सुधार मांगती सिविल सेवा परीक्षा: भारतीय भाषाओं में परीक्षा देने वाले मात्र तीन फीसद अभ्यर्थी सफल

कोरोना काल में एक मजबूत ईमानदार नौकरशाही की जरूरत और महसूस की गई है। यही जरूरत आत्मनिर्भर भारत बनाने के लिए कारगर सिद्ध होगी।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Mon, 10 Aug 2020 12:35 AM (IST) Updated:Mon, 10 Aug 2020 12:35 AM (IST)
सुधार मांगती सिविल सेवा परीक्षा: भारतीय भाषाओं में परीक्षा देने वाले मात्र तीन फीसद अभ्यर्थी सफल
सुधार मांगती सिविल सेवा परीक्षा: भारतीय भाषाओं में परीक्षा देने वाले मात्र तीन फीसद अभ्यर्थी सफल

[ प्रेमपाल शर्मा ]: राष्ट्रीय शिक्षा नीति सामने आने के चंद दिनों बाद ही भारतीय नौकरशाही की सर्वोच्च सेवाओं में भर्ती के लिए संघ लोक सेवा आयोग यानी यूपीएससी द्वारा आयोजित सिविल सेवा परीक्षा के परिणाम भी आ गए। हमारे नीति नियंताओं को इस परिणाम के आईने में पूरी परीक्षा प्रणाली और विशेष रूप से शिक्षा और भाषा की हकीकत को देखना चाहिए।

सिविल सेवा परीक्षा में 97 फीसदी उम्मीदवार अंग्रेजी माध्यम से सफल हुए

सिविल सेवा परीक्षा में सफल कुल 829 उम्मीदवारों में सभी भारतीय भाषाओं के उम्मीदवार तीन प्रतिशत से भी कम हैं यानी 97 प्रतिशत उस अंग्रेजी माध्यम से सफल हुए जिसे ठीक से बोलने वालों की संख्या 1-2 प्रतिशत है। यह बात और है कि अंग्रेजी के जो स्कूल महानगरों और शहरों तक ही सीमित थे वे अब गांव-गांव फैल रहे हैं।

नई शिक्षा नीति में पांचवीं तक की पढ़ाई मातृभाषा में

नई शिक्षा नीति में पांचवीं तक की पढ़ाई मातृभाषा में और संभव हुआ तो आठवीं और उससे आगे भी भारतीय भाषाओं में कराने की बात की गई है।

भारतीय भाषाओं में परीक्षा देने वाले 3-4 फीसदी अभ्यर्थी सफल हो रहे हैं

देखना यह होगा कि आने वाले वर्षों में संघ लोक सेवा आयोग का बैरोमीटर क्या बताता है और सरकार भारतीय भाषाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए क्या ठोस कदम उठाती है? कोठारी समिति की सिफारिश पर 1979 से भारतीय भाषाओं में परीक्षा देने की छूट दी गई थी। शुरू के दो दशक तक तो भारतीय भाषाओं के लगभग 15 प्रतिशत अभ्यर्थी चुने जाते रहे, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में बहुत निराशाजनक स्थिति है। भारतीय भाषाओं में परीक्षा देने वाले मुश्किल से 3-4 प्रतिशत अभ्यर्थी ही सफल हो पा रहे हैं। यह स्थिति किसी गंभीर समस्या की तरफ इशारा करती है। इसे दूर किया जाना चाहिए, क्योंकि अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ना कोई शुभ संकेत नहीं।

सिविल सेवा परीक्षा में इस बार हरियाणा के प्रदीप सिंह को सर्वोच्च स्थान मिला

सिविल सेवा परीक्षा में इस बार हरियाणा के प्रदीप सिंह को सर्वोच्च स्थान पाने का सौभाग्य मिला। ग्रामीण पृष्ठभूमि से आने के कारण उनकी यह उपलब्धि और भी बड़ी हो जाती है। इससे पता चलता है कि प्रतिभा के केंद्र केवल आइआइटी, आइआइएम या जेएनयू में ही नहीं है, लेकिन ‘स्टील फ्रेम’ कही जाने वाली नौकरशाही की चयन प्रणाली पर जो सवाल बार-बार उठ रहे हैं उनका समाधान किया जाना चाहिए।

सिविल सेवा परीक्षा में प्रवेश की उम्र 21 वर्ष और अधिकतम 37 वर्ष है

सिविल सेवा परीक्षा में प्रवेश की उम्र 21 वर्ष और अधिकतम 37 वर्ष है। ब्रिटिश विरासत की आइसीएस से लेकर आजाद भारत में आइएएस का चयन करने वाली परीक्षा का उद्देश्य यही रहा है कि नौजवानों को कम उम्र में भर्ती किया जाए।

ब्रिटिश काल में अधिकतम आयु 21 वर्ष थी

ब्रिटिश काल में अधिकतम आयु 21 वर्ष थी जिसे आजाद भारत में बढ़ाते-बढ़ाते अब 37 वर्ष कर दिया गया। जिस नौकरशाही में 30 वर्ष की औसत आयु की भर्तियां हो रही हों उसकी क्षमता पर संदेह स्वाभाविक है। रिटायरमेंट की उम्र 60 वर्ष स्थिर मान लें तो भी इस साल का 29 वर्षीय टॉपर सरकार में सचिव या किसी अन्य उच्चतम पद तक शायद ही पहुंच पाए।

