देश की प्रगति में महिलाओं की है बराबर भागीदारी तो भला देश सेवा में पीछे क्यों रहें

आसमान की सीमा हो सकती है पर हमारे हौसलों की नहीं। मुझे अपने सपनों को सच कर दिखाने का दे दो अवसर।’ कह रही हैं हमारी बेटियां। हर क्षेत्र में अपना ‘स्पेस’ पाने को आतुर। आखिर वे देश की आधी आबादी हैं देश की प्रगति में बराबर की भागीदाऱ।

By Shashank PandeyEdited By: Publish:Thu, 23 Sep 2021 02:55 PM (IST) Updated:Thu, 23 Sep 2021 03:54 PM (IST)
देश की प्रगति में महिलाओं की है बराबर भागीदारी तो भला देश सेवा में पीछे क्यों रहें
देश की प्रगति में हैं बराबर की भागीदार, देश-सेवा में क्यों रहें पीछे?।(फोटो: दैनिक जागरण)

नई दिल्ली, सीमा झा। ‘वे हैं तो हम हैं। चैन की नींद सो सकें हम, इसलिए आंखों में कटती हैं उनकी रातें। फख्र है कि मेरे पापा हैं सेना में, मुझे भी उनके जैसा दयालु और बहादुर अफसर बनना है।’ फोन के उस पार से दम भरती अपनी मीठी आवाज में कहती हैं समृद्धि सिंह। वह छठी कक्षा की छात्रा हैं। उत्तर प्रदेश स्थित मैनपुरी सैनिक स्कूल में इसी साल हुआ है उनका दाखिला। हालांकि उनके सपनों की डगर लंबी है अभी, लेकिन समृद्धि आश्वस्त हैं कि सैनिक स्कूल से निकलकर वह भी बड़ी अफसर बनेंगी।

समृद्धि की मां पुनिता सिंह कहती हैं, ‘बिटिया की अभी उम्र छोटी है लेकिन उसकी बातें गहरा संतोष देती है हमें। लगता है घर में एक भावी सैन्‍य अफसर बड़ी हो रही है। मुझे उसके साथ चलना है।‘ पुनिता सिंह एक और बात कहती हैं, ‘मैंने पढ़ाई तो बहुत की है लेकिन जिस समय मेरी बच्ची देश और समाज में अपना योगदान दे सकेगी, अपना सपना पूरा करेगी, दूसरी बच्चियों के लिए प्रेरणा बनेगी, तब जाकर मेरी शिक्षा सार्थक होगी।’वैसे, अब ऐसा कौन-सा क्षेत्र है जहां बेटियों ने सफलता के झंडे नहीं गाड़े, नहीं छोड़ी है अपनी छाप? निसंदेह इसके लिए आपको थोड़ा ‘गूगल’ करना होगा, क्योंकि अब ऐसे कम ही क्षेत्र बचे हैं जहां बेटियों की दखल ही नहीं, गहरी छाप न पड़ी हो। सैनिक स्कूल में बेटियों का दाखिला न होना ऐसे ही कुछ अपवाद वाले क्षेत्रों में रहा है। बेटे-बेटियों की बराबरी की राह में एक और बाड़े की तरह, जिसे इस वर्ष तोड़ दिया गया है। गौरतलब है कि दो साल पूर्व ही देश के कुछ सैनिक स्कूलों में बेटियों के भी दाखिले को एक पायलट प्रोजेक्ट के रूप में प्रयोग के तौर पर शुरू किया गया था। पर अब देश के सभी यानी कुल 33 सैनिक स्कूलों में बेटियां भी ले रही हैं दाखिला।

