विमर्श से बाहर होता आम आदमी: गरीब की गरीबी ही सबसे बड़ी समस्या, साधनहीनता भी स्त्री-पुरुषों में बंट गई

कोरोना काल में जिन लाखों को हमने अपने-अपने घरों की तरफ दौड़ते देखा परेशान और बेहाल देखा उनमें स्त्री-पुरुष दोनों थे मगर वे गरीब और साधनहीन ही थे जो विपत्ति से बचने के लिए अपने घर गांव की ओर भाग रहे थे।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Sat, 17 Jul 2021 04:28 AM (IST) Updated:Sat, 17 Jul 2021 04:28 AM (IST)
विमर्श से बाहर होता आम आदमी: गरीब की गरीबी ही सबसे बड़ी समस्या, साधनहीनता भी स्त्री-पुरुषों में बंट गई
गरीब और साधनहीन पुरुष किसी विमर्श का हिस्सा नहीं

[ क्षमा शर्मा ]: हवा में चुनावों की चर्चा है। उत्तर प्रदेश, पंजाब, गोवा, उत्तराखंड और मणिपुर। इसके बाद कुछ और राज्यों के चुनाव। जैसे ही चुनाव आते हैं, विभिन्न जातियों, धर्मों और उनसे जुड़े दल अपने-अपने घोषणापत्र लेकर हाजिर हो जाते हैं। नए समीकरण बनने लगते हैं। आज तक जो विरोधी था, वह दोस्त हो जाता है और दोस्त पानी पी-पीकर कोसने लगता है। यही हाल दूसरे समूहों का होता है। कोई महिलाओं के नाम पर, कोई ट्रांसजेंडर तो कोई पर्यावरण के नाम पर अपनी-अपनी मांगें उठाने लगता है। पिछले कुछ दशकों में जैसे-जैसे महिलाओं की शिक्षा बढ़ी है और वे वोट का गुणा-भाग करने लगी हैं, वैसे-वैसे हर दल उनका हितैषी दिखने की कोशिश करने लगे हैं। अपने-अपने दलों के घोषणा पत्रों में उन्हें विशेष जगह दी जाने लगी है। आधी आबादी की निर्णयकारी क्षमता से दल घबराने लगे हैं। वे उन्हें अपनी तरफ खींचने का प्रयास करते दिखते हैं, लेकिन जब एक वर्ग, समूह को आप अपनी तरफ खींचते हैं तो अक्सर दूसरे समूह पीछे रह जाते हैं और वे अपने को उपेक्षित महसूस करते हैं, क्योंकि विमर्श से, बहसों से उन्हें बाहर कर दिया जाता है। समझा यह जाता है कि ये समूह कहां जाएंगे। हमें ही वोट देंगे, लेकिन यह सच नहीं है।

गरीब और साधनहीन पुरुष किसी विमर्श का हिस्सा नहीं

जब सरकारें किसी एक तरफ ध्यान देती हैं तो दूसरी तरफ इसकी प्रतिक्रिया होती दिखाई देती है। हो सकता है कि शुरुआती दौर में ये प्रतिक्रियाएं धीमी हों और उनकी आवाजों को नजरअंदाज कर दिया जाए, लेकिन चुनावी गणित में हाशिये की ये आवाजें अपने करतब दिखा देती हैं। आप सोचेंगे कि आखिर इन दिनों कौन सी वे आवाजें हैं, जिन्हें हाशिये की आवाजें कहा जा रहा है। ये आवाजें हैं-पुरुषों की। बहुत से लोग यह पढ़कर नाक-भौं सिकोड़ सकते हैं। इस लेखिका को स्त्री विरोधी होने का तमगा भी दे सकते हैं, लेकिन डरकर सच बात कहने से अगर रुक जाएं तो फिर लिखना, सोचना, समझना सब व्यर्थ है। कितने दशक हुए जबसे आपने यह सुना कि सरकार गरीब पुरुषों के लिए भी कोई योजना बना रही है? उनकी पढ़ाई, लिखाई, रोजगार, चिकित्सा की व्यवस्था कर रही है? कह सकते हैं कि आखिर पुरुषों को इस तरह की योजनाओं की क्या जरूरत? वे तो पहले ही हर निर्णयकारी जगह पर बैठे हैं यानी यह मान लें कि पुरुष न तो गरीब होते हैं, न साधनहीन, न उन्हें अपने परिवार की चिंता होती है, न ही वे बेरोजगार होते हैं और न ही उनके मानसिक स्वास्थ्य की समस्या होती है। परिदृश्य में हम देखते हैं कि पुरुषों की छवि इन दिनों किसी ऐसे खलनायक की बना दी गई है, जिसके जीवन में कोई दुख ही नहीं। जिस किसान-मजदूर की चिंता में हम दुबले हुए जाते हैं, जिन सामाजिक कार्यकर्ताओं की चिंता में हाहाकार करते हैं, क्या वे पुरुष नहीं हैं? इस पर गौर करें कि गरीब और साधनहीन पुरुष किसी विमर्श का हिस्सा नहीं हैं। वे मात्र पिटने और नफरत करने लायक हैं। सारे पुरुष या मर्द होते ही ऐसे हैं का मुहावरा इस कदर चल पड़ा है कि हमें वर्गों की खाई दिखाई देना बंद हो गई है। वे तो पैदा ही इसलिए होते हैं कि दूसरों को सता सकें, लेकिन क्या बिल गेट्स और उनका ड्राइवर पुरुष होते हुए भी एक जैसे होंगे। किसी दफ्तर का सबसे बड़ा अधिकारी और चाय-पानी पिलाने वाले लड़के की समस्याएं एक तरह की हो सकती हैं।

