मुस्लिम समाज में भी हैं जातियां और जाति आधारित भेदभाव

यह समझने की जरूरत है कि मुस्लिम समाज भी ऊंच-नीच अगड़ा-पिछड़ा और दलित-आदिवासी में बंटा है। अमूमन जब राष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक न्याय या जाति आधारित भागीदारी की बात होती है तो सिर्फ हिंदू समाज का मसला समझा जाता है मगर यह सच नहीं।

By Manish PandeyEdited By: Publish:Tue, 12 Oct 2021 10:13 AM (IST) Updated:Tue, 12 Oct 2021 10:13 AM (IST)
मुस्लिम समाज में भी हैं जातियां और जाति आधारित भेदभाव
जाति की समस्या मुस्लिम समाज में भी है।

[फैयाज अहमद फैजी] तिगत जनगणना को लेकर बहस के बीच मुस्लिम नेतृत्व ऐसे व्यवहार कर रहा है जैसे उसका इस मसले से कोई लेना-देना ही न हो। अमूमन जब राष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक न्याय या जाति आधारित भागीदारी की बात होती है तो सिर्फ हिंदू समाज का मसला समझा जाता है, मगर यह सच नहीं। जाति की समस्या मुस्लिम समाज में भी है। चुनावों के दौरान जब हमें बताया जाता है कि अमुक क्षेत्र में कितने प्रतिशत ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, अनुसूचित जाति, जनजाति और मुस्लिम वर्ग के लोग हैं, तब हमें यह सामान्य बात लगती है, लेकिन यह असामान्य बात है, क्योंकि मुस्लिम समाज में भी जातियां हैं और जाति आधारित भेदभाव भी।

अगर कभी किसी अशराफ मुस्लिम बुद्धिजीवी ने मुस्लिम समाज में जातिवाद को माना भी तो इस आरोप के साथ कि यह हिंदू समाज और पसमांदा यानी पिछड़े-देशज मुसलमानों की ओर से उनके बीच आया है। यह सत्य नहीं है। अगर हम इस्लामी इतिहास पर देखें तो खलीफा का चयन नस्लीय आधार पर होता था। वह कुरैश जनजाति का होना चाहिए था। कुछ एक अपवादों को छोड़कर आज भी इस्लामी दुनिया में कुरैश (सैयद, शेख) को ही राजनीतिक एवं धार्मिक नेतृत्व प्राप्त है। इस्लामी फिकह में शादी विवाह के लिए कुफू का सिद्धांत है जिसमें जाति, नस्ल, धन, पेशा और क्षेत्र (अरबी-अजमी) आदि में बराबरी की बात कही गई है। आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड द्वारा प्रकाशित मजमूये कवानीने इस्लामी उक्त बातों का समर्थन करता है। इसे बोर्ड मुस्लिम समाज के पर्सनल ला के मामले में वैधानिक दस्तावेज की मान्यता देता है।

भारत में अशराफ मुसलमानों के शासन काल में भी जातिगत भेदभाव था। उस समय शासन व्यवस्था में निकाबत नामक एक विभाग हुआ करता था, जो शासन-प्रशासन में नियुक्ति के लिए जाति एवं नस्ल की जांच करता था और पहले से नियुक्त लोगों की भी पड़ताल करता था। अल्तमस ने भारतीय मूल के 33 मुसलमानों को इस आधार पर बर्खास्त कर दिया था कि उनका संबंध उच्च वर्ग यानी अशराफ वर्ग से नहीं था। इसी तरह बलबन ने निचले स्तर के भारतीय मूल के मुसलमानों को सरकारी पदों से बर्खास्त करते हुए कहा था कि मैं जब निम्न परिवार के किसी सदस्य को देखता हूं तो मेरा खून खौलने लगता है। बादशाह अकबर ने कसाई और मछुआरों के लिए राजकीय आदेश जारी किया था कि उनके घरों को आम आबादी से अलग कर दिया जाए और जो लोग इस जाति से मेलजोल रखें, उनसे जुर्माना वसूला जाए। अकबर के राज में अगर निम्न श्रेणी का व्यक्ति किसी उच्च श्रेणी के किसी व्यक्ति को अपशब्द कहता था तो उस पर कहीं अधिक अर्थदंड लगाया जाता था। अंतिम मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर ने नवाब सैयद हामिद को 500 लोगों की एक सेना तैयार करने का आदेश यह कहते हुए दिया था कि उसमें केवल शेख, सैयद, पठान आदि उच्च जाति के मुसलमान ही होने चाहिए। इस हकीकत से अनजान पिछड़ी जाति के मुस्लिम आज भी यह समझते हैं कि उनके लोग भारत के शासक थे।

