जिद में तब्दील हुआ किसान संगठनों का आंदोलन, सरकार की मानेंगे नहीं और सुप्रीम कोर्ट की सुनेंगे नहीं

शेतकरी संगठन के अध्यक्ष अनिल घनवट ने कहा कि कृषि कानूनों को वापस लेना किसानों के हित में नहीं है। यदि इन कानूनों को वापस ले लिया जाता है तो अगले पचास साल तक कोई सरकार कृषि सुधार का प्रयास नहीं करेगी।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Thu, 21 Jan 2021 01:32 AM (IST) Updated:Thu, 21 Jan 2021 02:05 AM (IST)
जिद में तब्दील हुआ किसान संगठनों का आंदोलन, सरकार की मानेंगे नहीं और सुप्रीम कोर्ट की सुनेंगे नहीं
सरकार तीनों कृषि कानूनों में सुधार के अलावा अन्य मांगों पर विचार करने को तैयार।

[ प्रदीप सिंह ]: कुछ किसान संगठनों का आंदोलन अब उस मुकाम पर पहुंचता दिख रहा है, जहां से आगे के सभी रास्ते बंद हैं। किसानों का अब तक का रुख है कि वे सरकार की मानेंगे नहीं और सुप्रीम कोर्ट की सुनेंगे नहीं। उनकी मांग मानने का मतलब होगा कि बलपूर्वक और असंवैधानिक तरीकों से अपनी मांगें मनवाई जा सकती हैं। सरकार की नीतियों के विरोध से शुरू हुए आंदोलन ने धीरे-धीरे राजनीतिक शक्ल अख्तियार कर ली है। सरकार के लिए यह अब सुरक्षा और कानून व्यवस्था की भी समस्या बनता जा रहा है, खासतौर से गणतंत्र दिवस समारोह करीब होने के कारण। आंदोलनरत संगठन जो कह रहे हैं उसका निष्कर्ष यही है कि उन्हें सरकार की नीति (तीन कानूनों) पर तो बात ही नहीं करनी है। वे सरकार की नीयत पर सवाल उठा रहे हैं। जो बात इन तीन कानूनों में नहीं है उसकी बात हो रही है। मसलन, सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की व्यवस्था खत्म करना चाहती है, मंडियां बंद कर देगी, किसानों को कॉरपोरेट के हाथों लुटने के लिए धकेल देगी और कॉरपोरेट उनकी जमीन हड़प लेंगे। अब सरकार कोई भी हो, वह नीतियों पर तो बात कर सकती है, उनमें सुधार भी कर सकती है, मगर नीयत पर सवाल के पीछे कोई तार्किक आधार तो है नहीं। यह भावनात्मक मुद्दा है, जिसका एकमात्र आधार आशंकाएं हैं। इस आशंका शब्द में से ‘आ’ हटा दीजिए तो केवल ‘शंका’ बचती है। वही किसानों के हाथ की लाठी है। अब शंका का इलाज तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं था, फिर भी सरकार और अब सुप्रीम कोर्ट की बनाई कमेटी इस असंभव को संभव बनाने की कोशिश कर रही है।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित कमेटी पर किसान संगठनों ने उठाए सवाल

सुप्रीम कोर्ट ने जिस दिन कमेटी बनाई, किसान संघों के वकील अदालत से गायब हो गए। जब कमेटी बन गई तो किसान संघों ने कमेटी की पहली बैठक से पहले ही मुनादी कर दी कि यह कमेटी तो हमारे खिलाफ रिपोर्ट देगी। चार सदस्यों में से एक भूपिंदर सिंह मान को तो इतनी धमकियां मिलीं कि उन्होंने कमेटी से ही तौबा कर ली। कमेटी के सदस्यों की प्रोफेशनल ईमानदारी और निष्ठा पर सवाल नहीं उठाया जा सकता, फिर भी उठाया जा रहा है। ध्यान रहे किसान संगठनों के वकीलों की फौज में से किसी ने अपनी ओर से कोई नाम नहीं सुझाया कि यदि अदालत कमेटी बना ही रही है तो हमारी ओर से ये सदस्य होंगे। कुल मिलाकर मुद्दा यही है कि ये बात न वो बात, खूंटा तो यहीं गड़ेगा।

