अभय भूमि है भारत, परंपरा बनी देश की संजीवनी; यहा है विश्व की सर्वोत्तम संस्कृति

भारत उस समष्टिगत चेतना का नाम है जिसका अस्तित्व कई हजार साल पुराना है। सच्चिदानंद जोशी के अनुसार यह सही वक्त है जब हमें गुलामी के कालखंड के कारण उत्पन्न न्यूनताबोध व इसके दुस्वप्न को सीमित कर स्वावलंबन के नए क्षितिज का निर्माण करना होगा।

By Mangal YadavEdited By: Publish:Sun, 29 Aug 2021 01:52 PM (IST) Updated:Mon, 30 Aug 2021 11:06 AM (IST)
अभय भूमि है भारत, परंपरा बनी देश की संजीवनी; यहा है विश्व की सर्वोत्तम संस्कृति
अभय भूमि है भारत, परंपरा बनी देश की संजीवनी

नई दिल्ली, सच्चिदानंद जोशी। भारत की स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूर्ण होने का उत्सव प्रारंभ हो चुका है। सभी अपनी-अपनी उपलब्धियां स्वतंत्रता के इस पर्व को समर्पित कर रहे हैं। यह स्वतंत्रता के लिए हुए संघर्ष की गाथाओं को याद करने का दौर है। आज भारत की जनसंख्या का बहुत बड़ा भाग ऐसे व्यक्तियों का है जिन्होंने आजादी के संघर्ष के बारे में सिर्फ सुना और पढ़ा ही है। ऐसे में भारत की स्वतंत्रता के लिए जन-जन द्वारा किए गए संघर्ष तथा लाखों लोगों के तप एवं बलिदान के बारे में देश को संवेदनशील बनाना समय की आवश्यकता है। जिस पीढ़ी ने प्रत्यक्ष गुलामी भोगी ही न हो या जिसने सीधे-सीधे अस्तित्व के लिए संघर्ष न किया हो, उस पीढ़ी को उन बातों का एहसास दिलाना चुनौती भरा कार्य है।

विश्व की सर्वोत्तम संस्कृति

भारत का इतिहास और अस्तित्व हजारों साल पुराना है। इसलिए इसकी अस्मिता को कुछ 100 वर्ष की गुलामी तथा 75 वर्ष की स्वतंत्रता के इतिहास में सीमित कर नहीं देखा जा सकता। यह समय भारत के ‘विराट तत्व’ का साक्षात्कार करने का है। विष्णु पुराण में उद्धरित है-

उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमादे्रश्चैव दक्षिणम्।

वर्षे तद्ं भारतं नाम भारती यत्र संतति:।।

(विष्णुपुराण 2.3.1)

अर्थात समुद्र के उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में जो देश है उसे भारत कहते हैं तथा उसकी संतानों (नागरिकों) को भारती कहते हैं।

जिस पीढ़ी को इतिहास के अध्यायों में यह बार-बार रटवाया गया हो कि भारत को एक करने का श्रेय अंग्रेजों को जाता है या यह कि भारत की अस्मिता एक देश के रूप में पहले थी ही नहीं, उनके लिए यह श्लोक आंखें खोल देने वाला हो सकता है। इस श्लोक में उद्धरित भारत की परिसीमाएं हाल के वर्षों में किसी खगोलशास्त्री द्वारा दी गई परिसीमा नहीं हैं, बल्कि आज से हजारों साल पहले लिखे गए तथा उससे पूर्व में स्मरण किए गए भारत नामक राष्ट्र की परिसीमा है। यह उस भारत देश की परिसीमा का वर्णन है जहां की विद्वता तथा सांस्कृतिक परंपरा पूरे विश्व में सर्वोत्तम थी और जहां ज्ञान प्राप्ति के लिए पूरे जगत से लोग आते थे।

