स्वास्थ्य बजट में हिस्सेदारी बढ़ाकर ही सुधरेगी आयुर्वेद की स्थिति, दो फीसद से भी कम है हिस्सा

देश के कुल स्वास्थ्य बजट का 92 प्रतिशत एलोपैथी सिस्टम को दिया जाता रहा है शेष आठ प्रतिशत में आयुष के अंतर्गत आने वाली छह चिकित्सा पद्धतियों की हिस्सेदारी है। आयुर्वेद के हिस्से में दो प्रतिशत से भी कम बजट आता है।

By TaniskEdited By: Publish:Sat, 23 Jan 2021 03:33 PM (IST) Updated:Sat, 23 Jan 2021 03:33 PM (IST)
स्वास्थ्य बजट में हिस्सेदारी बढ़ाकर ही सुधरेगी आयुर्वेद की स्थिति, दो फीसद से भी कम है हिस्सा
प्रत्येक काल में उपलब्ध संसाधनों व जरूरतों के अनुरूप समकालीन प्रयोग होते रहे हैं और आयुर्वेद में जुड़ते रहे हैं।

[डॉ. आर अचल]। एलोपैथी और आयुर्वेद के वर्तमान विमर्श में सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि देश के कुल स्वास्थ्य बजट का 92 प्रतिशत एलोपैथी सिस्टम को दिया जाता रहा है, शेष आठ प्रतिशत में आयुष के अंतर्गत आने वाली छह चिकित्सा पद्धतियों की हिस्सेदारी है। विडंबना देखिए कि आयुर्वेद के हिस्से में दो प्रतिशत से भी कम बजट आता है। आयुर्वेद के अनेक राष्ट्रीय व राजकीय संस्थानों में पर्याप्त फैकल्टी का अभाव है। बहुत सारे संस्थानों में ओपीडी में मरीजों की संख्या लगभग शून्य है।

प्रयोगशालाएं धनाभाव व फैकल्टी की अनिच्छा के कारण अनुपयोगी बन चुकी हैं। तमाम निजी कॉलेज कागजी औपचारिकता से संचालित हो रहे हैं। ऐसे में आयुर्वेद की डिग्री लेकर छात्र एलोपैथिक अस्पतालों में इंटर्नशिप करते हैं, जहां एलोपैथिक चिकित्सकों के अधीन प्रशिक्षण के कारण आयुर्वेद भूलकर दोयम दर्जे के एलोपैथिक चिकित्सक बन जाते हैं। इसका एक कारण यह भी है कि आयुर्वेद शिक्षण संस्थानों में शिक्षण के प्रायोगिक पक्ष के बजाय सैद्धांतिक पक्ष को अधिक महत्व दिया जाता है।

चरक से सैकड़ों साल पहले का है आचार्य सुश्रुत का काल

पीजी पाठ्यक्रम की प्रवेश परीक्षाओं में पूछे जाने वाले प्रश्नों में अधिकतम चरक संहिता से होते हैं, जबकि इस संदर्भ मे सुश्रुत व नागाजरुन अधिक प्रायोगिक व व्यावहारिक हैं। शोध कार्यो में भी दर्शन व जीवन शैली पर ढेर सारे शोधपत्र पढ़े जाते हैं। शल्य और रसशास्त्र के शोधपत्र किंचित ही पढ़ने-देखने को मिलते हैं। जबकि विद्वानों का मानना है कि शल्य ग्रंथ सुश्रुत संहिता चरक की अपेक्षा अधिक विज्ञान सम्मत व प्रायोगिक है। आचार्य सुश्रुत का काल, चरक से सैकड़ों साल पहले रहा है। सुश्रुत संहिता को परिष्कृत कर शल्यकर्म को अत्यधिक परिणाम परक बनाने का उल्लेख भी मिलता है। परंतु खेद है कि आयुर्वेद के पाठ्यक्रम में इन पक्षों को अधिक महत्व नहीं दिया गया है।

एलोपैथी समुदाय का दुराग्रहपूर्ण कथन

हालिया शासनादेश के संदर्भ में एलोपैथी समुदाय का यह कहना दुराग्रहपूर्ण है कि आयुर्वेद चिकित्सकों को सर्जरी के लिए अपने संसाधन विकसित करने चाहिए। वे यह भूल जाते हैं कि सर्जरी के लिए यंत्र का विकास एलोपैथी चिकित्सकों ने नहीं, बल्कि विज्ञानियों ने किया है। ऐसा संभव नहीं कि आयुर्वेदिक-एलोपैथिक कैंची अलग-अलग होगी। विद्युत और औजार तो एक ही होंगे, पर दवाएं अलग होनी चाहिए। यहां भी एक तथ्य यह है कि आधुनिक सर्जरी में जितने भी यंत्र प्रयोग में लाए जाते हैं, वे सभी सुश्रुत संहिता में वर्णित हैं।

राष्ट्रीय स्वास्थ्य बजट में आयुर्वेद की हिस्सेदारी बढ़ानी होगी

इन परिस्थितियों में केवल शासनादेश से न आयुर्वेद का भला होना है, न जनता का। इसके लिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य बजट में आयुर्वेद की हिस्सेदारी बढ़ानी होगी, ताकि संस्थानों में आवश्यक संसाधनों की उपलब्धता सुनिश्चित हो सके। पाठ्यक्रम को व्यावहारिक व उपयोगी बनाना होगा। कुशल आयुर्वेदिक शल्य चिकित्सक तैयार करने के लिए सुश्रुत व नागार्जुन को पाठ्यक्रम में महत्व देना होगा। संस्थानों में प्रयोगशालाओं को आधुनिक व सुदृढ़ करना होगा। तभी यह शासनादेश सार्थक होगा, अन्यथा यह एक औपचारिक घोषणा से अधिक कुछ नहीं सिद्ध होगा।

[लेखक- वर्ल्ड आयुर्वेद फाउंडेशन के संयोजक सदस्य हैं]।

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