राजनीति में सक्रिय नेता कभी रिटायर ही नहीं होना चाहते, उन्हें आखिरकार धक्का देकर हटाना पड़ता है

बुजुर्ग नेताओं को बताने की जरूरत है कि आपका बड़ा तप बलिदान और योगदान रहा है। कुछ दूर अंगुली पकड़कर चलाया अहसानमंद हैं। अब हमने चलना सीख लिया है। हमें चलने दीजिए।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Thu, 19 Sep 2019 01:01 AM (IST) Updated:Thu, 19 Sep 2019 01:01 AM (IST)
राजनीति में सक्रिय नेता कभी रिटायर ही नहीं होना चाहते, उन्हें आखिरकार धक्का देकर हटाना पड़ता है
राजनीति में सक्रिय नेता कभी रिटायर ही नहीं होना चाहते, उन्हें आखिरकार धक्का देकर हटाना पड़ता है

[ प्रदीप सिंह ]: क्या किसी ऐसे व्यक्ति को पद से हटाना, जिसका बड़ा योगदान रहा हो कृतघ्नता है? भारतीय मानस में तो अक्सर ऐसा ही माना जाता है। शायद यही कारण है कि समाज के किसी क्षेत्र और खासतौर से राजनीति में सक्रिय नेता कभी रिटायर ही नहीं होना चाहते। उन्हें आखिरकार धक्का देकर ही हटाना पड़ता है। नेताओं के इसी चरित्र पर आचार्य रजनीश ने कहा था कि ‘जो मर गए हैं, उन्हें अगर मौका मिल जाए तो वापस लौट आएं।’ राजनीति ही नहीं जहां भी सत्ता है या कुछ रुतबे का अहसास है, वहां से कोई हटना नहीं चाहता। उसे हटाना ही पड़ता है। इस विषय का ताजा संदर्भ है चार पूर्व राज्यपालों कल्याण सिंह, राम नाईक, केसरीनाथ त्रिपाठी और विद्यासागर राव का संवैधानिक पद से हटते ही फिर से भाजपा की सदस्यता लेना।

चार पूर्व राज्यपाल हैं जीवन के उत्तरार्ध में

ये सब अपने जीवन के उत्तरार्ध में हैं और पार्टी या सरकार में इन्हें फिर कोई पद मिलने की संभावना नहीं है। इनके सक्रिय राजनीतिक जीवन में पार्टी ने सभी को संगठन और सरकार में वह सब कुछ दिया जो देने की उसकी क्षमता थी। फिर भी ये असंतुष्ट हैं।

कोई सम्मान से रिटायर नहीं होना चाहता

लालकृष्ण आडवाणी और डॉ. मुरली मनोहर जोशी के रूप में ऐसे महानुभाव पहले से मौजूद हैं। कोई सम्मान से रिटायर ही नहीं होना चाहता। राजनीति का जिक्र चला है तो आज राजनीतिक लोगों और दलों की ही बात करते हैं। बात लंबी न हो जाए, इसलिए दो प्रमुख दलों भाजपा और कांग्र्रेस की ही बात करते हैं।

‘नहीं’ कहने का साहस नहीं जुटा पाए

आज की भाजपा को बनाने में लालकृष्ण आडवाणी का योगदान कई मायने में अटल बिहारी वाजपेयी से भी ज्यादा है। इस बात से शायद ही कोई इन्कार करेगा, पर एक दशक से ज्यादा समय बिस्तर पर निष्क्रिय पड़े वाजपेयी सक्रिय आडवाणी पर भारी पड़े। उसका एक ही कारण है। भाजपा में राजनीति की बारीकियों की शायद सबसे अच्छी समझ रखने वाले और सांगठनिक कौशल में निर्विवाद रूप से सबसे कुशल आडवाणी सार्वजनिक जीवन के आखिरी दौर में ‘नहीं’ कहने का साहस नहीं जुटा पाए।

आडवाणी के राजनीतिक सफर के दो भाग

आडवाणी के राजनीतिक सफर के बारे में कभी लिखा जाए तो उसके दो भाग होने चाहिए। एक, जनसंघ की स्थापना से वर्ष 2004 तक और दूसरा उसके बाद का। उनकी पाकिस्तान यात्रा और उस प्रसंग पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। ताजा प्रसंग वर्ष 2014 का है। पार्टी और संघ ने उनसे अनुरोध किया कि वह लोकसभा चुनाव न लड़ें। संघ ने संदेश भिजवाया कि ऐसा करने पर उन्हें भाजपा में वही दर्जा प्राप्त होगा जो गैर-कांग्र्रेस राजनीति में लोकनायक जयप्रकाश नारायण को मिला। इतना ही नहीं भाजपा से संबंधित मसलों पर उनकी बात अंतिम एवं निर्णायक मानी जाएगी और इसकी घोषणा सरसंघचालक खुद करने वाले थे।

