गांधीजी के सपनों के भारत में स्वच्छता के प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ी है

सरकार मैला ढोने और हाथों से सीवर की सफाई पर पूरी तरह रोक लगाकर स्वच्छ भारत अभियान कोसंपूर्ण मायने में चरितार्थ करे।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Tue, 18 Sep 2018 11:34 PM (IST) Updated:Wed, 19 Sep 2018 05:00 AM (IST)
गांधीजी के सपनों के भारत में स्वच्छता के प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ी है
गांधीजी के सपनों के भारत में स्वच्छता के प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ी है

[ केसी त्यागी ]: देश की राजधानी दिल्ली में सीवर साफ करते समय एक और सफाई कर्मी की जान चली गई। एक आंकड़े के अनुसार बीते एक सप्ताह में सीवर साफ करने के दौरान मरने वाले सफाई कर्मियों की संख्या छह तक पहुंच गई है। बीते सप्ताह दिल्ली में ही एक निजी आवासीय सोसायटी में बचाव उपकरणों के बिना गहरे सीवर की सफाई करने के दौरान चार सफाई कर्मियों की मौत हो गई थी। इस तरह की खबरें मानवता के प्रति हमारी संवेदनहीनता को ही उजागर नहीं करतीं, बल्कि समय-समय पर संवैधानिक कानूनों के हनन का उदाहरण भी पेश करती हैं।

अफसोस है कि स्वच्छता अभियान के तमाम दावों के बीच समाज को शर्मसार करने वाली ऐसी घटनाएं दिल्ली जैसे शहर में भी रह-रह कर घट रही हैं। छोटे-बड़े सभी शहरों के आवासीय-कार्यालय परिसरों के सेप्टिक टैंकों की सफाई के लिए ठेकेदारों द्वारा 500-600 रुपये के लालच में अकुशल सफाई कर्मियों को बिना बेल्ट, मास्क, टॉर्च और अन्य बचाव उपकरणों के ही 10-15 मीटर गहरे टैंकों में उतार कर सफाई प्रक्रिया को अंजाम दिया जाता है। पैसों के लालच में सफाई मजदूर अपनी जान पर खेलकर चैैंबरों में उतरने का जोखिम उठाते हैं, जहां कई बार अमोनिया, कार्बन मोनोऑक्साइड, सल्फर डाईऑक्साइड आदि जहरीली गैसों से उनकी मौत हो जाती है।

यह चिंताजनक है कि सफाई कर्मियों की मौतों की संख्या में निरंतर बढ़ोतरी हो रही है। पिछले वर्ष अगस्त माह में तीन अलग-अलग स्थानों पर छह सफाई कर्मियों की मौत सरकारी ध्यानाकर्षण का केंद्र अवश्य बनी, लेकिन अमानवीय और असुरक्षित तरीके से सफाई कार्य बेरोक-टोक जारी रहा। एक आंकड़े के तहत पिछले दस वर्षों में सफाई के दौरान केवल मुंबई नगर निगम के 2721 सफाई कर्मियों की मौत हुई है। ऐसी ही मौतें अन्य शहरों में भी हुई हैैं। इस स्थिति में सवाल यह है कि क्या नगर निगम जैसी सरकारी संस्थाएं भी अदालती निर्देशों से अनभिज्ञ हैैं या फिर केंद्र और राज्य सरकारेंं न्यायालय के निर्देशों का पालन करने-कराने में असमर्थ हैं? यह सवाल इसलिए, क्योंकि समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट से सख्त निर्देश आते रहे हैं कि सफाई कर्मियों की जान जोखिम में डालने से बचा जाए।

पिछले वर्ष जुलाई में मद्रास उच्च न्यायालय की ओर से केंद्र सरकार और तमिलनाडु सरकार को हाथ से मैला ढोने वाली चल रही प्रथा पर सख्त नजर रखने का निर्देश दिया गया था। कहना कठिन है कि इसका अपेक्षित असर हुआ। लगभग आठ वर्ष पूर्व सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सभी राज्यों को सफाई कर्मियों को सुरक्षा उपकरणों से लैस करने और इस संबंध में मानवाधिकार आयोग के दिशा-निर्देशों पर सख्ती से पालन का निर्देश दिया गया था। इसी तरह सितंबर 1993 को मैला ढोने और शुष्क शौचालयों के निर्माण पर रोक लगाने वाला कानून बनाया गया था। मैला ढोने जैसे रोजगार पर निषेध और पुनर्वास अधिनियम 2013 के खंड-7 के तहत सेप्टिक टैंकों की सफाई जैसे खतरनाक कार्य करने पर प्रतिबंध है। मौजूदा कानून के अंतर्गत इस तरह के सफाई कार्य और शुष्क शौचालयों का जारी रहना संविधान की धारा 14, 17, 21 और 23 का उल्लंघन है।

