Conservation Of Biodiversity: पर्यावरण एवं जैवविविधता से ही पक्षियों और मनुष्यों का संरक्षण

बर्ड फ्लू जैसी खतरनाक बीमारी ने एक बार फिर देश के कई राज्यों में दस्तक दी है। बड़ी संख्या में अनेक प्रजातियों के पक्षी इसकी चपेट में आ रहे हैं। भारतीय जनमानस को जैवविविधता के महत्व एवं उससे होने वाले फायदों के बारे में बताया जाना चाहिए। फाइल

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Sat, 16 Jan 2021 12:37 PM (IST) Updated:Sat, 16 Jan 2021 12:38 PM (IST)
Conservation Of Biodiversity: पर्यावरण एवं जैवविविधता से ही पक्षियों और मनुष्यों का संरक्षण
जैवविविधता को बढ़ावा देना ही इसका समुचित हल हो सकता है।

शुभम कुमार सानू। Conservation Of Biodiversity भारत विविधताओं का देश है जो प्राचीन काल से ही पर्यावरण एवं जैविक विविधता को विकास के साथ संतुलित करके आगे बढ़ता रहा है। वर्तमान आधुनिकीकरण के दौर में अंध विकास एवं स्व-केंद्रित लालच से प्रेरित मानव प्राकृतिक जैवविविधता को व्यापक रूप से प्रभावित कर रहा है। जैवविविधता संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के अनुसार अनुवांशिकी, प्रजातियों एवं पारिस्थितिकी की विविधता के स्तर को मापने का एक पैमाना है। हमारी धरती पर यह जीवन तंत्र का एक जाल है जिससे अगर एक भी तत्व निकलता है तो पूरे तंत्र पर इसका बुरा असर पड़ता है। जीव तंत्र की विविधता ही प्रकृति को एक वास्तविक प्रकृति बनाती है।

वर्तमान कोरोना काल के दौरान भारत के 10 से अधिक राज्यों में बर्ड फ्लू की दस्तक एवं दहशत जैव विविधता के मद्देनजर भी एक गंभीर समस्या का विषय है। बीते कुछ दिनों में हजारों की संख्या में पक्षियों की मौत हुई है। इससे सबसे ज्यादा प्रभावित आप्रवासी पक्षी हुए हैं। भारत सरकार ने इसकी गंभीरता को देखते हुए सभी राज्यों को सतर्क रहने को कहा है। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आइयूसीएन) 2020 की रिपोर्ट के मुताबिक बीते वर्ष हमने पक्षियों की 31 प्रजातियों को खो दिया है। यह जैवविविधता पर मंडरा रहे खतरे को दर्शाता है।

जैविक विविधता के बिना इस धरती पर जीवन संभव ही नहीं है, क्योंकि विविधता ही मानव को उसके उपयोग के संसाधनों की उपलब्धता प्रदान करती है। समझना होगा कि मानव की मूलभूत आवश्यकताओं की सामग्री जैविक विविधता के अभाव में अकल्पनीय है। रोगों से लड़ने के लिए औषधि उपलब्ध कराने के साथ-साथ यह पर्यावरण प्रदूषण को भी नियंत्रित करता है। शोध, शिक्षा एवं मानव जीवन का विकास प्रकृति एवं उसकी विविधता की मदद से ही संभव है। वैसे तो भारतीय संस्कृति की पहचान जैवविविधता एवं पर्यावरण अनुकूलित जीवन पर ही केंद्रित रही है, परंतु इसमें होने वाले अवमूल्यन के कारण भारतीय संस्कृति की छवि भी धूमिल हो रही है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने बीते वर्ष जैवविविधता दिवस के अवसर पर मनुष्य के लिए इसके महत्व को रेखांकित करते हुए कहा था, मानव की तमाम समस्याओं का समाधान प्रकृति में समाहित है, इसलिए एक बेहतर भविष्य एवं आने वाली पीढ़ियों के बेहतर कल्याण के लिए प्रकृति के साथ हमें बेहतर संतुलन बनाना बहुत ही आवश्यक है। अंतरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ के अनुसार पृथ्वी पर करीब 80 लाख प्रजातियां रहती है जिनमें से 80 प्रतिशत से अधिक जंगलों में निवास करती हैं, परंतु जंगलों की अंधाधुंध कटाई (लगभग 1.3 करोड़ हेक्टेयर प्रतिवर्ष) से लगभग 10 लाख प्रजातियों पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है।