प्रदीप सिंह पहले दो प्रयासों में प्रारंभिक परीक्षा में ही असफल रहे थे

इस पर भी ध्यान दें कि प्रदीप सिंह पहले दो प्रयासों में प्रारंभिक परीक्षा में ही असफल रहे थे। यहां असफलता पर प्रश्न नहीं किया जा रहा, लेकिन हमारी परीक्षा प्रणाली में विशेषकर पिछले एक दशक में कुछ ऐसे संशोधन हुए हैं जिनसे परीक्षा प्रणाली शंका के घेरे में आ गई है।

सिविल सेवा परीक्षा प्रणाली में सुधार की जरूरत

कोई मेधावी छात्र जिसमें इस परीक्षा को टॉप करने की क्षमता मौजूद है वह प्रारंभिक परीक्षा पास न कर पाए, इस पर यकीन नहीं होता। इसका मतलब है कि इस परीक्षा प्रणाली में सुधार की जरूरत है। संघ लोक सेवा आयोग खुद ही इस निष्कर्ष पर आसानी से पहुंच सकता है कि प्रारंभिक परीक्षा में किए गए हाल के बदलाव ठीक नहीं हैं। यदि मुख्य परीक्षा में एक वैकल्पिक विषय की अनिवार्यता है तो कोठारी समिति की अनुशंसाओं के अनुरूप उसका कुछ अंश प्रारंभिक परीक्षाओं में भी शामिल होना चाहिए, वरना प्रारंभिक परीक्षा एक लॉटरी की तरह बन जाएगी।

संघ लोक सेवा आयोग हर दस साल बाद पूरी परीक्षा प्रणाली की समीक्षा करता है

संघ लोक सेवा आयोग की यह विशेषता है कि वह हर दस साल बाद पूरी परीक्षा प्रणाली की समीक्षा करता है। 1979 में बदलाव के साथ शुरू हुई परीक्षा प्रणाली की समीक्षा 1988 में सतीश चंद्र कमेटी ने की और उसके 10 वर्ष बाद 2000 में वाईपी अलघ कमेटी ने। इसके बाद होता कमेटी, निगवेकर कमेटी और खन्ना कमेटी ने भी छुटपुट सुझाव दिए। 2014 में अंग्रेजी अनुवाद की समस्या के खिलाफ देशभर के लाखों छात्र सड़कों पर उतरे। इसके चलते परीक्षा भी स्थगित करनी पड़ी थी, लेकिन कमियों को अभी भी दूर नहीं किया जा सका है। अनुवाद इतना क्लिष्ट होता है कि छात्रों को अंग्रेजी की शरण लेनी पड़ती है।

यूपीएससी के लिए भी एक आयोग गठित हो सिफारिशें राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुरूप हों

इस वर्ष की परीक्षा के लिए 900 रिक्तियों की घोषणा की गई थी, लेकिन परिणाम सिर्फ 829 ही घोषित किए गए। किसी भी आकस्मिकता को ध्यान में रखते हुए सफल उम्मीदवारों की संख्या तो और ज्यादा होनी चाहिए थी। सरकार के पास एक और वाजिब सुझाव वर्षों से लटका पड़ा है कि देश के प्रतिष्ठित सरकारी उपक्रमों के लिए भी इन्हीं परिणामों की प्रतीक्षा सूची से भर्ती की जाए। ऐसा करने में कोई हर्ज नहीं है। संघ लोक सेवा आयोग और सरकार सभी को पता है कि लाखों उम्मीदवार अपनी तैयारी के लिए वर्षों तक किन आर्थिक, सामाजिक यंत्रणा से गुजरते हैं। वक्त का तकाजा है कि शिक्षा आयोग की तरह यूपीएससी और स्टाफ सलेक्शन कमीशन आदि के लिए भी एक आयोग गठित हो और उसकी सिफारिशें राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुरूप हों।

कोरोना काल में एक मजबूत, ईमानदार नौकरशाही की जरूरत

जंग खाई नौकरशाही में सुधारों को और स्थगित नहीं किया जा सकता। विभिन्न प्रशासनिक आयोग उम्र, भर्ती, प्रशिक्षण और सेवाकाल में अभ्यर्थियों की क्षमता को बढ़ाने के लिए कई सिफारिशें दे चुके हैं। उन पर अमल किया जाना चाहिए। कोरोना काल में एक मजबूत, ईमानदार नौकरशाही की जरूरत और महसूस की गई है। यही जरूरत आत्मनिर्भर भारत बनाने के लिए कारगर सिद्ध होगी। शिक्षा और नौकरी, दोनों में सरकार की प्राथमिकता प्रतिबिंबित होनी चाहिए।

( लेखक पूर्व प्रशासक एवं शिक्षाविद हैं )

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