Control On Digital Media In India: बेलगाम सोशल मीडिया पर जरूरी है लगाम, जानें एक्‍सपर्ट की राय

सोशल मीडिया जहां नकारात्मकता फैला रहा है वहीं अवसाद और दूसरी मानसिक बीमारियों का भी कारण बन रहा है। तमाम शोध रिपोर्ट में निरंतर इस तथ्य को दर्शाया जा रहा है कि सोशल मीडिया लोगों के व्यवहार में बदलाव ला रहा है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Tue, 29 Sep 2020 09:48 AM (IST) Updated:Tue, 29 Sep 2020 09:48 AM (IST)
Control On Digital Media In India: बेलगाम सोशल मीडिया पर जरूरी है लगाम, जानें एक्‍सपर्ट की राय
सोशल मीडिया को नियंत्रित किया जाना चाहिए।

उमेश चतुर्वेदी। लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों की बहाली को लेकर अरब देशों में छिड़े आंदोलन की वजह से जिस सोशल मीडिया की वर्ष 2011 में बलैया ली जा रही थीं, नौ साल बाद पूरी दुनिया उसी सोशल मीडिया को नियंत्रित करने की सोचने लगी है। यह ठीक है कि ट्यूनीशिया से शुरू लोकतंत्र समर्थक आंदोलन को गति देने में सोशल मीडिया ने बड़ी भूमिका निभाई, देखते ही देखते जिसका असर मिस्न के तहरीर चौक तक पहुंच गया, जहां लोकतंत्र के समर्थन में व्यापक जुटान हुआ। अरब से बही बयार उसी वर्ष भारत पहुंच गई और यहां भी सोशल मीडिया की क्रांति ने अपना प्रभाव दिखाना शुरू कर दिया। अन्ना हजारे की अगुआई में दिल्ली के जंतर-मंतर पर हुए इंडिया अगेंस्ट करप्शन के आंदोलन के रूप में इसका नतीजा सामने आया।

देश से लेकर विदेशों तक फैले भारतीय समुदाय को इस आंदोलन से जोड़ने में सोशल मीडिया ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यही वजह रही कि सोशल मीडिया को तब वैश्विक इतिहास का सबसे क्रांतिकारी आविष्कार माना जाने लगा। इन दिनों यह सवाल मौजूं हो चुका है कि जिस सोशल मीडिया में लोगों को उम्मीद नजर आने लगी थी, आखिर ऐसा क्या हुआ कि अब उसे दैत्याकार और विनाशक रूप में देखा जाने लगा है। सुप्रीम कोर्ट में एक टीवी चैनल पर प्रसारित होने जा रहे एक कार्यक्रम के खिलाफ दायर याचिका की सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने जो हलफ नामा दायर किया है, उसमें सरकार ने भी माना है कि समाचार, मनोरंजन, खेल, भक्ति और विज्ञापन क्षेत्र से जुड़े चैनलों ने आत्म अनुशासन और आत्म नियमन के लिए स्वायत्त इंतजाम कर रखे हैं। लेकिन डिजिटल मीडिया में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है, लिहाजा उसको रेगुलेट करने की सख्त जरूरत है।

यह पहला मौका नहीं है जब सरकार ने सोशल मीडिया को लेकर ऐसी बात कही है। इसके पहले 22 अक्टबर 2019 को भी सरकार, सुप्रीम कोर्ट में ऐसी ही बात कह चुकी है। तब सरकार ने कहा था, इंटरनेट और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ने भड़काऊ बयानों और फर्जी खबरों की समस्या काफी बढ़ा दी है। उसके मुताबिक इससे गैर कानूनी और राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में भी भारी इजाफा हुआ है। इसके चलते लोकतांत्रिक राजनीति को खतरा है।

यह सच है कि अपने आर्थिक दबावों और अपनी सांस्थानिक नीतियों की वजह से मुख्यधारा का मीडिया कई बार कुछ असहज समाचारों से परहेज कर लेता है। लेकिन सामान्यतया वह अतिरेकी नहीं हो पाता। अखबारों और दूसरे प्रकाशनों में अपवादस्वरूप ही समाचारों और विचारों को लेकर अतिरेकी व्यवहार दिखता है। इसकी वजह यह है कि भारतीय अखबारों का जन्म स्वाधीनता आंदोलन की कोख से हुआ है। आजादी के पहले तक उनका मुख्य उद्देश्य भारतीयता और राष्ट्रीयता के प्रति जागरूकता बढ़ाना था। तब वे स्वाधीनता आंदोलन के सहयोगी थे। स्वाधीनता के बाद के भारतीय समाज को बनाने को लेकर उनकी गहरी दिलचस्पी थी, इसलिए भावी लोकवृत्त के लिए मानवीय और राष्ट्रीय मूल्य बढ़ाने में भी वे आते रहे।