आडवाणी चले गए गुमनामी के अंधेरे में

आडवाणी ने उस पेशकश को ठुकरा दिया और गुमनामी के ऐसे अंधेरे में चले गए। उन्हें एक तरह से जबरन रिटायर किया गया। जो आडवाणी कभी तय करते थे कि भाजपा का टिकट किसे मिलेगा, वह अपना टिकट नहीं बचा पाए। आडवाणी का जिक्र इसलिए कि यह सब जानते हुए भी ये चारों पूर्व महामहिम कुछ सीखने-समझने को तैयार नहीं हैं। ये चारों मिलकर भी आडवाणी के कद के आसपास नहीं पहुंचते, मगर कम ही लोग होते हैं जो दूसरों के अनुभव से सीखते हैं। वे समाज और संगठन में अपनी फजीहत का सामान जुटा रहे हैं। वैसे तो भारतीय समाज में ऐसे लोगों की प्रतिष्ठा थोड़ी-बहुत बची रहती है, क्योंकि इसे सामान्य बात माना जाता है।

पीएम चर्चिल ने द्वितीय विश्व युद्ध में जीत दिलाई, पर आम चुनाव में सत्ता से बाहर

ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने अपने देश को द्वितीय विश्व युद्ध में जीत दिलाई, पर उसके बाद हुए आम चुनाव में ब्रिटेन के मतदाता ने उन्हें सत्ता से हटा दिया। इसलिए नहीं कि उनके प्रति कोई कृतज्ञता का भाव नहीं था। इसलिए कि उनका काम पूरा हो गया था। भारत में ऐसी कल्पना भी की जा सकती है क्या? यहां तो चर्चिल के मंदिर बन गए होते।

कांग्रेस में पुराने लोग नए लोगों के लिए जगह खाली करने को तैयार नहीं

अब थोड़ी बात कांग्रेस की भी कर ली जाए। कांग्रेस आज जिस हालत में है, उसके बहुत से कारण हैं। मगर एक अहम कारण यह भी है कि पुराने लोग नए लोगों के लिए जगह खाली करने को तैयार नहीं हैं। कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी की नाकामी का एक बड़ा कारण यह भी है। कांग्रेस के बुजर्ग नेताओं का गैंग उन पर भारी पड़ा। हर कदम पर बाधा खड़ी की। उन्हें अपनी पसंद के लोगों या नीतियों को लागू नहीं करने दिया गया। कोई इसकी गारंटी नहीं दे सकता कि ऐसा होता तो वह कामयाब ही होते, पर तब यह नाकामी उनकी अपनी होती। राहुल गांधी की अध्यक्षता का सबसे सुनहरा दौर था जब तीन राज्यों में भाजपा को सीधे पराजित करके कांग्रेस की सरकार बनी, लेकिन जीत के उस आभामंडल पर बूढ़े नेताओं का ग्रहण लग गया। राहुल गांधी चाहकर भी राज्यों की बागडोर युवा नेताओं को नहीं सौंप पाए। उस पूरे दौर में उन्हें एक कमजोर, अनिर्णय का शिकार और दूसरों पर आश्रित नेता के तौर पर पेश किया गया।

राहुल गांधी अपनों द्वारा पराजित हुए

राहुल गांधी का पराभव तो लोकसभा चुनाव का बिगुल बजने से पहले ही हो गया था। वह पहले अपनों द्वारा पराजित हुए, उसके बाद मोदी और भाजपा के हाथों उनका मानमर्दन हुआ। करीब डेढ़ साल के अध्यक्षीय कार्यकाल में हमेशा यह संदेश दिया जाता रहा कि मामला संगठन का हो या राज्य सरकार का, अंतिम फैसले का अधिकार सोनिया गांधी को है। बीस साल तक लगातार अध्यक्ष रहने और राहुल को अध्यक्ष पद सौंपने के बाद भी सोनिया गांधी हटने को तैयार नहीं थीं। आखिर वही हुआ।

सोनिया एक बार फिर अध्यक्ष पद पर विराजमान

सोनिया गांधी एक बार फिर अध्यक्ष पद पर विराजमान हैं। कांग्रेस संगठन के हित पर उसके बुजुर्ग नेताओं का स्वार्थ भारी पड़ा। कांग्रेस की इस समस्या का जल्दी समाधान होने वाला नहीं है। उसकी वजह यह है कि कांग्रेस में कोई मोदी या अमित शाह नहीं है जो कृतघ्न हुए बिना इन्हें धक्का देकर हटा सके, क्योंकि धक्का देकर हटाने के लिए जो ताकत चाहिए, राजनीति में वह जनसमर्थन से आती है। कांग्रेस में अभी ऐसा कोई है नहीं। इसलिए कांग्रेस के सामने दो ही विकल्प हैं। एक, ऐसे ही तिल-तिल जलती रहे। या फिर युवा पीढ़ी के नेता अपनी एकजुटता से वह ताकत पैदा करें और परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त करें।

सोनिया गांधी, अब आपकी विदाई का समय है

सोनिया गांधी सहित बुजुर्ग नेताओं को बताने की जरूरत है कि आपका बड़ा तप, बलिदान और योगदान रहा है। आप ही के कारण पार्टी 2004 में सत्ता में आई, लेकिन अब आपका काम पूरा हो गया है। अब आपकी विदाई का समय है। विदाई किसी का अपमान नहीं है। यह सिर्फ यही बताने की कोशिश है कि आपने मार्ग दिखाया इसके लिए आभारी हैं। कुछ दूर अंगुली पकड़कर चलाया, अहसानमंद हैं। अब हमने चलना सीख लिया है। हमें चलने दीजिए। नेताओं की इस प्रवृत्ति पर आश्चर्य इसलिए होता है कि यह उस भारत में हो रहा है जिसका पूरा चिंतन ही राजनीति के प्रति वैराग्य सिखाता है।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )

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