सामाजिक स्वरूप बिगाड़ने का प्रयास, ईसाई मिशनरी और मतांतरण विरोधी बिल

देश के अनेक राज्यों में ईसाई मिशनरियों के माध्यम से सेवा की आड़ में लोगों का मतांतरण दशकों से जारी है। सरकार ने इसकी गंभीरता को समझते हुए इसे रोकने की कवायद शुरू कर दिया है। आमजन को भी मिशनरियों के इस उद्देश्य को समझना चाहिए। फाइल

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Tue, 13 Apr 2021 09:44 AM (IST) Updated:Tue, 13 Apr 2021 09:45 AM (IST)
सामाजिक स्वरूप बिगाड़ने का प्रयास, ईसाई मिशनरी और मतांतरण विरोधी बिल
ईसाई मिशनरी संगठनों द्वारा हमारे सामाजिक तानेबाने को बदलने की कवायद को समय रहते रोकना होगा

सुखदेव वशिष्ठ। आजादी के समय भारत आर्थिक रूप से संपन्न नहीं था और वित्तीय सहायता के लिए पाश्चात्य ईसाई देशों और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों पर निर्भर था, इसलिए मिशनरियों के आगे झुकना पड़ा। परिणामस्वरूप संविधान में अपने पंथ के प्रचार का अधिकार कुछ पाबंदियों के साथ दिया गया, लेकिन एक के बाद एक सरकारें मिशनरी लॉबी के सामने मजबूर होती गईं।

मतांतरण के लिए पैसे का इस्तेमाल तो आजादी से पहले से भी होता था, परंतु आजादी के बाद और भी बहुत तरह के प्रयोग किए जाने लगे। मिशनरियों ने अपने अनुभवों से पाया कि भारतीय धर्मो के लोग अपनी सांस्कृतिक मान्यताओं से भावनात्मक तौर पर इतने गहरे जुड़े हैं कि तमाम प्रयासों के बावजूद भारत में करोड़ों की संख्या में धर्म परिवर्तन संभव नहीं हो पा रहा है। इस कठिनाई से पार पाने के लिए नए हथकंडों का प्रयोग शुरू किया गया, जैसे मदर मैरी की गोद में ईसा मसीह की जगह गणोश या कृष्ण को चित्रंकित कर ईसाइयत का प्रचार शुरू किया गया, ताकि आदिवासियों को लगे कि वे तो हिंदू धर्म के ही किसी संप्रदाय की सभा में जा रहे हैं। ईसाई मिशनरियों को भगवा वस्त्र पहन हरिद्वार, ऋषिकेश से लेकर तिरुपति तक धर्म प्रचार करते देख सकते हैं। यही हाल पंजाब में है, जहां बड़े पैमाने पर सिखों को ईसाई बनाया जा रहा है। पंजाब में चर्च का दावा है कि प्रदेश में ईसाइयों की संख्या सात से दस प्रतिशत हो चुकी है।

आदिवासी समाज का मतांतरण : ईसाई मिशनरी विदेशी पैसे का इस्तेमाल करते हुए पिछले सात दशकों में उत्तर-पूर्व के आदिवासी समाज का बड़े पैमाने पर मतांतरण करा चुके हैं। यही मध्य भारत के आदिवासी क्षेत्रों में भी चल रहा है, जहां इन गतिविधियों का फायदा नक्सली भी उठाते हैं। विदेशी पैसे का मतांतरण के लिए इस्तेमाल देश की सुरक्षा और स्थिरता के लिए बड़ी चुनौतियों को जन्म दे रहा है। विकसित पाश्चात्य ईसाई देशों की सरकारें धर्माध कट्टरपंथी ईसाई मिशनरी तत्वों को धर्म परिवर्तन के नाम पर एशिया और अफ्रीका जैसे देशों को निर्यात करती रहती हैं। इससे दो फायदे होते हैं। एक तो इन कट्टरपंथी तत्वों का ध्यान गैर ईसाई देशों की तरफ लगा रहता है, जिससे वे अपनी सरकारों के लिए कम दिक्कतें पैदा करते हैं और दूसरे, जब भारत जैसे देशों में विदेशी चंदे से मतांतरण होता है, तो मतांतरित लोगों के जरिये विभिन्न प्रकार की सूचनाएं इकट्ठा करने और सरकारी नीतियों पर प्रभाव डालने में आसानी होती है।