समूचे विश्व की प्रेरक भूमि

विडंबना यह है कि भारत की उस गौरवशाली सांस्कृतिक परंपरा, जिसमें अध्यात्म, दर्शन, ज्ञान, विज्ञान, शिल्प, स्थापत्य, सौंदर्यबोध, कला, वस्त्र, भोजन जैसे अनेक गुणों का समावेश है, को गुलामी के वर्षों में षड्यंत्रपूर्वक भुलाने का प्रयास किया गया। प्राचीन भारतीय इतिहास पर यदि हम दृष्टिपात करें तो देखते हैं कि भारत की यह सभी परंपराएं और ज्ञानधाराएं न सिर्फ अक्षुण्ण बनी रहीं बल्कि समय-समय पर संवद्र्धित होती रही हैं। ऐसे अनेक उदाहरण हम भारत के इतिहास से सीख सकते हैं जिसमें भारत ने न सिर्फ अपने अस्तित्व को समृद्ध किया, बल्कि समूचे विश्व को लाभान्वित भी किया है। प्रसिद्ध मानवविज्ञानी विल डुरांट ने जब भारत की इस प्राचीन समृद्ध संस्कृति का वर्णन किया है तो उन्होंने स्वीकार किया कि इस नाते भारतभूमि समूचे विश्व की पे्ररक भूमि रही है तथा सबने इसी से प्रेरणा ग्रहण कर विकास की दिशा पाई है।

अद्भुत पराक्रम का परिणाम

कालांतर में अपने नैसर्गिक मानवीय गुणों के कारण, जिसमें उदारता, सर्वसमावेशिकता, मित्रता तथा समभाव सम्मिलित है, भारत को एक राष्ट्र तथा एक विकसित समाज के रूप में कई वैश्विक चुनौतियों का सामना करना पड़ा। ये चुनौतियां इसलिए भी आईं क्योंकि भारतीय अपने स्वभावगत औदार्य के कारण आगंतुकों के कुटिल भावों को पहचान नहीं पाए तथा भावावेश में सर्वोत्तम आतिथ्य का प्रदर्शन करते रहे। ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की अवधारणा वाले भारतवर्ष ने कभी बलपूर्वक विश्व विजेता बनने का सपना नहीं देखा। विश्व विजेता बनने का स्वप्न लेकर आने वाले कई विदेशी आक्रांताओं का स्वप्न भी इसी भारतभूमि में आकर चूर-चूर हुआ। यह भारत के सांस्कृतिक दर्शन के साथ-साथ सम्मिलित अद्भुत पराक्रम का ही परिणाम था कि भारत इन आक्रांताओं का मुकाबला कर सका, लेकिन अपने अतिरिक्त औदार्य और विश्वास की पराकाष्ठा के कारण 16 बार हराने के बावजूद पृथ्वीराज चौहान को 17वीं बार मुहम्मद गोरी से पराजय झेलनी पड़ी तथा अपने औदार्य के प्रतिदान में उन्होंने मुहम्मद गोरी की अमानवीय कुटिलता को झेला।

परंपरा बनी देश की संजीवनी

अपने अद्भुत ऐश्वर्य तथा सामथ्र्य के कारण भारतभूमि विश्व के दूसरे देशों के लिए कौतूहल और ईष्या का विषय बनी रही। परिणामस्वरूप इस पर कई आक्रमण हुए। अपने शौर्य और पराक्रम से इन आक्रमणों का मुकाबला करने के बावजूद भारत अपनी सांस्कृतिक विरासत के कारण छल-कपट नहीं कर पाया और कई बार पराजित भी हुआ। यह एक विचित्र ही दर्शन है कि भारत में जो भी लूट करने की नीयत से आया, उसने भी भारतभूमि में अपना स्थायी निवास ही बना लिया। उन्होंने भारत को आर्थिक रूप से कमजोर तो किया ही साथ ही भारत की संस्कृति को भी नष्ट करने के प्रयास किए। इस दौरान ऐसी कई सामाजिक कुरीतियों ने जन्म लिया जो इससे पहले भारत में कभी नहीं थीं। यह भारत के लिए एक चुनौती का ही समय था जब अपने अस्तित्व और संस्कृति की रक्षा करने के साथ ही भारत को अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करना था। तब भारत के लिए सबसे बड़ी संजीवनी भारतीय सांस्कृतिक परंपरा और बौद्धिकता ही थी।

आजादी का मजबूत आधार

मध्यकाल में जबकि भारत के एक बड़े भू-भाग पर मुगलों का शासन था, तब भी भारत के लिए सांस्कृतिक पे्ररणा देने का कार्य भक्ति आंदोलन के माध्यम से हुआ। जो लोग भक्ति आंदोलन को सिर्फ आध्यात्मिकता से जोड़कर देखते हैं वो दरअसल इस आंदोलन के पीछे छिपी गहरी पे्ररक शक्ति का आकलन करना भूल जाते हैं। भक्ति आंदोलन के माध्यम से वैचारिक जागरण और राष्ट्र चेतना का प्रसार महत्वपूर्ण तथा उस काल के लिए अनिवार्य था। भक्ति आंदोलन भारत की बौद्धिक मेधा द्वारा चलाया जाने वाला एक सांस्कृतिक आंदोलन था, जो संकट काल में भारतवासियों को उनके मूल तत्व तथा राष्ट्र गौरव का स्मरण करा रहा था। मुगलों के बाद जैसे-जैसे अंग्रेजों का आधिपत्य भारत में बढ़ने लगा, वैसे-वैसे भारत में सांस्कृतिक पुनर्जागरण के विभिन्न आंदोलनों ने जन्म लिया।

