भारत के सामने है बड़ी चुनौती, सधे कदमों से तय हो अफगान नीति

अफगानिस्तान में अपने हितों की सुरक्षा के लिए भारत को यथार्थवादी लचीली और कुशाग्र नीतियां अपनानी होंगी। अफगानिस्तान गंभीर मानवीय संकट से जूझ रहा है। कई देशों ने अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के माध्यम से सहायता पहुंचाने का संकल्प लिया है। भारत भी इन एजेंसियों के जरिये मानवीय सहायता का दायरा बढ़ाए।

By TilakrajEdited By: Publish:Mon, 18 Oct 2021 08:34 AM (IST) Updated:Mon, 18 Oct 2021 09:34 AM (IST)
भारत के सामने है बड़ी चुनौती, सधे कदमों से तय हो अफगान नीति
अफगान में कूटनीतिक एवं सामरिक मोर्चे पर समीकरण साधने की भारत के समक्ष कड़ी चुनौती

विवेक काटजू। काबुल में भारतीय दूतावास को बंद हुए दो महीने से अधिक हो गए हैं। मध्य अगस्त में काबुल पर तालिबानी कब्जे के बाद यह कदम उठाया गया था। पंजशीर में जरूर तालिबान को कुछ प्रतिरोध झेलना पड़ा, लेकिन आखिरकार उसे भी हथियाने के बाद अब पूरे अफगानिस्तान पर तालिबान का नियंत्रण है। आइएस-खुरासान आतंकी समूह जरूर अब भी कुछ इलाकों में हमले कर रहा है। इसके बावजूद निकट भविष्य में तालिबान के सत्ता से बेदखल होने के आसार नहीं दिख रहे। भारत के लिए यह बहुत असहज करने वाली सच्चाई है, जिसे भारतीय नीति निर्माताओं को स्वीकार करना ही चाहिए। यह सही है कि तालिबान की विचारधारा पूरी तरह भारत के विपरीत है। वहीं तालिबान और पाकिस्तान बहुत घनिष्ठ हैं।

पिछली सदी के अंतिम दशक के दौरान जब तालिबान ने काबुल और कई अन्य महत्वपूर्ण जगहों पर कब्जा जमा लिया था तब भी अफगानिस्तान के करीब दस प्रतिशत हिस्से पर बुरहानुद्दीन रब्बानी का शासन था। संयुक्त राष्ट्र में उसे ही अफगानिस्तान की वैधानिक सरकार के रूप में मान्यता प्राप्त थी। इस बार अमरुल्ला सालेह ने खुद को राष्ट्रपति घोषित किया, लेकिन उनके नियंत्रण में कोई भी इलाका नहीं था। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय समुदाय उन्हें कैसे मान्यता प्रदान करता। इस प्रकार अफगान गणतंत्र इतिहास में दफन हो गया है। हालांकि, कोई भी देश तालिबान को राजनयिक मान्यता देने में जल्दबाजी नहीं दिखा रहा। वहीं तालिबान से निपटने को लेकर चीन और रूस का पश्चिमी देशों के साथ मतैक्य नहीं है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तालिबान को लेकर एक साझा अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण सुझाया है, लेकिन इसके आसार कम ही हैं कि चीन और रूस इस समझदारी भरे सुझाव को तवज्जो देंगे।

भारत ने कई देशों के साथ आवाज उठाकर तालिबान से मांग की थी कि वह समावेशी सरकार का गठन करे। महिलाओं एवं अल्पसंख्यकों के अधिकारों का सम्मान करे और सुनिश्चित करे कि आतंकी समूह अफगान धरती का इस्तेमाल न करने पाएं। साथ ही भारत ने अफगानिस्तान में पुरातनपंथी विचारधारा के जड़ें जमाने से जुड़े खतरों को लेकर भी आगाह किया। वैसे विदेश नीति में किसी देश के पास यह सुविधा नहीं होती कि वह अपनी पसंद से तय करे कि किसके साथ संवाद-सक्रियता बढ़ानी है या नहीं। राष्ट्रहित यही मांग करते हैं कि वास्तविकता को स्वीकार किया जाए। नीतियां भी वास्तविकता के आधार पर बनानी होती हैं। नि:संदेह अफगान गणतंत्र का पतन भारत के लिए बड़ा झटका है, जिसके भारत के साथ बेहतरीन संबंध थे। यद्यपि भारत ने बीते चालीस वर्षो के दौरान अफगानिस्तान में निरंतर हुए परिवर्तनों से बढ़िया ताल मिलाई। हालांकि प्रत्येक बार शुरुआत में कुछ मुश्किलें अवश्य आईं, परंतु बदलती वास्तविकताओं को स्वीकार कर भारत ने नई सत्तारूढ़ होने वाली सरकार से बेहतर संबंध बनाने में सफलता प्राप्त की, भले ही नई सरकार की विचारधारा पुरानी से इतर क्यों न रही हो। यथार्थवाद ने हमेशा मार्गदर्शक की भूमिका निभाई। इस प्रकार भावनाओं को किनारे रखकर ऐसी व्यावहारिक नीतियां बनाई गईं, जिन्होंने भारत के हितों को पोषित किया।