किसी की तुलना दूसरे से नहीं की जा सकती

दरअसल इस धरती पर जितने भी लोग रहते हैं, उनकी समस्याएं कैसी हैं, कितनी तरह की हैं, वे ही बता सकते हैं। किसी की तुलना दूसरे से नहीं की जा सकती, लेकिन पिछले पांच दशक से अधिक समय में अपने देश में पुरुषों की छवि ऐसी बना दी गई है, मानो बस वे ही हैं, जिनके कारण यह धरती नर्क बनी हुई है। वे न होते, तो सब ठीक होता। जबकि हमें मालूम है कि इस धरती को हर तरह से जिन्होंने दुहा है, जिनका भगवान ही उनका मुनाफा है, वे इस तरह की बातों और सोच से साफ बच जाते हैं। असली खलनायकों को अक्सर भुला दिया जाता है।

क्या हम दूसरों के हिसाब से बदल सकते हैं

कई दशक पहले मेरे यहां गैस का सिलेंडर देने एक युवा आता था। एमए-एमएड था, मगर कहीं नौकरी नहीं मिली। उसकी सबसे बड़ी समस्या ढंग के रोजगार की थी, क्योंकि वह घर में अकेला कमाने वाला था। उसका कहना था कि उस जैसे लोगों की कोई नहीं सुनता, क्योंकि वह गरीब है। सारे पुरुषों को खदेड़कर हम क्या करना चाहते हैं? ध्यान रहे कि जिन समाजों में स्त्रियां खुद मुख्तार हैं, वहां भी सारी समस्याएं हल नहीं हो गई हैं। लोग कहते हैं कि पुरुषों की आलोचना का मतलब उनके बदलने से है। सवाल यह है कि जब हम अपने अनुसार दूसरे के बदलाव की मांग करते हैं तो क्या कभी यह सोचते हैं कि क्या हम दूसरों के हिसाब से वैसे ही बदल सकते हैं, जैसी मांग दूसरों से कर रहे हैं?

देश में गरीबी और साधनहीनता भी स्त्री-पुरुषों में बांट दी गई

अपने देश में साधारण आदमी तरह-तरह की मुश्किलों से परेशान है, मगर खांचों का बंटवारा इन दिनों ऐसा कर दिया गया है कि गरीबी और साधनहीनता भी स्त्री-पुरुषों में बांट दी गई है। कोरोना काल में जिन लाखों को हमने अपने-अपने घरों की तरफ दौड़ते देखा, परेशान और बेहाल देखा उनमें स्त्री-पुरुष दोनों थे, मगर वे गरीब और साधनहीन ही थे, जो विपत्ति से बचने के लिए अपने घर, गांव की ओर भाग रहे थे। सच तो यह है कि गरीब की कोई जाति, धर्म, लिंग नहीं होता। गरीबी ही उसकी सबसे बड़ी समस्या होती है। अगर गरीबी न हो, तो बाकी की समस्याएं भी हल हो जाएं।

( लेखिका साहित्यकार हैं )

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