मुगालते में बाइडन प्रशासन, अफगानिस्तान पर फैसले से अमेरिका की अंतरराष्ट्रीय साख को पहुंचाया नुकसान

राष्ट्रपति जो बाइडन भले ही अमेरिका के सबसे लंबे युद्ध की समाप्ति का श्रेय लेना चाहते हों मगर उन्होंने अफगानिस्तान को एक बड़े खतरे में झोंक दिया है। जो बाइडन ने अमेरिका की अंतरराष्ट्रीय साख को जो नुकसान पहुंचाया है।

By Shashank PandeyEdited By: Publish:Fri, 10 Sep 2021 07:56 AM (IST) Updated:Fri, 10 Sep 2021 07:56 AM (IST)
मुगालते में बाइडन प्रशासन, अफगानिस्तान पर फैसले से अमेरिका की अंतरराष्ट्रीय साख को पहुंचाया नुकसान
अफगानिस्तान पर फैसले से अमेरिका को बड़ा नुकसान।(फोटो: प्रतीकात्मक)

ब्रह्मा चेलानी। अफगानिस्तान में अपनी अनर्थकारी वापसी को लेकर गलती मानने के बजाय अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन द्वारा उसे वाजिब ठहराने की कोशिश यही दर्शाती है कि यह उनके प्रशासन का ऐसा इकलौता फैसला नहीं होने जा रहा। बाइडन इसे अपने नेतृत्व में अमेरिका के रणनीतिक उद्देश्यों के आधारभूत पुर्नसयोजन का प्रतीक बता रहे हैं। इसके साथ ही उन्होंने इराक से भी इस साल वापसी की बात कही है। उनकी इन बातों से यही सवाल उठ रहे हैं कि क्या अमेरिका अपनी वैश्विक प्रतिबद्धताओं से कदम पीछे खींच रहा है? अफगानिस्तान में बाइडन ने जो अनर्थ किया है और जिस दिशा में अमेरिकी विदेश नीति जाती दिख रही है उसे देखते हुए अमेरिका विरोधियों का हौसला बढ़ना तय है। वहीं अमेरिका के संगी-साथियों को नए सिरे से आकलन करना होगा, क्योंकि अमेरिकी रुख अब संदिग्ध लगने लगा है। अब यूक्रेन चिंतित है कि जैसे बाइडन ने अफगान सरकार को दगा दिया, वैसे ही वह उन्हें भी अधर में छोड़ देंगे। चिंता ताइवान को भी सता रही है कि बाइडन की ऐतिहासिक भूल के बाद चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग उसके खिलाफ कोई जंग छेड़ सकते हैं। ताइवानी राष्ट्रपति साई इंग वेन के बयान में यह ध्वनित भी होता है। उन्होंने स्पष्ट कहा कि हम दूसरों के भरोसे नहीं बैठ सकते।

अमेरिका को लेकर ऐसी आशंकाएं निराधार नहीं हैं। बाइडन ने अफगानिस्तान को जिस तरह आतंकियों को तश्तरी में परोस कर दे दिया, वह अंतरराष्ट्रीय जिहादी मुहिम के लिए एक बड़ी जीत है। यह भी एक दुर्योग है कि बाइडन के सत्ता संभालने के कुछ ही महीनों के भीतर आतंकियों ने अफगानिस्तान पर कब्जा जमा लिया। ऐसे में निश्चित है कि यह बाइडन की आखिरी भूल नहीं साबित होगी। राष्ट्रपति बनने से पहले बाइडन कई अहम पदों पर रहे हैं। उस दौरान उनके सहयोगी रहे तमाम लोग उनकी नीतियों और फैसलों को लेकर सवाल उठा चुके हैं। वे अब सही साबित हो रहे हैं।

