Agriculture Bill 2020: कृषि विधेयकों को लेकर निराधार नहीं हैं किसानों की शंकाएं, इनका समाधान हो तो बन जाएगा वरदान

सदन में पारित कृषि विधेयक को लेकर किसानों के मन में कई तरह की शंकाएं हैं। इनका यदि सरकार समाधान कर दे तो ये कानून किसानों के लिए वरदान साबित हो सकता है। इस कानून की जरूरत काफी समय से थी।

By Kamal VermaEdited By: Publish:Mon, 28 Sep 2020 07:46 AM (IST) Updated:Mon, 28 Sep 2020 05:55 PM (IST)
Agriculture Bill 2020: कृषि विधेयकों को लेकर निराधार नहीं हैं किसानों की शंकाएं, इनका समाधान हो तो बन जाएगा वरदान
पूर्व कृषि मंत्री सोमपाल शास्‍त्री की कृषि कानून पर राय

सोमपाल शास्‍त्री (पूर्व कृषि मंत्री)। खेती-किसानी की स्थिति को प्रभावी तरीके से ठीक करने के दावे के साथ हाल ही में पारित किए गए तीन विधेयकों पर हंगामा मचा हुआ है। दरअसल इनकी आवश्यकता गत तीन दशकों से सतत महसूस की जा रही थी। सबसे पहले लिखित रूप में इन तीनों सुधारों की सिफारिश वीपी सिंह के प्रधानमंत्री काल में, जब चौधरी देवीलाल उप-प्रधानमंत्री-कृषि मंत्री थे, दो उच्चाधिकार प्राप्त समितियों ने की थी, जिनके अध्यक्ष दो विख्यात कृषि अर्थशास्त्री एवं किसान नेता भानुप्रताप सिंह व शरद जोशी थे। तत्कालीन सरकार ने सभी संस्तुतियों को सर्वसम्मति से स्वीकार किया था, परंतु कानूनी स्वरूप देने से पहले ही सरकार गिर गयी। बाद की सरकारों के दौरान भी संसदीय समितियों की दर्जनों रिपोर्टों, पंचवर्षीय योजनाओं के दस्तावेजों तथा कई विशेषज्ञ समितियों के प्रतिवेदनों में इन्हें मुख्यता से रेखांकित किया जाता रहा। परंतु किसी सरकार ने इसके साथ कदमताल नहीं किया।

इन सुधारों का मूल तर्काधार यह है कि कृषि उत्पादों के भंडारण, व्यापार, प्रसंस्करण एवं निर्यात के ऊपर सब प्रकार के नियंत्रण उस समय लगाये गये थे जब देश में खाद्यान्न का लगातार भारी अभाव रहता था। वर्ष 1980 के आते-आते भारत न केवल आत्मनिर्भर हो गया बल्कि चावल सहित कई खाद्य पदार्थों का विश्व का अग्रणी उत्पादक बनकर निर्यात भी करने लगा। खाद्य प्रसंस्करण उद्योग भी विकसित हुआ। परंतु इन दोनों गतिविधियों के समेकित विकास की महती संभाव्यता है। उसे कर पाने की क्षमता और वित्तीय संसाधन भारत के किसानों के पास नहीं है। यह तो निवेशकों द्वारा ही किया जा सकता है।

यह भी सर्वमान्य तथ्य है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की सुविधा तो केवल भंडारण करने वाले जिंसों के लिये ही उपलब्ध है। सब्जी, फल, दूध, मत्स्य उत्पाद, अंडा, मुर्गी आदि जल्दी खराब होने वाली वस्तुओं को सरकार न तो खरीदती और न खरीद सकती है। कृषि उत्पादों के इस दूसरे वर्ग को ही बाजार की अनिश्चिितता के कारण अक्सर हानि उठाना पड़ता है। यदि संविदा खेती के माध्यम से किसान और उद्योगपति प्रसंस्करणकर्ता तथा निर्यातक परस्पर सहमति से तय किये मूल्यों के आधार पर इन वस्तुओं का नियमित उत्पादन करें तो दोनों पक्ष लाभान्वित हो सकते हैं। भारत की इन वस्तुओं के निर्यात और प्रसंस्करण की महती संभावनाएं हैं, जिनके लाभ से देश अब तक वंचित रहा है।