इन कानूनों के बावजूद एक बड़ी संख्या में लोग ऐसे कामों में लगे हुए हैं। 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को 2013 का कानून पूरी तरह लागू करने, सीवर-टैंकों की सफाई के दौरान हो रही मौतों पर काबू पाने, मरने वालों के आश्रितों को दस लाख रुपये का मुआवजा देने का आदेश दिया था। अफसोस कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश भी कागजों तक सीमित रह गए। 2011 के आर्थिक-सामाजिक और जातिगत जनगणना की रिपोर्ट के अनुसार आठ लाख भारतीय सिर पर मैला ढोने का काम करते हैं। इससे उन्हें सामाजिक भेदभाव के दंश भी झेलने पड़ते हैं।

यह एक सच्चाई है कि आज स्वच्छता के प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ी है, लेकिन सफाई कर्मियों की दर्दनाक मौतें स्वच्छता अभियान की उपलब्धियों को फीका करती हैं। गत वर्ष जब चंपारण सत्याग्रह की सौवीं वर्षगांठ धूमधाम से मनाई गई तो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के संदेशों को खूब प्रचारित किया गया। अच्छा होता कि उन संदेशों पर अमल भी होता। गांधीजी अपनी गंदगी खुद साफ करते थे। यही शर्त साबरमती आश्रमवासियों के लिए भी थी। यह दुखद है कि गांधीजी के सपनों के भारत में सफाई का काम एक वर्ग विशेष पर थोपा जा रहा है। मैकेनिकल प्रक्रिया के अभाव में शौचालयों और सीवर की सफाई हाथों से ही होती है।

2011 के आंकड़ों के अनुसार देश में शुष्क शौचालयों की संख्या लगभग 26 लाख थी और लगभग 14 लाख शौचालयों की गंदगी खुले में प्रवाहित होती थी। इनमें आठ लाख से अधिक शौचालयों की सफाई हाथों द्वारा की जाती थी। सीवर की सफाई के दौरान वहां की जहरीली गैसों से सफाई कर्मियों को जलन, सांस, उल्टी, सिरदर्द, संक्रमण और हृदय रोग की समस्या का सामना करना पड़ता है। यह ठीक नहीं कि तमाम कानूनी प्रावधानों के बावजूद यह अमानवीय प्रथा जारी है।

राज्य सरकारों द्वारा भी इस दिशा में किए गए प्रयास विफल ही साबित हुए हैैं। तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, असम, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों में स्थिति अधिक बदतर है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आए दिन सफाई कर्मियों की मौत से जुड़ी खबरें सामने आती हैं, लेकिन ऐसे कार्यों में संलिप्त ठेकेदारों की गिरफ्तारी की खबर मुश्किल से ही आती है। कानूनी प्रावधानों के बावजूद सीवर टैंकों की सफाई के दौरान हुई मृत्यु के बाद आश्रितों को मुआवजे तक से वंचित रह जाना, पुनर्वास की व्यवस्था में अनियमितता और सफाई कर्मियों के लिए अन्य रोजगार सृजन में नाकामी संस्थागत कमियों के नमूने हैं।

आज देश की स्वच्छता हमारे सबसे बड़े अभियानों में सबसे महत्वपूर्ण है। इस सूरत में यह समझना होगा कि देश के शहरी और उप-शहरी क्षेत्रों के करोड़ों शौचालय अंडरग्राउंड ड्रेनेज सिस्टम से नहीं जुड़े हैं और उनकी सफाई के लिए कोई मैकेनिकल प्रक्रिया भी प्रचलन में नहीं है। सीवर सफाई के लिए कर्मचारियों को गैस प्रूफ फुल बॉडी सूट, एयर पाइप, हेलमेट आदि प्राथमिक उपकरण भी उपलब्ध नहीं हैैं। मैकेनिकल तरीके से नाले-टैंकों की सफाई ही जान बचाने का एकमात्र विकल्प है। मौजूदा सरकार जनहित की कई योजनाओं को लेकर आई है। अब वक्त आ गया है कि सरकार मैला ढोने और हाथों से सीवर की सफाई पर पूरी तरह रोक लगाकर स्वच्छ भारत अभियान को संपूर्ण मायने में चरितार्थ करे।

[ लेखक जनता दल-यू के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं ]

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