Book Review: पर्सेपोलिस बचपन और वापसी की कहानी, तहखाना ही जैसे मेरी शरणस्थली थी

‘पर्सेपोलिस’ से गुजरते हुए कुछ और भी किताबें सहज याद आती हैं जिनका विषय भी इसी तरह अपने सत्य को उजागर करने की जमीन तैयार करता है। पर्सेपोलिस’ सिर्फ एक गल्प-कथा नहीं है। इसे तो समकालीन विमर्श में एक प्रमुख अध्याय माना जाना चाहिए।

By Shashank PandeyEdited By: Publish:Sun, 13 Jun 2021 10:45 AM (IST) Updated:Sun, 13 Jun 2021 10:45 AM (IST)
Book Review: पर्सेपोलिस बचपन और वापसी की कहानी, तहखाना ही जैसे मेरी शरणस्थली थी
Book Review पर्सेपोलिस: बचपन और वापसी की कहानी।(फोटो: दैनिक जागरण)

यतीन्द्र मिश्र। विश्व के पहले सचित्र उपन्यास का दर्जा रखने वाली ‘पर्सेपोलिस’ सिर्फ एक गल्प-कथा नहीं है, बल्कि यह ईरान के राजनीतिक-सामाजिक इतिहास में एक लेखिका का ऐसा हिम्मत भरा हस्तक्षेप है, जिसे समकालीन विमर्श में एक प्रमुख अध्याय माना जाना चाहिए। एक खोजपूर्ण कृति, जिसके अंतरंग में त्रासदियों, मार्मिक अनुभवों और अकल्पनीय सत्य का मिला-जुला दस्तावेज मौजूद है। मार्जान सतरापी, जो इसकी लेखिका हैं, प्रामाणिक ढंग से जिन ब्यौरों को बड़ी सहजता से यहां दर्ज करती हैं, उनकी खुद की पहचान ईरान के अंतिम सम्राट की परपोती और प्रगतिशील विचारों वाले माता-पिता की पुत्री होने में निहित है।

‘पर्सेपोलिस’ से गुजरते हुए कुछ और भी किताबें सहज याद आती हैं, जिनका विषय भी इसी तरह अपने सत्य को उजागर करने की जमीन तैयार करता है। इस सचित्र-कथा को पढ़ते हुए हम आसानी से नादिया मुराद और जेना क्राजेस्की की ‘द लास्ट गर्ल’ और थोड़े व्यापक अर्थों में क्रिस्टीना लैंब की ‘अवर बाडीज, देयर बैटलफील्ड’ को याद कर सकते हैं। हालांकि, सतरापी की यह किताब इन दोनों के चरित्र से मिलते हुए भी अपनी अलग राह पर खड़ी है, जहां से व्यक्तिगत अनुभवों और सामाजिक दबावों को समझने की एक संतुलित दृष्टि मिलती है।

एक हद तक इसका कामिक्स वाला चरित्र इसे कलात्मक उठान भी देता है, जहां काली-सफेद आकृतियों के साथ चरित्रों के डिजाइन और उनका स्वरूप, भाषा से अलग भी कुछ गहरे इशारे करता है। आप इन चित्रों से ईरान के उस घायल दौर का भी आकलन कर सकते हैं, जिसे रचते हुए निश्चित ही मार्जान सतरापी उस बुरे वक्त के गुजर जाने के बाद भी बार-बार लहूलुहान हुई होंगी।

वे उपन्यास को तटस्थता से बरतना चाहती हैं, जिसमें काफी हद तक सफल भी हुई हैं। त्रासदियों का इतिहास लिखने की कीमत वे जानती हैं। शायद इसीलिए, इसकी भूमिका में स्पष्ट करती हैं- ‘एक ईरानी के रूप में, जिसने अपनी अधिकांश जिंदगी ईरान में बिताई है, मैं जानती हूं कि यह छवि सच से बहुत दूर है। अत: ‘पर्सेपोलिस’ का लेखन मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण था। मेरा मानना है कि चंद उग्रवादियों के गलत कार्यों के आधार पर संपूर्ण देश को नहीं आंकना चाहिए और उन ईरानियों को भी नहीं भुला देना चाहिए, जिन्होंने आजादी की लड़ाई में जेलों में अपनी जिंदगी गंवा दी, जिन्हें दमनकारी शासन के अंतर्गत तरह-तरह से प्रताड़ित किया गया...’ इसी स्पष्टीकरण में इस उपन्यास को समझने के बीज छिपे हुए हैं।