उदाहरण के लिए रूस के सहयोग से स्थापित कुडनकुलम परमाणु संयंत्र से नाखुश कुछ विदेशी ताकतों ने इस प्रोजेक्ट को अटकाने के लिए इन्हीं मिशनरी संगठनों का इस्तेमाल कर धरने-प्रदर्शन करवाए। केंद्र में पिछली संप्रग सरकार में एक मंत्री ने यहां तक आरोप लगाया था कि कुछ विदेशी ताकतों ने इस परियोजना को बंद कराने के लिए धरने-प्रदर्शन कराने के लिए तमिलनाडु के एक बिशप को 54 करोड़ रुपये दिए थे। इस मामले में विदेशी चंदा प्राप्त कर रहे चार एनजीओ पर कार्रवाई भी की गई थी। एक अन्य उदाहरण वेदांता द्वारा तूतीकोरीन में लगाए गए स्टरलाइट कॉपर प्लांट का है। इस प्लांट को बंद कराने में भी चर्च का हाथ माना जाता है। आठ लाख टन सालाना तांबे का उत्पादन करने में सक्षम यह प्लांट अगर बंद न होता, तो देश आज इस मामले में आत्मनिर्भर हो गया होता।

यह कुछ देशों को पसंद नहीं आ रहा था और इसलिए उन्होंने मिशनरी संगठनों का इस्तेमाल कर पादरियों द्वारा यह दुष्प्रचार कराया कि यह प्लांट पूरे शहर की हर चीज को जहरीला बना देगा। इस दुष्प्रचार के बाद हिंसा भड़की और पुलिस फायरिंग में 13 लोगों की मौत हो गई। नतीजन यह प्लांट बंद कर दिया गया। आज 18 साल बाद भारत को एक बार फिर तांबे का आयात करना पड़ रहा है।

भारत, ईसाई और सनातन धर्म : आज भारत में कैथोलिक चर्च के छह काíडनल हैं, पर कोई दलित नहीं, 30 आर्च बिशप में कोई दलित नहीं, 175 बिशप में केवल नौ दलित हैं। साथ ही, 822 मेजर सुपीरियर में 12 दलित हैं, करीब 25,000 कैथोलिक पादरियों में 1,130 दलित ईसाई हैं। इतिहास में पहली बार भारत के कैथोलिक चर्च ने यह स्वीकार किया है कि जिस छुआछूत और जातिभेद के दंश से बचने को दलितों ने हिंदू धर्म को त्यागा था, वे आज भी उसके शिकार हैं। वह भी उस धर्म में जहां कथित तौर पर उनको वैश्विक ईसाईयत में समानता के दर्जे और सम्मान के वादे के साथ शामिल कराया गया था।

कैथलिक चर्च ने 2016 में अपने ‘पॉलिसी ऑफ दलित इंपावरमेंट इन द कैथलिक चर्च इन इंडिया’ रिपोर्ट में यह मान लिया है कि चर्च में दलितों से छुआछूत और भेदभाव बड़े पैमाने पर मौजूद है, इसे जल्द से जल्द खत्म किए जाने की जरूरत है। हालांकि इसकी यह स्वीकारोक्ति नई बोतल में पुरानी शराब भरने जैसी ही है। फिर भी दलित ईसाइयों को उम्मीद है कि भारत के कैथोलिक चर्च की स्वीकारोक्ति के बाद वेटिकन और संयुक्त राष्ट्र में उनकी आवाज सुनी जाएगी। कुछ साल पहले दलित ईसाइयों के एक प्रतिनिधिमंडल ने संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव बान की मून के नाम एक ज्ञापन देकर आरोप लगाया था कि कैथोलिक चर्च और वेटिकन दलित ईसाइयों का उत्पीड़न कर रहे हैं।

जातिवाद के नाम पर चर्च संस्थानों में दलित ईसाइयों के साथ लगातार भेदभाव किया जा रहा है। कैथोलिक बिशप कांफ्रेंस ऑफ इंडिया और वेटिकन को बार बार दुहाई देने के बाद भी चर्च उनके अधिकार देने को तैयार नहीं है। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून को दिए ज्ञापन में मांग की गई कि वह चर्च को अपने ढांचे में जातिवाद के नाम पर उनका उत्पीड़न करने से रोके और अगर चर्च ऐसा नहीं करता तो संयुक्त राष्ट्र में वेटिकन को मिले स्थाई ऑब्जर्वर के दर्जे को समाप्त कर दिया जाना चाहिए।

भारतीय सामाजिक स्वरूप से इतर रवैया : आजादी के बाद से भारतीय ईसाई एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के नागरिक रहे हैं। यहां के चर्च को जो खास सहूलियतें हासिल हैं, वे बहुत से ईसाइयों को यूरोप एवं अमेरिका में भी हासिल नहीं हैं। विशेष अधिकार से शिक्षण संस्थान चलाने, सरकार से अनुदान पाने की सहूलियतें शामिल हैं। इन सुविधाओं के बावजूद भारतीय चर्च अपनी छोटी-छोटी समस्याओं को लेकर पश्चिमी देशों का मुंह ताकते रहते हैं।

