मुस्लिम मतदाताओं को लेकर टूटते भ्रम, राजनीति में भागीदारी की आवाज भी उठने लगी

अमूमन यह कहा जाता है कि मुस्लिम लामबंद होकर मतदान करते हैं लेकिन अब यह सही नहीं लगता। शिया और सुन्नी की राजनीतिक पसंद में विविधता को पहले ही मान्यता मिल गई है और आज नहीं तो कल मुस्लिम समाज की विविधता राजनीतिक विमर्श का हिस्सा बनेगी।

By TilakrajEdited By: Publish:Thu, 28 Oct 2021 08:39 AM (IST) Updated:Thu, 28 Oct 2021 08:39 AM (IST)
मुस्लिम मतदाताओं को लेकर टूटते भ्रम, राजनीति में भागीदारी की आवाज भी उठने लगी
मुस्लिम मतदाताओं को लेकर हमारा राजनीतिक विमर्श कई घिसी-पिटी धारणाओं का शिकार

बद्री नारायण। एक ऐसे समय जब सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों में शीघ्र ही विधानसभा चुनाव होने हैं, तब लोगों के मानस में आ रहे बदलाव को भांपना जरूरी है। इसी को ध्यान में रखकर हमने समुदायों पर केंद्रित अध्ययन के माध्यम से जनता की राजनीतिक अभिवृत्तियों में आ रहे परिवर्तन को समझने का प्रयास किया। इसी में एक महत्वपूर्ण समुदाय रहा-मुस्लिम समुदाय। मुसलमानों की राजनीतिक पसंद जानने के लिए हमने उनकी संयुक्त आबादी और बहुमत वाले गांवों पर अध्ययन किया। इसमें कई विमर्श बने। तमाम मिथक टूटे। कतिपय अवधारणाएं भी पुष्ट हुईं। इससे यह भी समझ में आया कि मुस्लिम मतदाताओं को लेकर हमारा राजनीतिक विमर्श कई घिसी-पिटी धारणाओं का शिकार है।

मुसलमानों को हम प्राय: एक समरूपी समुदाय मानते हैं। ‘मुस्लिम वोट’ जैसे खांचों से हम उनकी व्याख्या करते हैं। जबकि मुस्लिम समुदाय की सामाजिक संरचना उसे बहुल रूपी समाज के रूप में प्रस्तुत करती है। उसमें भी जाति एवं वर्ग जैसी विविधता पाई जाती है, जैसी भारतीय समाज के अन्य समुदायों में मिलती है। अशराफ, अजलाफ एव अरजाल जैसे सामाजिक स्तरों में तो मुस्लिम समुदाय बंटा है ही, ततवा, रंगरेज, जोगी, डफाली, ललबेगी और बुनकर जैसे पेशों से बनी अनेक जातियां एवं उनके प्रतिस्पर्धी टकरावों की ध्वनि इस समूह के तानेबाने में प्रतिध्वनित होती है। जब कोई भी समूह इतने स्तरों में बंटा है, तो धार्मिक अस्मिता पर केंद्रित गहन गोलबंदी के बावजूद उसके बीच भी कायम राजनीतिक असहमति के स्वर सुनाई पड़ते हैं।

आजादी के तुरंत बाद जहां अशराफ मुस्लिम (उच्च वर्गीय समूह) राजनीति में प्रभावी थे, वहीं मंडल आयोग के बाद फैली राजनीतिक चेतना के प्रभाव से इस समूह के पिछड़े एवं सीमांत समूह जैसे अंसारी-बुनकर आदि राजनीति में सक्रिय एवं प्रभावी होने लगे। अब तो मुस्लिम राजनीति में पसमांदा (उपेक्षित समूहों) की ओर में राजनीति में भागीदारी की आवाज भी उठने लगी है।

हमने पाया कि मुस्लिम बस्तियों में एक समूह ऐसा भी है, जो भाजपा की तारीफ करता है, क्योंकि उसके पास पीएम आवास योजना, मुफ्त बिजली योजना, मुफ्त रसोई गैस एवं आयुष्मान भारत योजना के लाभ पहुंचे हैं। ऐसे परिवारों में धार्मिक एवं जातीय अस्मिता की चेतना के साथ-साथ ‘लाभार्थी’ होने का भाव भी बनने लगा है। हालांकि, उनकी ‘लाभार्थी चेतना’ के निर्माण एवं उभार की प्रक्रिया अभी धीमी है। संभव है ये भाजपा की तारीफ करने के बावजूद वोट किसी और को दें, किंतु यह भी हो सकता है कि इनमें से अनेक भाजपा को वोट दें।