सतरापी अपने समय का सच उकेरते हुए जैसे चाकू की धार पर चलती हैं और किस्सागोई में जरा भी अतिरिक्त ढंग से उभर आने वाली पीड़ा और दाग को अपने गद्य से छीलकर हटा देती हैं। कथा में कई ऐसी राहें हैं, जहां संवादों को एक पूरी सभ्यता को समझने के सूत्र की तरह भी देखा जा सकता है। जैसे- ‘न बादशाह के पास कोई ज्ञानी था और न ही वे खुद ज्ञानी थे।’, ‘मेरी बच्ची तुम्हें पता है, हमेशा से सल्तनतें बनती-बिगड़ती रही हैं, लेकिन बादशाहों ने हमेशा अपने वचन का पालन किया।’, ‘जिंदगी पीड़ा का नाम है, सब कुछ दर्द है।’, ‘कभी भी पूरी तरह पथभ्रष्ट न होने का कारण यह भी था कि सौभाग्य से मुझे अपनी जड़ों से जुड़ी रहने की ठोस शिक्षा मिली थी।’ ऐसी अनुभवगत सूक्तियां इस ग्राफिक नावेल में अलग सी चमक पैदा करती हैं।

लेखिका ईरान के घरेलू दैनिक जीवन और सार्वजनिक, राजनैतिक जीवन के बीच मौजूद किसी समानांतर पुल पर विरोधाभासों का अद्भुत रेखांकन करती हैं। कुछ ज्यादा ठोस और कुछ ज्यादा पथरीली जमीन पर, जो किताब की नायिका किशोर मार्जी के इर्द-गिर्द घूमता है और जो बाहर की दुनिया से बेखबर है। वह बचपन में पैगंबर बनना चाहती है और स्कूल वाले ये मानते हैं कि उसकी दिमागी हालत सही नहीं है। उस समय आरोपित इस्लाम के कट्टरपंथ को स्कूल के स्तर पर ही महसूस करने वाली इस छोटी बच्ची की मानसिकता समझी जा सकती है, जब प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर ही धार्मिक रिवाजों को जबरन विद्यार्थियों से मनवाया जाता था। इस किताब के अंग्रेजी संस्करण पर ‘द गार्जियन’ ने एक बेहतर बात लक्ष्य की थी- ‘सतरापी का यह पूरा गद्य एक बच्चे की मानसिकता में जाकर लिखा गया है, जो उनकी मासूमियत को इस भयानक दुनिया में चरितार्थ करता है।’

यह सही है कि पूरा उपन्यास सतरापी की मासूमियत पर टिका हुआ है, जिनमें इस निर्मम समाज को देखने की कुछ ऐसी खिड़कियां भी खुली हुई हैं, जहां से आशा की धूप आती है। शायद इसीलिए ‘पर्सेपोलिस’ बीते दौर के पांचवे-छठे दशक में ईरान के राजनीतिक उथल-पुथल और इस्लामिक क्रांति का, वहां की नागरिक की निगाह से देखी गई प्रामाणिक आपबीती है, जिसके बहुतेरे प्रसंग हर काल में प्रासंगिक बने रहेंगे। एक रोचक किताब, जो अपनी पृष्ठभूमि को उतने ही दिलचस्प चित्रों से बयां करती है। इसके अनुवाद को गहराई से लेखक, पत्रकार निधीश त्यागी ने संपादित किया हैर्। हिंदी में इसका प्रकाशन एक बड़ी उपलब्धि है, वाणी प्रकाशन को बधाई।

पर्सेपोलिस: बचपन और वापसी की कहानी

मार्जान सतरापी

आत्मकथा/सचित्र उपन्यास

पहला संस्करण, 2021

वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली

मूल्य: 399 रुपए

chat bot
आपका साथी