संबंधित रिपोर्ट की चिंता : द वल्र्ड वाइड फंड फॉर नेचर द्वारा जारी 2020 लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट के मुताबिक बीती आधी सदी में कशेरुकी प्रजातियों की जनसंख्या में बड़ी गिरावट दर्ज की गई है। इस रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1970 से 2016 के दौरान इन प्रजातियों की आबादी में लगभग 68 प्रतिशत कमी आई है। वहीं साल 1970 के बाद से मीठे जल में रहने वाली प्रजातियों की जनसंख्या में औसतन 84 प्रतिशत की कमी आई है। स्थलीय एवं समुद्री प्रजातियों की तुलना में इसमें काफी अधिक कमी आई है जिसका मुख्य कारण इंसानों द्वारा मीठे पानी का अत्यधिक दोहन को दर्शाता है।

रिपोर्ट के मुताबिक मानव का इकोलॉजिकल फुटप्रिंट यानी जैविक संसाधनों की मानवीय खपत पृथ्वी की पुनरोत्पादन दर से कहीं अधिक है। मानव की जैव संसाधनों की खपत पृथ्वी के पुनरोत्पादन दर के मुकाबले 1.56 गुना ज्यादा है। इन सभी के साथ वैश्विक स्तर पर 1970 के बाद से अब तक आद्र्र भूमि में लगभग 87 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है। इतना ही नहीं, दुनिया के सबसे बड़े वर्षावन अमेजन में बीते पांच दशकों में लगभग 20 प्रतिशत वन क्षेत्र में कमी आई है। वर्ष 2000 से 2014 के बीच दुनिया भर में लगभग 92 हजार वर्ग किमी वन क्षेत्र यानी पाकिस्तान के क्षेत्रफल जितने बड़े भूभाग से वनों का नाश हुआ है। समुद्रों में बढ़ते प्लास्टिक प्रदूषण ने कोरल रीफ को काफी नुकसान पहुंचाया है। इसके साथ ही समुद्र तटीय क्षेत्रों में मैंग्रोव वनों के क्षेत्रफल में बीते पांच दशकों में 50 प्रतिशत की कमी आई है। प्राकृतिक क्षेत्र को पहुंचाए जा रहे इस प्रकार के सभी नुकसान जैवविविधता के लिए व्यापक खतरा पैदा कर रहे हैं।

लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट 2020 के अनुसार भारत में भी जैवविविधता पर खतरा है। भारत एक जैवविविधता समृद्ध देश है जो विश्व के 2.4 प्रतिशत क्षेत्रफल के बावजूद विश्व की लगभग सात से आठ प्रतिशत यानी 45 हजार प्रजातियों का आश्रय स्थल है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 12 प्रतिशत से अधिक जंगली स्तनधारी प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि मीठे पानी वाले जानवरों जैसे डॉल्फिन, कैटफिश इत्यादि के विलुप्त होने का ज्यादा खतरा है। भारत में लगभग तीन प्रतिशत पक्षियों की प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं एवं इनकी संख्या साल दर साल बढ़ती जा रही है। भारत में लगभग 19 प्रतिशत से अधिक उभयचर गंभीर रूप से खतरे की श्रेणी में हैं। वहीं मधुमक्खियों की संख्या भी साल दर साल घटती जा रही हैं। ये सभी तथ्य भारत में जैव विविधता पर मंडराते खतरे को इंगित करते हैं। इंडियन स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट 2019 के मुताबिक भारत में जंगल का हिस्सा कुल भौगोलिक क्षेत्र का 21.67 फीसद है, जो समुचित प्राकृतिक संतुलन के हिसाब से कुल क्षेत्रफल का 33 फीसद होना चाहिए।

कारक एवं परिणाम : जैवविविधता में क्षय के वैसे तो बहुतेरे कारक हैं, पर सभी के केंद्र में मानवीय गतिविधियां ही हैं। चाहे वह जैव क्षेत्र का आवास विनाश के रूप में हो या प्रदूषण के स्तर को बढ़ाने में या फिर विदेशी मूल के पौधों को नए परिवेश में लाने या पर्यावरण का अत्यधिक शोषण के रूप में हो। गौरतलब यह है कि जो पर्यावरण एवं जैवविविधता मानव को पोषित करती है उसे ही मानव क्यों शोषित कर उसका क्षय कर रहा है। तो इसका उत्तर है बढ़ती जनसंख्या, पर्यावरण शिक्षा का अभाव व लालची मानसिकता। इन सभी का समेकित खमियाजा ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन एवं आपदाओं की आवृत्ति में वृद्धि के रूप में सामने आ रहा है। इंसानों ने जिस प्रकार जल, जंगल एवं जमीन का क्षय किया है, उसी का परिणाम बीती सदी में ब्राजील के जंगलों की भीषण आग, केदारनाथ त्रसदी, आसमान में बादलों की तरह मंडराते टिड्डी दलों का आक्रमण एवं वर्तमान का कोरोना काल है। वर्तमान की कोरोना महामारी हमारे प्रकृति के साथ के प्रतिकूल रिश्ते की एक स्पष्ट अभिव्यक्ति है। पक्षियों की हालिया बीमारी को भी इस नजरिये से देखा जाना चाहिए।