कदम से कदम मिलाकर देखें

पुनिता सिंह की तरह आज ऐसे मां-बाप की कमी नहीं जो अपनी बिटिया के सपनों को उड़ान देने के लिए तत्पर हैं। समयानुकूल व नवीनता भरी उनकी सोच, समाज में पैठ जमा चुकी परंपरागत सोच को जबरदस्त टक्कर दे रही है। वे बिटिया के साथ छुटपन से ही कदम से कदम मिलाकर चल रहे हैं। जैसे, बेतिया, बिहार की अनुजा दुबे ने इस साल नालंदा सैनिक स्कूल में दाखिला लिया है। उनके पिता निखिल कुमार एक शिक्षक हैं। वह बताते हैं, ‘हमें नहीं मालूम था कि बिटिया भी सैनिक स्कूल में दाखिला ले सकती है। पर घर में उसके मामा जी ने जब हमें इस बारे में बताया, तो हमने इस दिशा में कदम बढ़ाया और बिटिया ने साबित कर दिया कि वह किसी से कम नहीं।’ निखिल कुमार मानते हैं कि समाज में बदलाव लाना है तो बेटे-बेटियों में बराबरी ही इसकी पहली शर्त है। बेटियों के दिल से यह बात निकालनी होगी कि वे किसी मायने में कम हैं। निखिल कुमार की दो बेटियां हैं। वे दोनों को सैनिक स्कूल में पढ़ाना चाहते हैं। वे सरकार के इस फैसले को नया समाज बनाने की दिशा में बड़ा कदम मानते हैं।

मिशन पूरा हुआ

जब जिद होगी वक्त से आगे निकल जाने की, तो रास्ते के पत्थर भी हमें सलाम कर आगे बढ़ते जाएंगे। कुछ ऐसा ही मानती हैं घोड़ाखाल सैनिक स्‍कूल (नैनीताल) की प्रिंसिपल कर्नल स्मिता मिश्रा। घोड़ाखाल उन पांच स्‍कूलों में से एक है, जहां केंद्रीय स्‍तर पर सैनिक स्‍कूल में बेटियों के दाखिला का प्रोजेक्‍ट शुरू हुआ था। स्मिता मिश्रा एनसीसी पृष्‍ठभूमि से रहीं और 24 साल यहां अपनी सेवा दी है। अपने मामा को ऑपरेशन ब्‍लू स्‍टार में खोया तो पता चला क्‍या होता है सैनिक होना। कर्नल स्मिता मिश्रा उस बोर्ड का हिस्‍सा भी रहीं, जिसमें लड़कियों को सैनिक स्‍कूल में दाखिला देने का फैसला हुआ। वह उन लोगों में शामिल रहीं जो लंबे समय से इस दिशा में आवाज उठा रही हैं और आज उनका मिशन पूरा हुआ। वह कहती हैं, ‘ पहले कभी सोचा नहीं था कि लड़कियां भी सैनिक स्‍कूल में दाखिला लेंगी और अब एनडीए की परीक्षा दे सकेंगी। उनके सामने खुल जाएगा फौज में जाने का पूरा आसमान। हमें बेटियों को हर अवसर देना है ताकि समाज अपना दकियानूसी रवैया बदलने पर मजबूर हो जाए।’ घोड़ाखाल (नैनीताल) वही जगह है जहां के सैनिक स्कूल की बेटियों ने दो साल पूर्व राजपथ पर बैंड परेड का प्रदर्शन किया था।

प्रतिस्पर्धा नहीं करनी है हमें

उत्तर प्रदेश की उरई शहर की हैं पारुल पाल। वह इस समय लखनऊ स्थित सैनिक स्कूल में 12वीं में पढ़ रही हैं। पारुल उन लड़कियों में शामिल हैं जो अगले वर्ष एनडीए की परीक्षा देंगी। उनके पापा का डेयरी व्यवसाय है। भाई भारतीय सेना में हैं। उन दोनों का साथ मिला तो पारुल के सपनों को जैसे पंख लग गए। वह कहती हैं, ‘मुझे कभी नहीं लगा था कि एक दिन सामान्य स्कूल से निकलकर सैनिक स्कूल की ‘कैडेट’ बन जाऊंगी। पर पापा और भैया ने साथ दिया तो आज महसूस होता है कि पुरुष और स्‍त्री के साथ चलने से ही कोई कार्य संपूर्ण व सार्थक होता है।’ पांच बहनें हैं पारुल। चार उनसे बड़ी हैं। लडक़े और लड़कियों में कौन योग्य होता है? इस सवाल पर वह हंसती हैं और एक खूबसूरत बात कहती हैं, ‘अब यह समय नहीं कि हम कौन बेहतर जैसी बात कहें। हम जब स्वाभाविक मित्र हैं तो क्यों एक दूसरे से आगे निकलने की बात करें। हमें तो साथ चलना है, जैसे सैनिकों के कदम सधे हुए साथ-साथ चलते हैं और देखने वालों का सीना भी गर्व से चौड़ा हो जाता है।’ पारुल सेना में लेफिटनेंट बनना चाहती हैं। उनके रोल माडल खुद उनके भैया हैं।