अब तालिबान के सत्तारूढ़ होने के साथ कुछ अतिरिक्त जटिलताएं उत्पन्न हो गई हैं। पाकिस्तान प्रयास में जुटा है कि तालिबान और भारत के बीच कामकाजी संबंध विकसित न होने पाएं। इसके लिए वह किसी तालिबानी नेता के अनर्गल बयान या फिर मंदिरों और गुरुद्वारों पर हमलों से भारतीय जनमानस को उकसाने की भी कोशिश करेगा। हाल में ऐसी ही एक कोशिश हुई भी, जहां तालिबान के एक नेता ने महमूद गजनवी के मकबरे पर जाकर उसके द्वारा किए गए सोमनाथ मंदिर के ध्वंस का बखान किया। भारत के सामरिक एवं विदेश नीति हितों की यही मांग है कि उकसावे वाली ऐसी टिप्पणियों को अनदेखा किया जाए। यह आसान नहीं है, पर भारतीय परिपक्व हैं, जो ऐसे मूर्खतापूर्ण बयानों को राष्ट्रहितों में अवरोध नहीं पैदा करने देंगे।

इस बीच ऐसी रपट भी हैं कि भारत और तालिबान पर्दे के पीछे वार्ता में सक्रिय हैं। ऐसा संपर्क कूटनीतिक दुनिया में बहुत सामान्य है। दोहा में भारतीय राजदूत ने सार्वजनिक रूप से अब्बास स्टेनकजई से मुलाकात की, जो तालिबान सरकार में उप विदेश मंत्री हैं। ऐसे खुले संवाद को जारी रखने की जरूरत है, क्योंकि इससे भारत तालिबान के रवैया का आकलन करने के साथ ही उसे उसकी मर्यादा रेखा बताने में भी सक्षम होगा। ऐसे संवाद का अर्थ मान्यता देना कदापि नहीं होगा। यह भी ध्यान रखना होगा कि तालिबान के भीतर व्यक्तिगत, कबीलाई और क्षेत्रीय विभाजन हैं। सभी तालिबानी नेता हक्कानी नेताओं की पाकिस्तान से नजदीकी पर खुश नहीं हैं। यह भारतीय कूटनीति को कुछ गुंजाइश प्रदान करता है कि वह अफगानिस्तान में भारत की स्थिति को मजबूत करने के लिए नए सिरे से काम करे। इसके अतिरिक्त भारत यह गवारा नहीं कर सकता कि पाकिस्तान और चीन अफगानिस्तान में भारत विरोधी गतिविधियां चलाएं। इसके लिए काबुल में अधिकारियों की एक छोटी टीम तैनात करना जरूरी है। तालिबान द्वारा उनकी सुरक्षा की गारंटी के बाद ऐसा किया जा सकता है।

अफगानिस्तान को लेकर जी-20 सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी ने भारतीयों और अफगान लोगों के बीच सदियों पुराने संबंधों का स्मरण कराकर सही किया। बीस वर्षों के दौरान भारत द्वारा अफगानिस्तान की व्यापक सहायता पर भी उन्होंने बखूबी प्रकाश डाला। इस बीच भारत ने अफगानिस्तान मसले पर बैठक भी बुलाई है। वहीं मास्को में आयोजित होने वाली ऐसी ही एक बैठक में भारत शामिल होगा।

अफगानिस्तान गंभीर मानवीय संकट से जूझ रहा है। कई देशों ने अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के माध्यम से सहायता पहुंचाने का संकल्प लिया है। भारत भी इन एजेंसियों के जरिये मानवीय सहायता का दायरा बढ़ाए। साथ ही शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए भारत आने वाले अफगान नागरिकों को लेकर भी अधिक उदारता दिखानी चाहिए। हालांकि यह पूरी जांच-परख के बाद ही किया जाए। भारत के मददगार होने के कारण तालिबान द्वारा सताए जा रहे अफगानों को भी शरण देने में उदारता दिखानी होगी। इससे भारत अफगान लोगों के कल्याण को लेकर अपनी प्रतिबद्धता ही दोहराएगा कि वह अपने मित्रों को अधर में नहीं छोड़ता। इसके अतिरिक्त अफगानिस्तान में अपने हितों की सुरक्षा के लिए भारत को यथार्थवादी, लचीली और कुशाग्र नीतियां बनानी और अपनानी होंगी।

(लेखक अफगानिस्तान में भारत के राजदूत रहे हैं)

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