हाल ही में केंद्रीय गृह मंत्रलय ने 13 बड़े ईसाई मिशनरी संगठनों को विदेशी अनुदान विनियमन अधिनियम के तहत मिली चंदा लेने की अनुमति रद कर दी। हमेशा की तरह ही इंटरनेशनल क्रिश्चियन कंसर्न जैसे संगठनों ने इस फैसले पर हाय-तौबा मचानी शुरू कर दी है। अब इसके आसार हैं कि धाíमक स्वतंत्रता के नाम पर ईसाई मिशनरियों के काम सुगम बनाने वाले विदेशी संगठन भारत में कथित रूप से घटती धाíमक स्वतंत्रता पर कोई रिपोर्ट जारी कर दें।

भारत सरकार पर दबाव बनाने के लिए वे ऐसा करते रहते हैं। यह सही है कि भारतीय संविधान धाíमक स्वतंत्रता का अधिकार देता है, जिसमें अपने पंथ के प्रचार का भी अधिकार शामिल है, लेकिन हर अधिकार की तरह इस अधिकार की भी कुछ सीमाएं हैं। यह जानना भी जरूरी है कि यह अधिकार किन परिस्थितियों में दिया गया था। भारत की स्वतंत्रता के बाद संसद ने कई मतांतरण विरोधी बिल पेश किए, लेकिन कोई भी प्रभाव में नहीं आया। सबसे पहले 1954 में इंडियन कनवर्जन (रेगुलेशन एंड रजिस्ट्रेशन) बिल पेश किया गया था, जिसमें मिशनरियों के लाइसेंस और मतांतरण को सरकारी अधिकारियों के पास रजिस्टर कराने की बात कही गई थी। इस बिल को लोकसभा में बहुमत नहीं मिला।

इसके बाद 1960 में पिछड़ा समुदाय (धाíमक संरक्षण) विधेयक लाया गया, जिसका मकसद था हिंदुओं को ‘गैर भारतीय धर्मो’ में परिवíतत होने से रोका जाए। विधेयक की परिभाषा के अनुसार इसमें इस्लाम, ईसाई, यहूदी और पारसी धर्म शामिल थे। इसके बाद 1979 में फ्रीडम ऑफ रिलीजन बिल आया जिसमें ‘मतांतरण पर आधिकारिक प्रतिबंध’ की बात कही गई थी। राजनीतिक समर्थन न मिलने की वजह से ये बिल संसद में पास नहीं हो सके। वर्ष 2015 में, कानून मंत्रलय ने राय दी थी कि जबरन और धोखाधड़ी वाले मतांतरण के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर कानून नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि यह राज्य का विषय है।

पिछले कुछ वर्षो में कई राज्यों ने जबरन, धोखाधड़ी से या प्रलोभन देकर धर्म परिवर्तन को प्रतिबंधित करने के लिए ‘फ्रीडम ऑफ रिलीजन’ कानून लागू किया है। पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च ने हाल ही में कई राज्यों में मौजूदा मतांतरण विरोधी कानूनों की तुलना करते हुए एक रिपोर्ट जारी की है। ‘धाíमक स्वतंत्रता’ से जुड़े कानून वर्तमान में आठ राज्यों में लागू हैं- ओडिशा (1967), मध्य प्रदेश (1968), अरुणाचल प्रदेश (1978), छत्तीसगढ़ (2000 और 2006), गुजरात (2003), हिमाचल प्रदेश (2006 और 2019), झारखंड (2017) और उत्तराखंड (2018)। हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के कानून ऐसे विवाह को अमान्य घोषित करते हैं जिसमें अवैध धर्म परिवर्तन किया गया हो या फिर धर्म परिवर्तन सिर्फ विवाह के उद्देश्य से किया गया हो।

देश को गहरे नुकसान से बचाने के लिए विदेशी चंदे पर पूरी तरह रोक के साथ मिशनरी संगठनों की गतिविधियों पर पाबंदी आवश्यक है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत के शब्दों में, ‘हिंदू परंपरा ऐसे धर्म परिवर्तन की इजाजत नहीं देता, जिसमें किसी व्यक्ति के मानवाधिकार का उल्लंघन होता हो। धाíमक सभाएं करने से पहले ऐसे संगठनों के लिए स्थानीय पुलिस-प्रशासन को जानकारी देना आवश्यक होना चाहिए। अपनी धाíमक सभाओं में ऐसे संगठनों द्वारा दूसरे धर्मो के देवी-देवताओं और प्रतीकों का प्रयोग करने को छल की श्रेणी में रखा जाना चाहिए और धाíमक नगरों और सामरिक रूप से महत्वपूर्ण ठिकानों के आसपास उन पर कड़ी निगाह रखी जानी चाहिए, क्योंकि मतांतरण सामाजिक ताने-बाने को कमजोर करने के साथ देश की सुरक्षा के लिए चुनौती बन रहा है।

[स्वतंत्र टिप्पणीकार]

chat bot
आपका साथी