भाजपा विरोधी दल समझें कि आखिर किस वजह से आरएसएस की स्वीकार्यता बढ़ती जा रही है?

संघ की विचारधारा का विरोध नया नहीं है। इसी विरोध के चलते कांग्रेस के शासनकाल में उस पर तीन बार प्रतिबंध लगा।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Sat, 22 Sep 2018 10:37 PM (IST) Updated:Sun, 23 Sep 2018 05:00 AM (IST)
भाजपा विरोधी दल समझें कि आखिर किस वजह से आरएसएस की स्वीकार्यता बढ़ती जा रही है?
भाजपा विरोधी दल समझें कि आखिर किस वजह से आरएसएस की स्वीकार्यता बढ़ती जा रही है?

[ संजय गुप्त ]: आम भारतीय कभी न कभी यह अवश्य सोचता होगा कि आखिर ज्ञान का विपुल भंडार समेटे और सोने की चिड़िया कहलाने वाला भारत कैसे और क्यों अपना प्रभाव खो बैठा? हम इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि गत एक सदी में ही अमेरिका, चीन, जापान, जर्मनी, दक्षिण कोरिया जैसे देश कैसे तेजी से विकास की राह पर आगे बढ़ते गए? इससे कोई असहमत नहीं हो सकता कि किसी भी देश की उन्नति में वहां के समाज की अहम भूमिका होती है। अनुशासन, ईमानदारी, समर्पण, सेवा और राष्ट्रभाव का जज्बा ही किसी देश को महान बनाता है। आखिर क्या कारण था कि हम मुट्ठी भर विदेशी आक्रांताओं का सामना नहीं कर पाए? क्यों अंग्रेजों ने हम पर लंबे समय तक शासन किया? इन प्रश्नों पर आत्मावलोकन करें तो पाएंगे कि इसका मूल कारण अनुशासन और एकता का अभाव था।

अनुशासन जीवन के विकास का मूल तत्व है। इसे सही तरह से समझा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने। 35 साल की युवावस्था में ही वह इस निष्कर्ष पर पहुंच गए कि जब तक समाज सुधार की दिशा में ठोस काम नहीं होगा तब तक हम न ब्रिटिश हुकूमत से लड़ पाएंगे, न ही आजादी की सूरत में स्वतंत्र देश में रहने का सलीका सीख पाएंगे। ध्यान रहे कि समाज का दबाव व्यवस्था को बदलता है और समाज का आचरण व्यक्ति निर्माण से बदलता है। जब तक व्यक्ति-समाज के मूल्य आधारित चरित्र निर्माण के लिए काम नहीं होगा, समाज चुनौतियों का मुकाबला करने में सक्षम नहीं होगा।

पिछले दिनों देश की राजधानी में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने भविष्य के भारत को लेकर संघ का दृष्टिकोण प्रस्तुत करते समय जब ज्वलंत मसलों पर अपनी राय खुलकर रखी तो उसके केंद्र-बिंदु में अनुशासित विचारवान राष्ट्रवादी समाज के निर्माण का ही लक्ष्य दिखा। हालांकि मोहन भागवत ने यह स्पष्ट किया कि संघ का कोई राजनीतिक मकसद नहीं है, फिर भी जब भाजपा के उत्थान को देखा जाता है तो हर भारतीय के दिमाग में यह बात आती है कि यह सब संघ के अनुशासन में रचे-पगे नेताओं के कारण है।

भाजपा की व्यापक जन स्वीकृति का कारण यही है कि उसने संघ की अवधारणा को आत्मसात किया। इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि भाजपा अक्सर अपने उन नेताओं के कारण विरोधियों के निशाने पर आती है जो अन्य दलों से पार्टी में आए या फिर जो कभी संघ की सोच में नहीं ढले। संघ प्रमुख ने स्पष्ट किया कि भाजपा समेत विश्व हिंदू परिषद, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, सेवा भारती, विद्या भारती जैसे आनुषंगिक संगठन उससे निकले अवश्य, लेकिन उनकी अपनी स्वतंत्र सोच और निर्णय लेने की क्षमता है। शायद इसी कारण संघ की तुलना किसी अन्य संगठन से नहीं हो सकती।

संघ प्रमुख ने अपने संबोधन में हिंदू और हिंदुत्व की व्यापकता को विस्तार से विश्लेषित किया। हिंदू शब्द भारतीय भूभाग में जन्मे लोगों के लिए नौवीं शताब्दी में प्रचलन में आया और वह बोलचाल की भाषा में काफी बाद में शामिल हुआ। हिंदुत्व हर पूजा पद्धति को स्वीकार करता है। उसकी संकल्पना में विशिष्ट भाषा या प्रांत नहीं है। हिंदुत्व वह विविधतावादी संस्कृति है जो यह मानती है कि मानव समाज एक साथ चल सकता है और सबकी उन्नति साथ-साथ हो सकती है। संघ इसी संस्कृति को अनुसरण करते हुए सर्वलोक युक्त भारत चाहता है।