कोरोना जैसी महामारी की बढ़ेगी आशंका : इंसानों में होने वाली बीमारियों में से करीब 75 प्रतिशत जूनोटिक यानी जानवरों से इंसान में आने वाली होती हैं। यह वायरस, बैक्टीरिया, फंगस एवं परजीवी के रूप में आता है। प्राकृतिक जीव तंत्र को नष्ट कर मानव निर्मित जीव तंत्र (जिसमें इंसानों के उपयोग वाले जीवों को बढ़ावा दिया जाता है) बनाने की प्रवृत्ति के कारण जैवविविधता का क्षय हुआ है। जो जानवर इन वायरस बैक्टीरिया आदि को पैदा करने वाले जीवों को संभाल सकते थे, वे अब धरती पर नहीं रहे। सूक्ष्मजीव अपने पुराने मेजबान की अनुपलब्धता में जीवन को आगे बढ़ाने के लिए इंसानों को नया मेजबान बना रहा है जो इसे संभालने में सक्षम नहीं है।

उदाहरण के लिए कोरोना महामारी। वर्तमान महामारी का मूल भी मानव का पर्यावरण व उसके जीव तंत्र को तोड़ने में ही समाहित है। अब तक के शोध के अनुसार कोरोना चमगादड़ को खाने के कारण ही चमगादड़ से मानव में आया और धीरे-धीरे समूचे विश्व में फैल गया। यह मानव को जैवविविधता नाश का एक ज्वलंत दुष्प्रभाव दिखा रहा है।

पर्यावरण एवं जैवविविधता के संरक्षण के लिए राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समय-समय पर कदम उठाए गए हैं। आधुनिक काल में पर्यावरण संरक्षण की पुरजोर आवाज अमेरिका में डीडीटी नामक एक खास रसायन के खतरे से आगाह करती हुई 1962 में किताब द साइलेंट स्प्रिंग के रूप में आई थी। इसके बाद 1972 में आई द लिमिट टू ग्रोथ एवं स्वीडन के स्टॉकहोम में पृथ्वी शिखर सम्मेलन में पर्यावरण के संरक्षण की वकालत की थी। उसी वर्ष भारत में वन्य जीव संरक्षण अधिनियम पारित किया गया था, जिससे देश में राष्ट्रीय उद्यान अभयारण्य एवं बायोस्फीयर रिजर्व का मार्ग प्रशस्त हुआ था।

वर्ष 1973 में बाघों को संरक्षित करने के लिए प्रोजेक्ट टाइगर आया और 1980 में वन संरक्षण कानून। 1993 में ब्राजील के रियो डी जेनेरियो में आयोजित रियो पृथ्वी सम्मेलन, फिर जनवरी, 2000 में स्वीकार किया गया कार्टागेना प्रोटोकॉल एवं 2010 को स्वीकार किया गया नागोया प्रोटोकॉल जैवविविधता संरक्षण के लिए उठाए गए सराहनीय कदम हैं। वहीं 2002 में भारतीय संसद में जैवविविधता संरक्षण अधिनियम पारित किया गया तथा वर्ष 2003 में राष्ट्रीय जैवविविधता प्राधिकरण का गठन किया गया।

इन सबके बावजूद जैवविविधता के स्तर में लगातार गिरावट आ रही है। इसके लिए हमें कुछ अन्य महत्वपूर्ण बिंदुओं पर ध्यान देने की आवश्यकता है। इनमें से प्रमुख हैं मानव जनित अपशिष्ट, चाहे वह डिग्रेडेबल हो या नॉन डिग्रेडेबल उनका उचित निस्तारण जरूरी है, क्योंकि मानव जनित अपशिष्ट से यमुना की जैवविविधता का क्षय हो है। मानव को अपनी लालची प्रवृत्ति को बदलना होगा। ठीक ही कहा था बापू ने, पृथ्वी सभी व्यक्तियों की आवश्यकता की पूíत के लिए पर्याप्त है, लेकिन उसकी लालच की पूíत के लिए नहीं। सामान्य जन की सहभागिता के साथ योजनाओं को आगे बढ़ाना चाहिए। आधुनिक विकास से उपज रहे विनाश को रोकने के लिए पर्यावरण के प्रति संवेदनशील होने की जरूरत है। इसके लिए सरकार, संस्था, समाज एवं व्यक्तियों को अपने स्तर पर ईमानदारी पूर्वक प्रयास करना चाहिए।

[शोधार्थी, दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स]

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