इरादों में जान होनी चाहिए

कैडेट स्नेहा राना देहरादून (उत्तराखंड) की हैं। सिंगल मदर की परवरिश में बड़ी हुई हैं, जिन्‍हें अपनी नानी मां का भरपूर साथ मिला है। नानी ही थीं जिन्‍होंने बताया कि सैनिक स्‍कूल लखनऊ में लड़कियों का दाखिला हो सकता है। पर मां ने कहा कि देहरादून से लखनऊ पढ़ने स्‍नेहा तभी जा सकती है, जब वह इसके योग्‍य बने। स्‍नेहा हंसते हुए अपनी बात कहती हैं, ‘मुझे सिर्फ सैनिक स्‍कूल में दाखिला नहीं लेना था बल्कि खुद को साबित करना था कि मैं योग्‍य हूं। दाखिला मिला तो लोगों की उम्‍मीदें बढ़ गयीं, कुछ ने सोचा कि जैसे जॉब ही लग गई मेरी, पर यह सब एहसास सुकून देता है और हौसला भी।’ क्‍या लोग क्‍या कहेंगे, इन बातों से उन्‍हें कुछ फर्क पड़ता है? ‘ नहीं,बल्कि फर्क तो तब जरूर पड़ता है जब आप खुद पर यकीन नहीं करते। इरादा बुलंद हो तो लड़कियों को कोई नहीं रोक सकता’, स्‍नेहा कहती हैं। उनकी एक और बात सुंदर है और प्रेरक भी। वह कहती हैं, ‘लड़के हों या लड़की, आपकी प्रगति आपकी क्षमता पर निर्भर है। इसलिए अपने कौशल और मनोबल पर एकाग्र होना होगा, श्रेष्‍ठ सैनिक की तरह।’ स्‍नेहा इंडियन नेवी में अफसर बनना चाहती हैं।

कुछ पाने के लिए खोना पड़ता है

कैडेट कीर्ति पुनिया मेरठ (उप्र) से हैं। पिताजी किसान हैं। एक दिन अचानक फेसबुक पर यह जानकारी मिली कि बेटियों का भी सैनिक स्‍कूल में दाखिला हो सकता है। सारी सूचनाएं एकत्रित कर तुरंत आवेदन कर दिया और बड़ी मेहनत की। मेहनत खाली कैसे जाती, लखनऊ सैनिक स्कूल में दाखिला भी मिल गया। पर घर से दूर उस आवासीय स्‍कूल में रहना जो आम स्‍कूल से अलग है, कीर्ति के लिए किसी चुनौती से कम नहीं था। वह कहती हैं, ‘दाखिला मिलने के साथ ही जैसे एकबारगी जीवन बदल गया। रोमांच के साथ-साथ एक डर भी था कि कैसे रहेंगे कड़े अनुशासन और एक अलग माहौल में। पर कुछ ही दिन बाद में सबकी धारणा बदल गयी, अब तो एक ही सपना देखती हूं कि सेना में जाना है।’ कीर्ति के अनुसार, सपना बड़ा हो तो आपको उसी अनुसार खुद को तैयार करना पड़ता है, चाहे कितना ही थक जाएं, चोटिल हों, आशंकाएं हों। सारी नकारात्मक बातों पर विजय पाना होता है। इसी तरह, कैडेट तनुश्री बलिया (उप्र) से हैं और वह भी लखनऊ सैनिक स्कूल की छात्र हैं। वह बताती हैं, ‘मेरी मां दाखिला मिलने की खबर सुनकर रोने लगी थीं। पापा शिक्षक हैं, तो उन्होंने मेरी तैयारी में मदद की लेकिन असली परीक्षा तो तब हुई जब सैनिक स्‍कूल के माहौल में रहना शुरू किया।‘ तनुश्री के अनुसार, नये बच्‍चे कई बार डर जाते हैं। पर घर के आरामदायक माहौल से निकलकर यहां की दिनचर्या में ढलने में वक्‍त तो लगता है। इससे घबराना नहीं चाहिए, क्‍योंकि डर के आगे ही जीत है।

