आम अफगानियों पर जुल्म ढाते तालिबान से संघ की तुलना किसी अपराध से कम नहीं

आप संघ की हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना और हिंदू को धर्म की जगह जीवन-पद्धति मानने के तर्क को खारिज कर सकते हैं लेकिन अफगानियों और महिलाओं पर जुल्म ढाते आतंकियों की पौध लगाते तालिबानी से नहीं। यह अपराध भी है और एक तरह की मूर्खता भी।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Thu, 09 Sep 2021 08:54 AM (IST) Updated:Thu, 09 Sep 2021 08:58 AM (IST)
आम अफगानियों पर जुल्म ढाते तालिबान से संघ की तुलना किसी अपराध से कम नहीं
दुनिया में जब तक एक धर्म विशेष का शासन नहीं होगा, तब तक जंग जारी रहेगी?

एनके सिंह। भावना प्रधान समाज में तर्कशक्ति क्षीण होती है। भारत भी एक भावना प्रधान देश है। लिहाजा यहां आम जीवन की बात हो, बौद्धिक धरातल पर चर्चा हो या सत्ता के लिए चुनाव करना हो, कुछ देर बाद तर्क की जगह भावनाएं ले लेती हैं। इसका बिगड़ा रूप होता है कुतर्क, जिसमें भावना की प्रधानता तर्क के हर पैमाने को दरकिनार करती हुई अपने को सही साबित करने की कोशिश करती है। हम मानें या न मानें, पाकिस्तानी सेना की खुलेआम मदद से तालिबान के अफगानिस्तान पर दोबारा काबिज होने के बाद दुनिया के छोटे-बड़े देशों का कूटनीति की भाषा में ‘देखो और प्रतीक्षा करो’ का भाव सभ्यता से जीने की शर्तो के मुंह पर तमाचा है। कैसे कोई सभ्य समाज इंतजार करेगा, जबकि तालिबान स्कूल-कालेजों में पढ़ने वाली या बाहर निकलने वाली महिलाओं पर गोलियां चला रहा हो।

मलाला यूसुफजई को भी तो तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान द्वारा पाकिस्तान के स्वात इलाके में इसी पढ़ाई की सजा दी गई थी। आज नौ साल बाद भी फिर उसके पड़ोसी देश में औरतें वहीं खड़ी हैं तो फिर मलाला को नोबेल पुरस्कार देने का मकसद क्या था? जब यह पुरस्कार देते हैं तो इसका मतलब होता है कि दुनिया ने स्त्री शिक्षा की अपरिहार्यता का सम्मान किया है और एक अलिखित वादा किया है कि जब भी जरूरत होगी तो पूरी दुनिया शिक्षा के मुद्दे पर इन महिलाओं के साथ और तालिबानी सोच के खिलाफ खड़ी होगी। ऐसे में वे लोग, जिनकी देश में लोकप्रियता उनके फन और उनकी बौद्धिक क्षमता के कारण हो, जब तर्क का साथ छोड़कर एक खास ढंग की जहालत का प्रदर्शन करते हैं तो तकलीफ होती है। तब लगता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का यह बेजा इस्तेमाल है। क्या तालिबानी शासन में भी यही सबकुछ बोलकर लोग चैन से रह सकते हैं?

