दस प्रतिशत सीट नहीं जीत सका। पिछली लोकसभा में कांग्रेस के पास 44 सदस्य थे तो इस बार भी वह इतनी सीटें नहीं जीत सकी कि नेता विपक्ष का पद हासिल कर सके।

अगर हम दलगत परिणामों को देखें तो राजग में छह ऐसे दल हैं जिन्हें मात्र एक-एक सीट ही मिली है और 11 का तो खाता ही नहीं खुला। कमोबेश यही स्थिति संप्रग की भी है। अन्य में जहां चार दलों को एक-एक सीट मिली है वहीं 627 दलों का खाता भी नहीं खुला। यह विचारणीय है कि देश में कुल 648 पार्टियां ऐसी हैं जिनका खाता भी नहीं खुला। अगर हमें भारतीय प्रजातंत्र को स्वस्थ और मजबूत रखना है तो समय आ गया है कि हम कुछ बड़े और कठोर कदम उठाएं। कोई तो नियम-कानून ऐसा बनना चाहिए जिससे बेकार के राजनितिक दलों से मुक्ति मिल सके। आज जब जाति, पंथ, क्षेत्र, भाषा और परिवार की राजनीति हाशिये पर जा रही है तो राजनीतिक दलों को स्वस्थ प्रजातंत्र देने के लिए निजी स्वार्थों से ऊपर उठना चाहिए।

गांधी जी कहा करते थे कि बड़े और शुभ काम की शुरुआत बड़ों को करनी चाहिए। समय आ गया है कि कांग्रेस 30 जनवरी 1948 को कार्यसमिति में रखे गए प्रस्ताव पर विचार करे। इस प्रस्ताव में गांधी जी ने कहा था कि कांग्रेस अपने आप को राजनीतिक पार्टी के स्थान पर एक सामाजिक आंदोलन के रूप में स्थापित करे। उनका आग्रह था कि अब इसका नाम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस न होकर लोक सेवक संघ होना चाहिए। कांग्रेस को यह समझना पड़ेगा कि आज के राजनितिक परिदृश्य में उसकी प्रासंगिकता की लगभग खत्म होती जा रही है। शीर्ष पदों पर नेहरू-गांधी परिवार का अधिकार कांग्रेस के ऊपर एक बोझ बनकर रह गया है।

यदि कांग्रेस अपने आपको गांधी जी का अनुसरण करने में असमर्थ पाती है तो भी एक दूसरा रास्ता यह है कि वह अपने को नेहरू-गांधी परिवार से अलग करे ताकि पार्टी मुक्त हवा में सांस ले सके और बदली हुई परिस्थितियों के अनुरूप ढल सके। कांग्रेस में नेहरू-गांधी परिवार से इतर ऐसे सक्षम लोग हैं जो पार्टी को नई दिशा, गति और नया कलेवर दे सकते हैं। कांग्रेस को इंग्लैंड की परंपरा से सीखना चाहिए। वहां पर कोई भी नेता जब अपने दल को आगे ले जाने में अक्षम होता है तो वह खुद ही पार्टी छोड़ कर अलग हट जाता है।

अब जब वंशवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद आदि के सहारे चलने वाले दल हाशिये पर धकेले जा रहे हैं तब ऐसी सभी पार्टियों को संचालित करने वालों को भी भविष्य के बारे में शांत मन से सोचना चाहिए। कभी शून्य तो कभी दो-चार सीटें पाकर उन्हें तो संतोष हो सकता है, लेकिन इससे न तो प्रजातंत्र को कोई फायदा होगा न ही लोगों को। ममता बनर्जी को यह सोचना पड़ेगा कि उनके द्वारा शासित पश्चिम बंगाल सबका है, न कि उनकी व्यक्तिगत जागीर। वंशवाद, जातिवाद और क्षेत्रवाद की राजनीति करने वालों को चाहिए कि वे सब एकजुट होकर अपने आप को एक राष्ट्रीय दल के रूप में विकसित करें।

जब तक वे ऐसा नहीं करेंगे तब तक न केवल गलतफहमी के शिकार रहेंगे, बल्कि आत्ममुग्ध भी। चंद्रबाबू नायडू इसके सटीक उदाहरण हैं। पिछले छह महीनों में विपक्ष का कोई ऐसा नेता नहीं बचा जिससे वह न मिले हों। उनकी कवायद यही बता रही थी कि वह मोदी के खिलाफ संयुक्त विपक्षी नेता के रूप में उभरने की कोशिश कर रहे हैं। लोकसभा चुनावों के जरिये राष्ट्रीय फलक पर उभरने की बात तो दूर रही, विधानसभा चुनावों में भी उन्हें बुरी पराजय का सामना करना पड़ा। मायावती, अखिलेश यादव और ममता के प्रधानमंत्री बनने के सपने भी इसी तरह ध्वस्त हो गए। एक अच्छे और स्वस्थ प्रजातंत्र के लिए यह आवश्यक है कि विपक्षी दल अपनी छोटी-छोटी दुकानों को बंद कर एकजुट होकर अपनी पृथक आस्मिता को खत्म कर एक नए युग की शुरुआत करें।

   
(लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ हेरिटेज रिसर्च एंड मैनेजमेंट, दिल्ली के संस्थापक हैं)

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