आंबेडकर पुण्यतिथि : हाशिए पर खड़े समुदायों के लिए पृथक निर्वाचिका की मांग कर समाज को जोड़ने की दिशा में की थी पहल

बाबा साहब आंबेडकर वास्तविक में समानता के सच्चे पैरोकार थे। हालांकि जब उन्हें भारत सरकार अधिनियम 1919 तैयार कर रही साउथबोरो समिति के समक्ष गवाही देने के लिए आमंत्रित किया गया तो उन्होंने सुनवाई के दौरान दलितों एवं कुछ अन्य समुदायों के लिए कुछ विशेषाधिकारों की मांग की।

By Neel RajputEdited By: Publish:Mon, 06 Dec 2021 08:30 AM (IST) Updated:Mon, 06 Dec 2021 08:30 AM (IST)
आंबेडकर पुण्यतिथि : हाशिए पर खड़े समुदायों के लिए पृथक निर्वाचिका की मांग कर समाज को जोड़ने की दिशा में की थी पहल
बाबा साहब आंबेडकर वास्तविक में समानता के सच्चे पैरोकार थे

अरविंद जयतिलक। हिंसामुक्त समानता पर आधारित समाज के पैरोकार रहे बाबा साहब भीमराव आंबेडकर की सामाजिक और राजनीतिक सुधारक के रूप में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका की विरासत का आधुनिक भारत पर गहरा प्रभाव पड़ा। यही वह कारण है कि मौजूदा दौर में देश के लगभग सभी राजनीतिक दल, चाहे उनकी विचारधारा और सिद्धांत कितने ही भिन्न क्यों न हों, सभी बाबा साहब की सामाजिक और राजनीतिक सोच को आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं। बाबा साहब के राजनीतिक और सामाजिक दर्शन के कारण ही आज विशेष रूप से दलित समुदाय में शिक्षा को लेकर सकारात्मक समझ पैदा हुई है।

बाबा साहब आंबेडकर वास्तविक में समानता के सच्चे पैरोकार थे। हालांकि जब उन्हें भारत सरकार अधिनियम 1919 तैयार कर रही साउथबोरो समिति के समक्ष गवाही देने के लिए आमंत्रित किया गया तो उन्होंने सुनवाई के दौरान दलितों एवं कुछ अन्य समुदायों के लिए कुछ विशेषाधिकारों की मांग की। तब उनकी इस मांग की आलोचना हुई और उन पर आरोप लगा कि वे भारतीय राष्ट्र एवं समाज की एकता को खंडित करना चाहते हैं। पर सच तो यह है कि उनका इस तरह का कोई उद्देश्य नहीं था। उनका असल उद्देश्य इस मांग के जरिये ऐसे रुढ़िवादी हिंदू राजनेताओं को सतर्क करना था जो जातीय भेदभाव से लड़ने के प्रति गंभीर नहीं थे। दरअसल इंग्लैंड से लौटने के बाद जब उन्होंने भारत की धरती पर कदम रखा तो समाज में छुआछूत और जातिवाद चरम पर था। उन्हें लगा कि यह सामाजिक कुप्रथा और खंडित समाज देश को कई हिस्सों में तोड़ देगा। सो उन्होंने हाशिए पर खड़े समुदायों के लिए पृथक निर्वाचिका की मांग कर परोक्ष रूप से समाज को जोड़ने की दिशा में पहल तेज की। ब्रिटिश हुकूमत की विफलताओं से नाराज डा. आंबेडकर ने अस्पृश्य समुदाय को समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए एक ऐसी अलग राजनीतिक पहचान की वकालत की जिसमें कांग्रेस और ब्रिटिश दोनों का कोई दखल न हो।

आठ अगस्त 1930 को उन्होंने एक शोषित वर्ग के सम्मेलन के दौरान अपनी राजनीतिक दृष्टि को दुनिया के सामने रखते हुए कहा, ‘हमें अपना रास्ता स्वयं बनाना होगा। राजनीतिक शक्तियां शोषितों की समस्याओं का निवारण नहीं कर सकतीं। लिहाजा हमें उनको शिक्षित करना चाहिए, उनका उद्धार समाज में उनको उचित स्थान मिलने में निहित है।’ इस भाषण में आंबेडकर ने कांग्रेस की नीतियों की जमकर आलोचना की। दरअसल आंबेडकर ही एकमात्र ऐसे राजनेता थे जो छुआछूत प्रथा की निंदा करते थे।

वर्ष 1932 में जब ब्रिटिश हुकूमत ने उनके साथ सहमति व्यक्त करते हुए अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने की घोषणा की तब महात्मा गांधी ने इसके विरोध में पुणो की यरवदा सेंट्रल जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया। यह आंबेडकर का ही प्रभाव था कि गांधी ने अनशन के जरिये रुढ़िवादी हिंदू समाज से सामाजिक भेदभाव और अस्पृश्यता को खत्म करने की अपील की। रुढ़िवादी हिंदू नेताओं, कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं तथा पंडित मदन मोहन मालवीय ने आंबेडकर और उनके समर्थकों के साथ यरवदा में संयुक्त बैठकें कीं।

अनशन के कारण गांधी की मृत्यु होने की स्थिति में, आसन्न सामाजिक प्रतिशोध के कारण होने वाली अछूतों की हत्याओं के डर से और गांधी के समर्थकों के भारी दबाव के चलते आंबेडकर ने अपनी पृथक निर्वाचिका की मांग वापस ले ली। गौरतलब है कि आरक्षण प्रणाली में पहले दलित अपने लिए संभावित उम्मीदवारों में से चुनाव द्वारा चार संभावित उम्मीदवार चुनते और फिर इन चार उम्मीदवारों में से संयुक्त निर्वाचन द्वारा एक नेता चुना जाता। उल्लेखनीय है कि इस आधार पर केवल एक बार 1937 में ही चुनाव हुए। दरअसल आंबेडकर चाहते थे कि अछूतों को कम से कम 20-25 वर्षो तक आरक्षण मिले, जबकि कांग्रेस के नेता इसके पक्ष में नहीं थे।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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