जावेद अख्तर जैसे अदबी या फिल्मी दुनिया के कोई मकबूल शायर हों या कोई चुका हुआ सियासतदां या फिर ऐसी सोच वाले कुछ अन्य लोग जब तालिबान की तुलना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से करते हैं तो लगता है कि उनकी बुद्धि पर घृणा हावी हो गई है। शायद यह उनका स्थायी भाव है, जो बौद्धिकता की आड़ में ढका-मुंदा रहा, लेकिन जो गाहे-बगाहे उभर ही आता है। आखिर कौन से मानक पर इन्हें संघ तालिबान के समतुल्य लगता है? क्या संघ के गणवेश का दंड इन्हें एके-47 लगता है? क्या तालिबान जैसी आतंकी हिंसा की नीति की वकालत संघ भी करता दिखता है? क्या संघ सरस्वती शिशु मंदिर सरीखे अपने शिक्षण संस्थानों में तालिबानी मदरसों की तरह अबोध बच्चों को आत्मघाती हमलावर बनाता है? क्या संघ अन्य मुल्कों में आतंकी भेजता है? क्या वह अन्य मुल्कों की सेना, आम नागरिकों और लक्षित धार्मिक दुश्मनों के खिलाफ छद्म युद्ध करता है? क्या संघ ने भी धर्म की अपनी अलग व्याख्या कर महिलाओं की पढ़ाई पर पाबंदी लगाई है और उसके उल्लंघन पर किसी मलाला यूसुफजई पर गोली चलवाता है? क्या संघ ने भी बगदादी की तरह कहा है कि दुनिया में जब तक एक धर्म विशेष का शासन नहीं होगा, तब तक जंग जारी रहेगी?

तर्कशास्त्र में संदर्भ का बड़ा महत्व होता है। हम आम खाने के फायदे-नुकसान की बहस में यह तर्क नहीं दे सकते कि अमुक का कुत्ता अमुक के घर के बाहर भौंका, लिहाजा आम खाना सही या गलत है। मुद्दा था अफगानिस्तान में तालिबानी हुकूमत का, जो प्रजातांत्रिक तरीके से नहीं, बल्कि बंदूक की नोक पर बनाई गई। अगर कोई अपने को सभ्य कहने वाला व्यक्ति, संस्था या संगठन महिलाओं की शिक्षा पर पाबंदी लगता है, उन्हें पुरुषों जैसा हक नहीं देता, उन्हें गुलाम जैसा जीवन जीने पर मजबूर करता है, इलाका जीतने पर महिलाओं को लड़ाई का पुरस्कार समझ भोगने की वस्तु समझता है और लोगों को अपने अनुरूप जीने को मजबूर करता है तो कह सकते हैं कि उसने धर्म को सही नहीं समझा।

दुनिया के पास अफगानिस्तान में 20 साल पहले के तालिबानी शासन का इतिहास है। अब जब वह बंदूक के बूते धर्म की अपनी परिभाषा के अनुरूप समाज को उसकी मर्जी के बगैर चलाएगा तो वह दुनिया को स्वीकार्य नहीं होना चाहिए। किसी भी व्यक्ति की किसी संस्था या दूसरे व्यक्ति की नीति या कृतित्व के प्रति दुराग्रह की मात्र कितनी हो, यह उस व्यक्ति या संस्था की पूर्व एवं वर्तमान स्थिति देखकर तय होती है। अगर उसकी तुलना किसी अन्य व्यक्ति या संस्था से करनी हो तो संवाद का संदर्भ देखना होगा। ऐसा कुतर्क जब जावेद अख्तर जैसे लोग अपने डरावने पूर्वाग्रह के तहत करते हैं तो क्षोभ होता है।

संघ की आलोचना एक खास किस्म के राष्ट्रवाद के लिए की जा सकती है, लेकिन यह भी सच है कि उसकी विचारधारा मानवतावाद की मूल अवधारणा से कहीं भी द्वंद्व नहीं करती। नाथूराम के कुकृत्य हों या किसी अखलाक अथवा पहलू खान को मारे जाने का मामला, संघ भी हिंदुत्व के ऐसे आक्रामक स्वरूप की निंदा करता है। इसे संघ के नेतृत्व ने विचारधारा का अवांछित भ्रष्ट पक्ष माना है। इससे अलग आपदस्थिति में जीवनोत्सर्ग करने की हद तक मानव सेवा का संघ का भाव कोरोना काल में सबने देखा है। देशव्यापी शिक्षा का नेटवर्क, वनवासी सेवाश्रम, स्वास्थ्य सेवा के हजारों प्रकल्प भी लोगों ने देखे हैं। उनके प्रांगण हथियार और गोला बारूद रखने या गरीब बच्चों को फिदायीन बनाने के लिए नहीं होते। अफसोस है कि इस मूर्खता का प्रदर्शन करने वाले बढ़ रहे हैं।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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