केवल अमेरिकी ही नहीं, बल्कि उनके दुश्मनों का भी बाइडन को लेकर नजरिया सही साबित होता दिख रहा है। दुनिया के दुर्दात आतंकी ओसामा बिन लादेन को जब अमेरिका ने पाकिस्तान में घुसकर मौत के घाट उतारा था तो लादेन के परिसर से एक चिट्ठी मिली थी। उसमें अलकायदा के लिए यह संदेश था कि वह तत्कालीन उप-राष्ट्रपति बाइडन को निशाना न बनाए, क्योंकि उनके एक दिन राष्ट्रपति बनने की संभावना है और चूंकि वह काबिल नहीं तो निश्चित ही अमेरिका को किसी संकट में झोंक देंगे। यानी लादेन का आकलन भी सभी जिहादियों के लिए खुशी की सौगात वाला साबित हुआ। इस बीच अफगानिस्तान पर तालिबानी कब्जे को लेकर बाइडन ने ‘अच्छे’ और ‘बुरे’ आतंकियों वाला शिगूफा छेड़ा है। जैसे उन्होंने आइएस-खुरासान को तालिबान का दुश्मन बताया, जबकि इस तथ्य को अनदेखा कर दिया कि चाहे अलकायदा हो या आइएस-खुरासान, सभी अमेरिका और स्वतंत्र एवं उदार विश्व के दुश्मन हैं। भले ही तालिबान, अलकायदा और आइएस-खुरासान की पहचान अलग-अलग हो, लेकिन उनकी एक साझा विचारधारा है, जो ¨हसक जिहाद से जुड़ी है। उनके सदस्यों में आपसी मेलजोल रहा है। वे एक आतंकी धड़े से दूसरे में भी शामिल होते रहते हैं। यहां तक कि उनके सदस्य एक दूसरे के परिवार में वैवाहिक रिश्ते भी बनाते हैं। हक्कानी नेटवर्क भी ऐसा ही एक आतंकी धड़ा है। इसे तालिबान की स्पेशल फोर्स के साथ ही पाकिस्तानी सरकारी आतंकी मशीनरी का अहम हिस्सा भी माना जाता है। यह उसी व्यापक धारणा को पुष्ट करता है कि अफगानिस्तान में आतंक की असली कड़ी पाकिस्तान से जुड़ी है। पाकिस्तान की कुख्यात खुफिया एजेंसी आइएसआइ ने आइएस-खुरासान में आतंकियों की भर्ती के लिए हक्कानी का ही इस्तेमाल किया, ताकि आतंकी गतिविधियां भी चलती रहें और उसके दामन पर उनका दाग भी न लगे।

जहां तक अलकायदा का सवाल है तो काबुल पर कब्जे के बाद से तालिबान के प्रवक्ता ने उसके खिलाफ एक शब्द नहीं बोला। उलटे उसने यहां तक कहा कि अमेरिका में 9-11 हमले में लादेन की संलिप्तता के कोई सुबूत नहीं। जो लोग तालिबान और अलकायदा को जुदा समझते हैं, उनके लिए यह एक दृष्टांत है। अक्टूबर 2015 में जनरल जान एफ कैंपबेल के नेतृत्व में अमेरिकी सेनाओं ने दक्षिणपूर्वी अफगानिस्तान में अलकायदा के सबसे बड़े आतंकी ठिकाने का पता लगाया था जो करीब 30 वर्ग मील के दायरे में फैला हुआ था। मालूम पड़ा कि वहां अलकायदा और तालिबान के रंगरूट एक साथ प्रशिक्षण लेने के अलावा उसका साथ में संचालन कर रहे थे।

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की एक हालिया रपट के अनुसार तालिबान और अलकायदा में अभी भी नजदीकियां बनी हुई हैं। ऐसी स्थिति में तालिबान को प्रोत्साहित करने के बजाय उस पर शिकंजा कसना चाहिए था। इसके उलट बाइडन प्रशासन ने न केवल उसके लिए करोड़ों डालर के अत्याधुनिक हथियार छोड़ दिए, बल्कि इस आतंकी समूह के साथ साझेदारी का भी एलान किया। याद रहे कि इसी क्रूर आतंकी संगठन के हाथ 2,000 से अधिक अमेरिकी सैनिकों के खून से रंगे हुए हैं।

बाइडन प्रशासन कई मुगालते पाले हुए है। वह मानता है कि तालिबान और अमेरिका, दोनों आइएस-खुरासान के शत्रु हैं। जबकि तालिबान ने ही खुरासान के कई आतंकियों को अमेरिकी कैद से छुड़वाया। ऐसे में वे कैसे दुश्मन हो सकते हैं? इसी तरह वह तालिबान और हक्कानी नेटवर्क को अलग संगठन मानता है। जबकि इसी हक्कानी नेटवर्क का मुखिया सिराजुद्दीन हक्कानी तालिबान के शीर्ष नेताओं में शुमार है और उसे नई अंतरिम सरकार में गृह मंत्रलय का जिम्मा मिला है। यही हक्कानी नेटवर्क मानव बम बनाने वाला दुनिया का सबसे बड़ा आतंकी दस्ता है। इसके बावजूद बाइडन प्रशासन ने काबुल से अपने और सहयोगी देशों के नागरिकों की सुरक्षित वापसी के लिए इसी हक्कानी नेटवर्क पर भरोसा किया और अफगान में शेष रह गए लोगों को इन विक्षिप्त धार्मिक उन्मादी तानाशाहों के रहमोकरम पर छोड़ दिया। बाइडन भले ही अमेरिका के सबसे लंबे युद्ध की समाप्ति का श्रेय लेना चाहते हों, मगर उन्होंने अफगानिस्तान को बड़े खतरे की आग में झोंक दिया है। बाइडन ने अमेरिका की अंतरराष्ट्रीय साख को जो नुकसान पहुंचाया है, उसका सिलसिला लंबा खिंच सकता है।

(लेखक सामरिक विश्लेषक हैं)

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