भारत की आध्यात्मिकता तथा दर्शन ऐसी प्रमुख शक्ति बनी, जिसने भारतीयों के मनोबल को ऊंचा उठाने तथा उनके अंदर राष्ट्र के प्रति निष्ठा का भाव जगाने का कार्य किया। भारत में इस दौरान उपजे आंदोलन विश्व में भी अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाते चले गए। स्वामी विवेकानंद तथा महर्षि अरविंद जैसे सांस्कृतिक पुरुषों ने भारत के विराट तत्व को पहचानते हुए विश्व में उसका पे्ररणा आख्यान प्रस्तुत किया। स्वामी विवेकानंद का कथन था कि ‘हमें गर्व है कि हम अनंत गौरव की स्वामिनी इस भारतीय संस्कृति के वंशज हैं, जिसने सदैव दम तोड़ती मानवजाति को अनुप्राणित किया।’ भारत में गुलामी के प्रतिकार के रूप में सांस्कृतिक परंपराओं को पुनर्जीवित कर राष्ट्र जागरण के कार्य को लोकमान्य तिलक जैसे दृष्टा नेताओं ने अंजाम दिया।

भारत का वैश्विक दृष्टिकोण तथा भारत में अंतर्निहित एकत्व की भावना ही वे पे्ररक तत्व रहे, जिन्होंने चुनौती के समय मनोबल बढ़ाने तथा प्रतिकार करने की शक्ति देने का कार्य किया। लोकमान्य तिलक, महर्षि अरविंद और वीर सावरकर जैसे संस्कृति, अध्यात्म और धर्म की ध्वजा को मजबूती से फहराने वाले सेनानी भारत में ऐसी आजादी का स्वप्न लेकर संघर्ष कर रहे थे जिसका आधार भारत की अपनी संस्कृति और वैभव पर टिका हो। सावरकर का यह कथन गौर करने योग्य है कि -‘परतंत्रता तथा दासता को प्रत्येक धर्म ने सर्वदा धिक्कारा है। धर्म के उच्छेद और ईश्वर की इच्छा के खंडन को ही परतंत्रता कहते हैं।’

जयघोष के लिए जरूरी चिंतन

आज जब हम स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूर्ण करने की ओर अग्रसर हैं तब हमें निश्चित तौर पर भारत के विराट को समझने व भारत की सांस्कृतिक अस्मिता को अपने दैनिक चिंतन में लाने की महती आवश्यकता है। हमें इस सोच से बाहर निकलकर कि भारत का अस्तित्व एक स्वतंत्र देश के रूप में 75 साल का है, इस विश्वास पर दृढ़ होना होगा कि भारत उस समष्टिगत चेतना का नाम है जिसका अस्तित्व कई हजार साल पुराना है।

भारत सांस्कृतिक और आध्यात्मिक रूप से विश्व गुरू के रूप में जाना जाता रहा है। भारत की मूल पे्ररक शक्ति उसका स्वाभिमान है जो कुछ 100 वर्षों की गुलामी से मिटाया नहीं जा सकता। हमें उस न्यूनताबोध से भी निकलना होगा जो गुलामी के वर्षों में हमारे अंदर षडयंत्रपूर्वक डाला गया। हमें पराधीनता के दु:स्वप्न को सीमित कर स्वावलंबन के नए क्षितिजों का निर्माण करना होगा। यह भारत पर्व है। हमारा प्रयास हो कि यह सिर्फ स्वतंत्रता के उत्सव का पर्व न होकर गौरवशाली समृद्ध भारत के जयघोष का पर्व बने।

हम सब अतीत के दु:स्वप्न को भुलाकर ऐसे नवनिर्माण का संकल्प लें जिसमें विराट भारतीय संस्कृति और प्रगल्भ बौद्धिकता के दर्शन होते हों और जो विगत के पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर पुन: देवताओं को यह कहने के लिए बाध्य करें कि ‘गायंति देवा: किल गीत कानि, ध्यानस्तु ते भारत भूमिभागे।’

(लेखक भारतीय शिक्षण मंडल के राष्ट्रीय अध्यक्ष तथा इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के सदस्य सचिव हैं)

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