आज के मुस्लिम समाज को देखें तो स्पष्ट रूप से आदिवासी (वन-गूजर, भील, सेपिया, बकरवाल) दलित (मेहतर, भक्को, नट, धोबी, हलालखोर, गोरकन) और पिछड़ी जातियां (धुनकर, डफाली, तेली, बुनकर, कोरी) दिखती हैं। समय-समय पर गठित आयोगों यथा काका कालेलकर आयोग, मंडल आयोग, रंगनाथ मिश्र आयोग और सच्चर समिति ने मुस्लिम समाज में जातिगत विभेद को स्वीकार किया। मंडल आयोग लागू होने के बाद से ही मुस्लिम पिछड़ी जातियों को शिक्षा एवं सरकारी नौकरियों में आरक्षण का लाभ मिला। इस करण पसमांदा मुसलमानों की स्थिति में पहले की अपेक्षा सुधार दिखाई पड़ रहा है। इस प्रकार केंद्र और राज्य सरकारों ने मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय को स्थापित करने का प्रयास कर एक उदाहरण प्रस्तुत किया। इसकी किसी इस्लामी राष्ट्र में नजीर नहीं मिलती। हैरत की बात यह है कि मुस्लिम नेतृत्व ने सामाजिक न्याय की इस परिकल्पना की सर्वथा उपेक्षा की। उनके द्वारा संचालित संस्थाओं जैसे मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड, जमाते इस्लामी, जमीयतुल उलेमा, मिल्ली काउंसिल, मजलिसे मशावरत, वक्फ बोर्ड, बड़े स्तर के मदरसे, इमारते शरिया आदि में आदिवासी, दलित और पिछड़े मुसलमानों की भागीदारी लगभग शून्य है। इससे पता चलता है कि मुस्लिम नेतृत्व अपने समाज में सामाजिक न्याय के प्रति कितना उदासीन है। उक्त सभी मुस्लिम संस्थाएं स्वघोषित शासक वर्गीय यानी अशराफ मुसलमानों द्वारा संचालित हैं। मुस्लिम समाज का नेतृत्व करने वाला यह अभिजात्य अशराफ वर्ग अपने समाज में सामाजिक न्याय के प्रश्न पर खामोश ही नहीं रहता, बल्कि उसकी अनदेखी भी करता है। सवाल है कि मुस्लिम समाज में जातिगत विभेद से इन्कार पर किसके हित सध रहे हैं? इस इन्कार से यही प्रतीत होता है कि अशराफ मुसलमान अपनी सामंती मानसिकता से आज भी बाहर नहीं निकल पाया है और पिछड़े मुसलमानों को सेवक के रूप में ही बनाए रखना चाहता है।

मुस्लिम समाज की मौजूदा स्थिति न तो मुस्लिम समाज के हित में है और न राष्ट्रहित में। जब तक देश में बसने वाले सभी समुदायों को सभी क्षेत्रों में उचित भागीदारी द्वारा राष्ट्र की मुख्यधारा से न जोड़ा जाए, तब तक कोई भी देश विकसित और संपन्न नहीं हो सकता। न सिर्फ मुसलमानों, बल्कि आम जनमानस, केंद्र एवं राज्य सरकारों के साथ मीडिया को भी यह समझने की जरूरत है कि मुस्लिम समाज भी ऊंच-नीच, अगड़ा-पिछड़ा, दलित और आदिवासी वर्ग में बंटा है। पूरे मुस्लिम समाज को एक समरूप समाज मानकर बनती आ रही नीतियों पर पुनर्विचार करते हुए मुसलमानों की जातिगत संरचना को ध्यान में रखते हुए नीति निर्धारण पर बल देना चाहिए।

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

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