यहां तैयार होते हैं श्रेष्‍ठ कैडेट

उत्तराखंड के नैनीताल के घोड़ाखाल सैनिक स्कूल की प्रिंसिपल कर्नल स्मिता मिश्रा ने बताया कि सैनिक स्कूल में दाखिले के बाद हमसे कोई यह नहीं पूछता कि सीबीएसई का रिजल्‍ट क्‍या है? दरअसल, यहां बच्‍चों को श्रेष्ठ कैडेट तैयार करने का जोर दिया जाता है। कैडेट यानी सैन्‍य छात्र। यह अपने आप में बड़ी बात है और एक उपलब्धि भी। उसी का यानी श्रेष्ठ सैनिक बनने का एक हिस्सा पढ़ाई भी है। जब लड़कियां छुटपन से ही यहां आ जाएंगी तो यहां के माहौल में रहकर वे सेना में जाने के लिए ही नहीं, अपने जीवन में श्रेष्‍ठ पायदान पर पहुंचने के लिए भी तैयार हो सकेंगी। जिस तरह यहां बच्‍चों में सहयोगी भाव भरा जाता है, खेल और ग्राउंड में जाना अनिवार्य होता है, बच्‍चों को फोन और गैजेट आदि से दूर रखा जाता है, उससे बच्‍चों के सर्वांगीण विकास में मदद मिलती है।

सोच बदलें, बदलेगा समाज

झारखंड के सैनिक स्कूल तिलैया के प्रिंसिपल कैप्टन राहुल सकलानी ने बताया कि बच्चियों के सैनिक स्‍कूल में दाखिले से दूरगामी असर होगा। यह निर्णय बदलते समय की मांग है। इससे न केवल फौज में बल्कि सामाजिक स्‍तर पर भी लोगों की सोच बदलेगी। दरअसल, मामला बस सोच का ही है। लड़की हर मुकाम हासिल कर सकती है। इतिहास में ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है। इजरायल में बेटियां युद्ध लड़ने जाती हैं, सीधी लड़ाई में। अब भारत में भी वह दिन दूर नहीं है।

फख्र है अपनी शेरनियों पर

उत्तर प्रदेश के लखनऊ सैनिक स्कूल के प्रिंसिपल कर्नल राजेश राघव ने बताया कि ये हमारी देश की शेरनियां हैं। मैं जब इनके जोश और जज्‍बे को देखता हूं तो फख्र होता है इन पर। मुझे पूरा भरोसा है कि ये अब एनडीए की परीक्षा देंगी और अधिक से अधिक संख्‍या में देश की सैन्‍य सेवा में अपना बड़ा योगदान देंगी। याद रखें, आने वाली लड़ाइयां पैदल नहीं तकनीक से जीती जा सकेंगी और लड़कियों में तकनीकी कौशल और प्रतिभा भी उतनी होती है, जितनी लड़कों में। सच तो यह है कि वे अधिक बेहतरी से परिस्थितियों को समझ सकती हैं और उनका सामना कर सकती हैं।

सच हो रहा है बदलाव का सपना

उत्तर प्रदेश के मैनपुरी सैनिक स्कूल के प्रिंसिपल लेफ्टिनेंट कर्नल अग्निवेश पांडे ने बताया कि मुझे इस बात पर बेहद गर्व है कि मैनपुरी सैनिक स्‍कूल में पहली लड़की कैडेट मेरी बिटिया रही है। आज जब दूसरी बच्चियां आ रही हैं तो लगता है अब सचमुच हम बदलाव का जो सपना देख रहे थे, वह सच हो रहा है। जब लड़कियों के दाखिले का आदेश आया तो हमने भी छात्रावास आदि की मांगें रखीं और वे बिना देरी के पूरी हो रही हैं। बच्चियों को सैनिक स्कूल में कड़े अनुशासन आदि के बारे में सोचकर डरने की जरूरत नहीं, यहां उन्‍हें हर स्‍तर पर बेहतर करने के लिए प्रेरित किया जाता है। अपने स्‍कूल में हाल ही में हमने तनाव प्रबंधन को सिलेबस का हिस्‍सा बनाया है।

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