अखबारों का करीब 240 वर्षो का लंबा इतिहास है, और इसके साथ उनमें मूल्यों को आत्मसात करने की परंपरा रही है, लिहाजा तमाम गिरावट के बावजूद अखबार अब भी संतुलित रहने की कोशिश करते हैं। फिर आजाद भारत में अखबारों-पत्रिकाओं के प्रकाशनों को नियमित करने के लिए भारतीय प्रेस पंजीयन अधिनियम के साथ ही कुछ अन्य कानून हैं, प्रेस परिषद कार्यरत है, यही वजह है कि सोशल मीडिया की तुलना में उनके यहां संयम और संतुलन ज्यादा है।

सरकार ने टीवी चैनलों के स्वनियमन पर अपने हलफमाने में सवाल नहीं उठाया है, इसका यह मतलब नहीं है कि खबरिया टीवी चैनलों में वैसा ही संतुलन है, जैसा प्रिंट माध्यमों में दिखता है। सोशल मीडिया का उन पर भी असर दिखता है। वैसे भी वे नौटंकी शैली में विकसित हुए हैं, तमाशा संस्कृति में उनका भरोसा ज्यादा है, लिहाजा वे भी सोशल मीडिया की तरह सनसनीबाजी या व्यापक समुदाय से जुड़े मुद्दों की बजाय तमाशाबाजी वाले मुद्दों पर ज्यादा फोकस रहते हैं।

सोशल मीडिया पर इन दिनों अच्छी बातें भी प्रसारित हो रही हैं, लेकिन उसकी तुलना में फेक न्यूज अधिक फैलाई जा रही है। इससे न सिर्फ लोगों का भ्रम बढ़ा है, बल्कि प्रशासनिक व्यवस्था की चुनौती भी बढ़ी है। दो साल पहले मध्य प्रदेश में फेक न्यूज के चलते हुए एक दंगे का संदर्भ देते हुए राज्य के तत्कालीन पुलिस महानिदेशक ने कहा था कि प्रशासनिक तंत्र को पता था कि यह फेक न्यूज है और वह कार्रवाई कर ही रहा था कि दंगे फैल गए। हाल ही में पारित नागरिकता संशोधन कानून हो या फिर किसानों से जुड़े कानून, इन संदर्भो में जमकर फेक न्यूज फैलाया गया। सोशल मीडिया पर प्रसारित फेक न्यूज को ऐसे फैलाया जाता है कि सामान्य यूजर तक उसकी सच्चाई नहीं समझ पाता। इसी संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश दीपक गुप्ता ने अक्टूबर 2019 में कहा था कि वे सोच रहे हैं कि एंड्रॉयड फोन की बजाय फीचर फोन ले लें, ताकि नकारात्मकता से बचे रह सकें।

पारंपरिक मीडिया की तुलना में भारत में सोशल मीडिया के ज्यादा खतरनाक होने की वजह है, उसकी व्यापक पहुंच। साल 2019 के जुलाई में फेसबुक और वाट्सएप को संचालित करने वाली कंपनी फेसबुक ने खुद स्वीकार किया था कि भारत में 26 करोड़ फेसबुक और 40 करोड़ वाट्सएप यूजर हैं। इसी तरह ट्वीटर यूजरों की संख्या साढ़े तीन करोड़ है। फिर इनकी पहुंच भी तात्कालिक और व्यापक है। सोशल मीडिया के ये तीनों प्लेटफॉर्म मुट्ठी में बंद एंड्रॉयड फोन के जरिये पहुंच में हैं। इन आंकड़ों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत जैसे देश में एक फेक न्यूज के जरिये एक ही बार में कितने लोगों को प्रभावित किया जा सकता है।

बीते वर्षो में आए अनेक दुष्परिणामों को देखते हुए दुनियाभर के समाजशास्त्री और मनोवैज्ञानिक भी मानते हैं कि सोशल मीडिया को नियंत्रित किया जाना चाहिए। हाल के वर्षो में ऐसे अनेक प्रकरण सामने आए हैं जिन कारणों से सोशल मीडिया के नियमन की जरूरत महसूस की जा रही है।

[वरिष्ठ पत्रकार]

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