इसके बावजूद यह भी सच है कि उसे इस कारण कठघरे में खड़ा किया जाता है कि वह सिर्फ हिंदुओं का हितैषी है, मुस्लिम, ईसाई आदि से उसका बैर भाव है। इस पर मोहन भागवत ने साफ-साफ कहा कि जिस दिन हम कहेंगे कि मुसलमान नहीं चाहिए उस दिन हिंदुत्व भी नहीं रहेगा। उनके इस स्पष्ट कथन से संघ को लेकर व्याप्त भ्रांतियां बड़ी हद तक दूर होनी चाहिए।

उन्होंने यह कहकर भी मुस्लिम समाज में संघ के प्रति कायम पूर्वाग्रह को दूर करने की कोशिश की कि एमएस गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में जो कुछ कहा उससे संघ बंधा नहीं है। उनके अनुसार, भिन्न समय और परिस्थितियों में जो कुछ कहा गया वह शाश्वत नहीं हो सकता और इसीलिए गोलवलकर के विचारों का जो नया संकलन जारी हुआ है उसमें तात्कालिक संदर्भ में कही गई उनकी कुछ बातें हटा दी गई हैं। आखिर इससे अधिक साफगोई और क्या हो सकती है? मोहन भागवत की इस बात से यह साफ हुआ कि संघ समय के साथ बदलने वाला संगठन है। यह किसी से छिपा नहीं कि संघ तुष्टीकरण की राजनीति का विरोधी है। इस पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि ऐसी राजनीति संविधान की भावना के खिलाफ है।

संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अपने संबोधन से यह धारणा तो खारिज की ही कि भारतीय संविधान के प्रति उसकी अनास्था रही है, बल्कि यह भी स्पष्ट किया कि स्वतंत्र भारत के सारे प्रतीकों में उसकी आस्था है, चाहे वह राष्ट्रगान हो या राष्ट्रीय ध्वज। उन्होंने संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित बंधुत्व भावना के साथ विविधता में एकता, समभाव और एक-दूसरे के प्रति सम्मान को हिंदुत्व का सार तत्व बताया। कुछ लोग इससे असहमत हो सकते हैं, लेकिन सच्चाई यही है कि हिंदुत्व की विचारधारा के कारण ही भारत विशिष्ट है और यहां लोकतंत्र की नींव गहरी है।

कांग्रेस समेत अन्य दल संघ को इसलिए पसंद नहीं करते, क्योंकि वह हिंदुत्व को भारतीयता का पर्याय मानता है। ऐसे दल भाजपा के बहाने संघ को निशाने पर लेते रहते हैं, लेकिन संघ जैसा अनुशासन या आंतरिक लोकतंत्र शायद ही किसी अन्य संगठन या दल में दिखता हो। यही उसकी सफलता का आधार है। मोहन भागवत के अनुसार संघ की कार्यप्रणाली सर्वसम्मति पर आधारित है और संगठन में हर बात सभी की सहमति से तय होती है। संघ का कोई सांगठनिक चुनाव एक दिन के लिए भी लंबित नहीं हुआ। इसके विपरीत अधिकतर सियासी दल सामंती सोच से ग्रस्त हैैं। वे यह देखने को तैयार नहीं कि यही सामंती सोच उनकी एक बड़ी बाधा है।

यह एक विडंबना है कि जो अनुशासन राजनीतिक दलों में नजर नहीं आता वह संघ के डीएनए में दिखता है। समाज पर संघ के बढ़ते प्रभाव के चलते जो भाजपा विरोधी दल चिंतित रहते हैैं वे यह समझें तो बेहतर कि आखिर किन कारणों से इस संगठन की स्वीकार्यता बढ़ती जा रही है?

संघ की विचारधारा का विरोध नया नहीं है। इसी विरोध के चलते कांग्रेस के शासनकाल में उस पर तीन बार प्रतिबंध लगा। तीनों बार वह टिक नहीं सका। यह विचित्र है कि आज जब संघ का विरोध करने वाले दलों को इसकी सराहना करनी चाहिए कि संघ ने प्रबुद्ध वर्ग से सीधे संवाद के जरिये अपने संबंध में व्याप्त भ्रांतियों को दूर करने के लिए एक ठोस पहल की तब वे उससे दूरी बढ़ाने में अपनी भलाई समझ रहे हैैं। यह संभव है कि विभिन्न मसलों पर मोहन भागवत के स्पष्ट आख्यान के बाद भी संघ के प्रति बैर भाव से भरे लोग उसका विरोध जारी रखें, लेकिन यह तय है कि इससे राष्ट्र निर्माण के संघ के अभियान पर कोई असर नहीं पड़ने वाला।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]

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