ये ग्रामीण मुस्लिम परिवार गरीब परिवार हैं, जो जनतांत्रिक राजनीति में लाभार्थी के रूप में धीरे-धीरे रूपांतरित होते जा रहे हैं। हालांकि, इनमें मध्यम वर्गीय एवं ओबीसी मुस्लिम मतदाताओं का एक वर्ग भी दिखा, जो या तो सपा के पक्ष में गोलबंद हो रहा है या फिर होने की तैयारी में है। इनमें एक तीसरा समूह जिसमें मूलत: मध्य आयुवर्ग एवं उम्रदराज लोग थे, वे कांग्रेस शासन को याद कर रहे थे। ऐसे में मुस्लिम वोट के एकरूपी या समरूपी होने को एक मिथक माना जाना चाहिए।

अमूमन यह कहा जाता है कि मुस्लिम लामबंद होकर मतदान करते हैं, लेकिन अब यह सही नहीं लगता। शिया और सुन्नी की राजनीतिक पसंद में विविधता को पहले ही मान्यता मिल गई है और आज नहीं तो कल मुस्लिम समाज की विविधता राजनीतिक विमर्श का हिस्सा बनेगी। मुस्लिमों के किसी एक दल के पक्ष में रणनीतिक रूप से मतदान की धारणा भी उचित नहीं लगती। कई जानकार मानते हैं कि इस रणनीति के मूल में भाजपा या हिंदुत्व की राजनीति करने वाले दल बनाम अन्य होते हैं। चुनावी मीमांसा में कुछ ऐसे संकेत उभरते हैं, किंतु अब यह धुरी भी खिसक रही है। यह रूपांतरण इसलिए हो रहा है, क्योंकि जनतंत्र स्वयं में अपनी एक आत्मचेतना रचता है। वह धीरे-धीरे ही सही, ‘अपनी जनता’ बनाता जाता है, जो किसी विशेष जाति, वर्ग या धर्म से जुड़े होने के बावजूद सत्ता एवं शासन में मिलने वाले लाभों से अपनी राजनीतिक पक्षधरता तय करता है। उसमें एक ‘लाभार्थी’ भाव बनने लगता है। जितना मिले, उसे तो स्वीकारता ही है तो और पाने की कामना भी करता है।

कुछ मुस्लिम डफाली परिवार के लोगों ने बताया कि अगर सरकार से मुफ्त राशन न मिला होता, तो हम भूखे मर जाते। गरीबों की राजनीति अक्सर मध्यवर्ग से भिन्न होती है। उसकी लड़ाई जीवित बचे रहने यानी अस्तित्व बचाने की होती है। वह जब थोड़ी बेहतर आर्थिक स्थिति में पहुंचता है तो उसकी चेतना में जाति एवं धर्म जगह बनाने लगते हैं। सत्ता संचालित जनतंत्र इन समूहों में एक दूसरा वर्ग भी रचता है, जिसे हम प्रशासनजनित विकास की भाषा में ‘एस्पिरेंट’ यानी आकांक्षी समूह कहते हैं। यह समूह आगे बढ़ने की चेतना से लैस होता है, जिसमें जाति, धर्म, सुरक्षा एवं विकास की चाह सभी में एक दूसरे से आबद्ध होती है।

यदि इन परिवर्तनों को गहराई से समझा जाए, तो न केवल मुस्लिम मतदाताओं में, बल्कि अस्मिताओं पर आधारित किसी भी मतदाता वर्ग में हो रहे ऐसे रूपांतरण का अहसास किया जा सकता है। यदि इन वर्गों की थाह ली जाए, तो उनमें जाति एवं धर्म आधारित आवाज ही नहीं, बल्कि और कई आवाजें सुनाई देंगी। उनमें एक आवाज भारतीय जनतंत्र द्वारा चरणबद्ध रूप से किए जा रहे विकास के लाभों की भी है, जिन्हें हमें अपनी व्याख्याओं में सुनना होगा। यह आवाज जनतंत्र द्वारा रची जा रही आत्मचेतना की है, जो मुस्लिम मतदाताओं के बारे में बने-बनाए अनेक मिथकों को तोड़ती जा रही है। ऐसी परिवर्तित आत्मचेतना पर राजनीतिक विश्लेषकों को दृष्टि डालनी होगी। साथ ही उनकी गोलबंदी की राजनीति कर रहे राजनीतिक दलों को भी इसे समझना होगा।

(लेखक जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, प्रयागराज के निदेशक हैं)

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