कोरोना संकट के इस दौर में बड़े पैमाने पर प्रवासियों के सुख-दुख को प्रभावित करते पहलू

महानगरों में परिवहन और पर्यावरण के बदतर होते हालात जीवनयापन का बढ़ता खर्च की तस्वीर जैसे पहलू प्रवासी कामगारों को यहां से अपकर्षण के लिए प्रेरित कर सकते हैं।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Mon, 25 May 2020 10:36 AM (IST) Updated:Mon, 25 May 2020 10:36 AM (IST)
कोरोना संकट के इस दौर में बड़े पैमाने पर प्रवासियों के सुख-दुख को प्रभावित करते पहलू
कोरोना संकट के इस दौर में बड़े पैमाने पर प्रवासियों के सुख-दुख को प्रभावित करते पहलू

डॉ. अमिय कुमार महापात्र / डॉ. दीपक जोशी। कोरोना के कारण लॉकडाउन के चलते प्रवासी मजदूरों-कामगारों का बड़ी संख्या में अपने गृह राज्यों की ओर वापसी की घटना के संदर्भ में ब्रिटिश विद्वान रेवेन्स्टाइन की चर्चा प्रासंगिक नजर आती है। रेवेन्स्टाइन प्रावसियों के मामले में व्यापक रूप से आरंभिक विचारक माने गए हैं। उन्होंने वर्ष 1889 में अपने ‘लॉज ऑफ माइग्रेशन’ में निष्कर्ष दिया कि प्रवास ‘पुश-पुल’ यानी अपकर्षण-आकर्षण प्रक्रिया द्वारा प्रभावित होता है अर्थात एक स्थान पर प्रतिकूल परिस्थितियां (शिक्षा या रोजगार के अवसरों की कमी, सांस्कृतिक संघर्ष और सामाजिक अस्वीकृति आदि) लोगों को बाहर धक्का देते हैं और दूसरे स्थान में अनुकूल परिस्थितियां (श्रेष्ठ रोजगार, शिक्षा व मनोरंजन के अवसर आदि) लोगों को अपनी ओर खींचती हैं।

प्रवासन की प्रक्रिया सदियों पुरानी है, लेकिन समय के साथ इसमें बहुत बदलाव आया है। प्रवास के कारणों और प्रकृति में काफी परिवर्तन हुआ है। कोरोना संकट के बीच प्रवास के नए अर्थशास्त्र की अंतर्दृष्टि ने आर्थिक और गैर-आर्थिक कारणों की भूमिका व महत्व का विश्लेषण करने के लिए मजबूर किया है। भारत में प्रवासन को मजबूरी कहा जाए या विकल्प यह तो सामाजिक विशेषज्ञ ही बता पाएंगे, लेकिन इस दौर में यह रेवेन्स्टाइन के पैमानों से इतर नए प्रकार के ‘लॉ ऑफ रिवर्स माइग्रेशन’ को जन्म दे रहा है। जहां इसका सबसे बड़ा कारक मजबूरी जान पड़ता है, एक ऐसी मजबूरी जो उपेक्षा से उपजी है, जिसमें भूख व मृत्यु के भय से ज्यादा अपनों के बीच अपने घर-गांव पहुंचने की लालसा है। सरकारों की तमाम कोशिशों के बावजूद इस महामारी के दौरान जीवन और आजीविका की इस जंग में जो वर्ग सबसे ज्यादा प्रभावित और दयनीय नजर आ रहा है, वह शायद इन्हीं प्रवासी कामगारों का है।

यदि हमारे पास इनकी आजीविका की सुरक्षा की पुख्ता योजना या नीति होती तो पिछले करीब दो माह से इतनी बड़ी संख्या में मजदूर-कामगार शायद ऐसी नारकीय पीड़ा सहन करते हुए अपने गांवों की ओर जाते हुए नहीं दिखते। फैक्टियों और असंगठित क्षेत्रों द्वारा मजदूरों का शोषण कोई नया नहीं है, भला संकट की इस घडी में उनका दिल पसीज गया हो, इसकी क्या गारंटी है। गांवों की ओर पलायन करने वालों में अधिकांश लोग असंगठित क्षेत्रों में काम करते हैं। प्रधानमंत्री द्वारा घोषित 20 लाख करोड़ रुपये के आत्मनिर्भर भारत राहत पैकेज में से वित्तमंत्री द्वारा 3.16 लाख करोड़ प्रवासी मजदूरों, किसानों एवं गरीबों को समर्पित होने से इनकी पीड़ा पर मरहम जरूर लगेगा। साथ ही केंद्र सरकार समेत तमाम राज्य सरकारों ने अपनी क्षमता के हिसाब से प्रभावित लोगों को अनेक प्रकार से सहायता पहुंचाना सुनिश्चित किया है। इन प्रयोजनों का लाभ निश्चित प्रतीत होता है, क्योंकि जनधन खाते, ‘आधार’ आधारित नकद लाभ हस्तांतरण जैसी सुविधा भारत सरकार द्वारा पहले से ही सुदृढ़ की जा चुकी है, लेकिन इसके बाद कामगारों व मजदूरों के इस पलायन से श्रम-बाजार में असंतुलन होना अवश्यंभावी नजर आता है। अर्थशास्त्रीय दृष्टि से महानगरीय-शहरी औद्योगिक क्षेत्रों में जहां इनकी मांग ज्यादा है वहां इनकी उपलब्धता कम होगी और ग्रामीण या अन्य क्षेत्रों में इनकी बहुतायत हो जाएगी।