परंतु जो शंकाएं किसानों के मन में हैं वे भी निराधार नहीं हैं। सरकार के अधिकतर परामर्शदाता अर्थशास्त्री और प्रशासक प्राय: निरंकुश बाजारवाद और उदारीकरण के हामी रहे हैं। उनका मंतव्य है कि वर्तमान मंडी व्यवस्था और न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली आधुनिक खुली अर्थव्यवस्था में असंगत हैं। इनके कारण बाजार की स्वाभाविक गति विकृत होती है और सरकार के वित्तीय संसाधनों पर अनावश्यक दबाव पड़ने से आधारभूत ढांचे के विकास पर हो सकने वाले सार्वजनिक निवेश में कमी आती है। परिणाम स्वरूप समग्र र्आिथक विकास की दर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। हाल की रिजर्व बैंक की रिपोर्ट में यह बात पुन: दोहरायी गयी है। सरकार की नीयत के बारे में संदेह का दूसरा कारण यह है कि प्रधानमंत्री मोदी तथा भाजपा द्वारा किये गये दो वायदों ‘स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश को लागू करने और किसानों की आय दोगुना करने’ का जो हश्र हुआ उससे किसानों के विश्वास में भारी कमी आयी है। उनका हाल का रोष इसी की अभिव्यक्ति है।

सरकार का कर्तव्य है कि किसानों को पूरी तरह आश्वस्त करे। प्रथम तो न्यूनतम समर्थन मूल्य को किसान का कानूनी अधिकार बनाना होगा। दूसरे, कृषि लागत एवं मूल्य आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया जाय। तीसरे, वर्तमान मंडी व्यवस्था को न केवल चालू रखा जाय बल्कि पहले की अपेक्षा अधिक पारदर्शी और कुशल बनाया जाय। चौथे, संविदा खेती के करार का तैयारशुदा मॉडल मसौदा सरल और स्थानीय भाषा में हो, ताकि किसान उसे समझ सके। पांचवें, संविदा कृषि से उपजे विवादों को सुलझाने की सरल और उत्तरदायित्वपूर्ण व्यवस्था की जाय जो निर्धारित समय सीमा में वादों का निस्तारण करे। ऐसा न करने पर अधिकारी को दंडित करने का प्रविधान हो।

पूंजीपतियों की र्आिथक शक्ति के आगे भारत का गरीब असहाय किसान नहीं टिक पायेगा। कृषि व्यवसाय की दो सबसे बड़ी कठिनाइयां हैं। एक तो अधिकतर किसानों की जोत का आकार अत्यंत छोटा है। 98 प्रतिशत किसान दस हेक्टेयर और 86 प्रतिशत किसान चार हेक्टेयर से कम भूमि के मालिक हैं। दूसरे, खेती से होने वाली आय का प्रवाह सतत नहीं होता। फसल बुवाई से कटाई तक खेती और पारिवारिक खर्चे लगातार होते हैं। कर्ज बढ़ता रहता है। अत: फसल आते ही जो दाम मिले उसी पर बेचने की मजबूरी के कारण व्यापारी पूंजीपति उसका शोषण करता है। पूरे विश्व में ऐसा होता है। सरकारी सहारे व सुरक्षा के अभाव में खेती टिक ही नहीं सकती। मंडी व्यवस्था और समर्थन मूल्य समाप्त हुए तो भारत का किसान पुन: ब्रिटिश शासन काल के दौरान के भीषण शोषण का शिकार हो जायेगा। अत: इन्हें बनाये रखना ही नहीं बल्कि वैधानिक आधार प्रदान कर अधिक सुदृढ़ करना होगा। यह भी हैरानी की बात है कि कांग्रेस जैसे दल अब जिन बातों की मांग कर रहे हैं, अपने कार्यकाल में उन्हें क्यों नहीं किया? 

chat bot
आपका साथी