यह पूरे देश के किसानों का आंदोलन नहीं है

इस पूरे मामले में एक बात समझ लेनी चाहिए कि यह पूरे देश के किसानों का आंदोलन नहीं है। यह मुख्य रूप से पंजाब, हरियाणा के एक हिस्से और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों का आंदोलन है, जो किसानों के हित से ज्यादा बिचौलियों की व्यवस्था बनाए रखने की लड़ाई लड़ रहे हैं। दो वर्ग के लोग इस आंदोलन के समर्थन में हैं। एक वे, जिन्होंने कभी आंदोलन देखा नहीं। वे मुग्ध भाव और फिर सहानुभूति भाव से आप्लावित हैं। दूसरा वर्ग वह है, जिसे लग रहा है कि इस आंदोलन के सहारे वे अपनी डूबती राजनीतिक नैया को पार लगा सकते हैं। पहला वर्ग निर्दोष भाव से जुड़ा है। दूसरा वर्ग पहले पर्दे के पीछे छिपा था। अब खुलकर सामने आ गया है। मंगलवार को राहुल गांधी ने प्रेस कांफ्रेंस में नया नारा दिया ‘खेती का खून, तीन कानून।’ उनके इस नारे से उनकी ही पार्टी के कितने लोग सहमत होंगे, कहना कठिन है, पर राहुल गांधी को इस बात से कभी कोई फर्क नहीं पड़ा कि उनकी बात किसी को समझ में आ रही है या नहीं। वह अभी विदेश यात्रा से लौटे हैं तो जोश में हैं। कब तक रहेंगे, किसी को पता नहीं।

सरकार तीनों कृषि कानूनों में सुधार के अलावा अन्य मांगों पर विचार करने को तैयार 

सरकार तीनों कृषि कानूनों में सुधार के अलावा इससे इतर मांगों पर भी विचार करने और उन्हें मानने को तैयार है। अन्य विपक्षी दल किसानों के साथ तो दिखना चाहते हैं, लेकिन उससे ज्यादा कुछ नहीं। इस मसले पर कांग्रेस अपना लोभ संवरण नहीं कर पाई। पार्टी की हालत नदी में डूबते हुए व्यक्ति की तरह हो गई है। उसे जो भी दिख जाए, उसी पर झपटती है।

आंदोलनकारियों को सरकार का प्रस्ताव मंजूर नहीं

आंदोलनकारियों का रवैया भी देखिए। सरकार का प्रस्ताव उन्हें मंजूर नहीं। सुप्रीम कोर्ट की कमेटी उनके लिए मायने नहीं रखती। वे कमेटी के सामने नहीं जाएंगे। पहले सरकार ने और फिर कोर्ट ने अनुरोध किया कि मौसम और महामारी के मद्देनजर महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों को वापस भेज दिया जाए। जवाब था-नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने असाधारण कदम उठाते हुए अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर कानूनों के अमल पर अस्थायी रोक लगा दी है। इसका भी किसानों पर असर नहीं पड़ा। अब गणतंत्र दिवस की परेड के समानांतर परेड की जिद पर अड़े हैं। पुलिस कह रही है दिल्ली से बाहर कर लीजिए। जवाब है-नहीं करेंगे। सुप्रीम कोर्ट ने कहा दिल्ली पुलिस को अधिकार है कि वह रैली की इजाजत दे या नहीं। राकेश टिकैत कह रहे हैं कि हमें किसी से इजाजत लेने की जरूरत नहीं।

आंबेडकर की दुहाई देने वालों को उनकी नसीहत कभी रास नहीं आई

डॉ. भीमराव आंबेडकर ने संविधान सभा के अपने अंतिम संबोधन में कहा था, ‘सामाजिक और आर्थिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए संवैधानिक उपाय उपलब्ध हों तो असंवैधानिक तरीकों का उपयोग ‘ग्रामर ऑफ एनार्की’ है। इनसे जितनी जल्दी मुक्ति पा लें उतना अच्छा।’ उनके मुताबिक हिंसक क्रांति, सिविल नाफरमानी, असहयोग और सत्याग्रह असंवैधानिक उपाय हैं। ऐसा नहीं है कि उन्होंने इन तरीकों के इस्तेमाल की हर परिस्थिति में मनाही की हो। उन्होंने कहा था कि जब संवैधानिक तरीकों से हल के सारे रास्ते बंद हो जाएं तभी इनका उपयोग करना चाहिए। यह बात अलग है कि पिछले सत्तर साल से बात-बात पर आंबेडकर की दुहाई देने वालों को भी उनकी नसीहत कभी रास नहीं आई।

आंदोलनकारी अपना हित नहीं देख पा रहे

किसान आंदोलन की मूल समस्या यह है कि आंदोलनकारी अपना हित नहीं देख पा रहे। सुप्रीम कोर्ट की बनाई कमेटी की पहली बैठक के बाद उसके सदस्य और शेतकरी संगठन के अध्यक्ष अनिल घनवट ने कहा कि कृषि कानूनों को वापस लेना किसानों के हित में नहीं है। यदि इन कानूनों को वापस ले लिया जाता है तो अगले पचास साल तक कोई सरकार कृषि सुधार का प्रयास नहीं करेगी। किसानों का एक ही जवाब है-हम तो नहीं मानेंगे, कर लो जो करना हो।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )

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