रेवेन्स्टाइन के सिद्धांत के अनुसार, प्रवासन के माध्यम से यह संतुलन पहले स्वयं हो जाया करता था, परंतु कोरोना के उपरांत इसके स्वयं होने के आसार बहुत कम दिखाई दे रहे हैं, फलस्वरूप दोनों जगह के संसाधनों पर अलग तरह का असर पड़ेगा। उल्लेखनीय है कि 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में कुल प्रवासियों की संख्या 45 करोड़ थी और 2013 में यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार प्रवासियों का जीडीपी में योगदान 10 प्रतिशत बताया गया था। आज जिन क्षेत्रों या राज्यों से पलायन हो रहा है उसके असर का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि लॉकडाउन में अकेले सूरत में करीब 10 लाख प्रवासी तुरंत अपने राज्यों को लौटने के इच्छुक थे। अत: महानगरीय क्षेत्रों में श्रमिकों एवं कामगारों की कमी के कारण, कई सेवाओं और वस्तुओं में महंगाई व कमी हो सकती है। उदाहरणार्थ मुंबई व दिल्ली से कई ऑटो-रिक्शे वालों का पलायन स्थानीय परिवहन की समस्या को जन्म दे सकता है, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में इनकी अधिकता और सिमटता कृषि रकबा दैनिक पारिश्रमिक व अवसरों पर असर डाल सकता है। हालांकि भारत सरकार द्वारा कृषि क्षेत्र के आधारभूत ढांचे हेतु जारी एक लाख करोड़ एवं मधुमक्खी पालन व पशुपालन से लेकर मछली पालन आदि योजनाओं का यदि सही कार्यान्वयन किया जा सके तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था व कृषि क्षेत्र को बल मिलना स्वाभाविक है।

इस स्थिति में केंद्र के आत्मनिर्भर भारत अभियान को राज्य सरकारें अपने स्तर पर कैसे आगे ले जाएंगी यह भी देश की दिशा-दशा तय करेगा। जैसे उत्तराखंड सरकार के लौटे प्रवासियों के कौशल को मापना और मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना के तहत अनुदान माध्यम से आत्मनिर्भरता को प्रोत्साहन देने जैसे कदम अन्य राज्यों के लिए भी मील का पत्थर साबित हो सकते हैं। इसी के सापेक्ष वह राज्य, जहां से लोग पलायन कर गए हैं वह लोगों को पुन: आकर्षित करने हेतु क्या करते हैं, अभी यह यक्ष प्रश्न बना हुआ है। संभव है कि हालात सामान्य होने पर घर वापसी के दूसरे चरण की भी शुरुआत हो जाए। यदि ऐसा हुआ तो इस चरण में स्वेच्छा से तथा साधन संपन्न लोगों की घर वापसी की संख्या कहीं अधिक होगी। इस पलायन का कारक मजबूरी नहीं, बल्कि रेवेन्स्टाइन के पुश-पुल सदृश कारक होंगे। कुछ राज्यों द्वारा ऐसे समय में आर्थिक गतिविधियों को सुगम बनाने के प्रयास में श्रम कानूनों को शिथिल बनाना दोधारी तलवार पर चलने के समान हो सकता है और ऐसी परिस्थितियों से बचने के लिए सरकारों को अपने अपने स्तर पर अपने यहां कामगारों हेतु बेहतर सुविधाएं तथा माहौल आश्वस्त करना चाहिए ताकि संतुलन बना रहे। सरकारों को ‘एक राष्ट्र-एक राशन कार्ड’ से आगे बढ़कर कामगारों के ‘आधार’ आधारित पंजीकरण और सामाजिक सुरक्षा की गारंटी की ओर भी कदम उठाना होगा।

 

महानगरों में परिवहन और पर्यावरण के बदतर होते हालात, जीवनयापन का बढ़ता खर्च, सामाजिक परिवेश की विकृत होती तस्वीर जैसे पहलू प्रवासी कामगारों को यहां से पुश यानी अपकर्षण के लिए प्रेरित कर सकते हैं। इसकी तुलना में उनके गृह राज्य या अपने गांव-शहर में बेहतर होती जा रही शिक्षा,स्वास्थ्य और परिवहन आदि सुविधाओं के साथ आधुनिक तकनीक की पहुंच व महानगरों की अपेक्षा अच्छी जलवायु शायद उनके पुल यानी आकर्षण का कार्य कर सकती हैं। कोरोना संकट के इस दौर में जब शहरों से बड़े पैमाने पर प्रवासियों का पलायन हुआ है तो इन दोनों पहलुओं के आधार पर वास्तविकता की पड़ताल आवश्यक हो जाती है। इसमें भविष्य के लिए कुछ संकेत भी छिपे होंगे।

[शिक्षाविद एवं दिल्ली स्थित उच्च शैक्षिक संस्थानों से संबद्ध]

chat bot
आपका साथी