कोरोना है तो क्या, जीवन में कितनी भी आएं चुनौतियां, हमें बस चलते ही जाना है...

थलसेना के पूर्व अधिकारी मेजर देवेंदर पाल सिंह ने बताया कि सीमा पर दुश्मन ने अपने वार से उन्हें छलनी कर दिया और उन्हें मृत तक घोषित कर दिया गया। बाद में उनका जख्‍मी दाहिना पांव काट दिया गया पर अपनी अंदरूनी शक्ति से उन्होंने अपना जीवन गौरवपूर्ण बनाया।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Thu, 05 Aug 2021 12:27 PM (IST) Updated:Thu, 05 Aug 2021 12:27 PM (IST)
कोरोना है तो क्या, जीवन में कितनी भी आएं चुनौतियां, हमें बस चलते ही जाना है...
जब तक आप हकीकत को स्वीकार नहीं करेंगे तब तक आप भ्रम में रहेंगे।

यशा माथुर। देश की सीमाओं पर तैनात शूरवीर सैनिक जब दुश्मनों की गोलियां खाता है और गंभीर रूप से घायल होने के बाद अपने किसी अंग के बेकार होने की खबर सुनता है तो उसकी जिंदगी पूरी तरह से बदल जाती है, इसके बावजूद उसका फौजी जज्बा उसे गर्व से जिंदगी आगे बढ़ाने का रास्ता दिखाता है। आज वह कहते हैं कोरोना है तो क्या, चुनौतियां किसके सामने नहीं आतीं, हमें अपनी जिजीविषा से इतना मजबूत होना है कि समस्याएं घुटने टेक दें। मुश्किलों के बावजूद हमें बस चलते ही जाना है ...

युद्धक्षेत्र में घायल होने के बाद चिकित्सकों को मेरा जीवन बचाने के लिए मेरी एक टांग काटने की जरूरत महसूस हुई। डाक्‍टर हिम्मत जुटा रहे थे कि 24 साल के युवा फौजी को कैसे बताएं कि उसका पैर काटना पड़ेगा? जब उन्होंने मुझसे कहा कि बेटा, आपकी जिंदगी बचाने के लिए हमें आपकी टांग काटनी पड़ेगी तो मैंने उन्‍हें जवाब दिया कि सर, आपको जो भी ठीक लगता है कीजिए क्योंकि मैं जान रहा हूं कि पैर में कुछ भी नहीं बचा है। इस तरह से मेरी जिंदगी बदल गई। बेशक एक कमी आ गई, लेकिन मैंने इसे स्वीकारा। क्योंकि जीवन में तरक्की करने और शांत रहने के लिए नियम है कि आपको अपनी हकीकत को स्वीकार करना ही है। आप अमीर हैं, गरीब हैं, काले हैं, गोरे हैं, छोटे हैं, मोटे हैं, आपके पास कुछ कमी है, आपने अपने अंग को खोया है या परिवार के प्रिय सदस्य को खोया है, ये सब हमारी जिंदगी की हकीकतें हैं, जब तक आप इन्हें नकारते रहेंगे, आपके जीवन में खलबली रहेगी, अशांति रहेगी और कहीं न कहीं तनाव रहेगा। इसलिए सबसे पहला मंत्र है कि जो जैसा है, अच्छा है, उसे गले लगाइए। इससे आपको शांति मिलेगी। अगर इस महामारी में आपने कुछ खोया है तो उसे स्वीकार कीजिए। आप इंसान हैं। सब आपके बस में नहीं है। यह बात आपको स्वीकार कर लेनी चाहिए। मेरी बदली हुई जिंदगी में पहला कदम था स्वीकार्यता। अगर टांग कट चुकी है, तो टांग कटने के पहले ही मेरे दिमाग में यह बात आ चुकी थी कि यह तो कटेगी। जब तक आप हकीकत को स्वीकार नहीं करेंगे तब तक आप भ्रम में रहेंगे।

जगाएं अपनी अंदरूनी शक्ति: इस क्रम में दूसरा कदम है आप जहां है जैसे हैं, जितनी भी समस्याओं के बीच में हैं उसमें अपनी मेहनत से अपनी अंदरूनी शक्ति को जगाइए। आप अपनी मेहनत से समस्याओं को छोटा बना दीजिए। आपको समस्याओं से जूझना नहीं हैं। किसी के खिलाफ लडऩा नहीं है। जब आप किसी के खिलाफ लड़ रहे हैं तो इसका मतलब है कि आपने पहले ही उसे शक्ति दे दी है और आप उसके आगे कमजोर पड़ रहे हैं। आपको अपनी अंदर की शक्ति को बढ़ाना है। मेहनत से अपनी इच्छाओं, विचारों को काबू में करते हुए अपनी अंदर की शक्ति को बढ़ाकर इतने मजबूत हो जाइए कि समस्याएं आपके सामने घुटने टेक दें। यह प्रक्रिया हमारे हर महान ग्रंथ में लिखी है। मन के जीते जीत, मन के हारे हार का जो सिद्धांत है वह सत्य है। जब आप मन से जीतते हैं तो जग को जीत लेते हैं लेकिन अगर मन से हार जाते हैं तो आपकी हार हो जाती है। यह नियमित अभ्यास से ही संभव है। मेरे खयाल से समस्याएं इसीलिए आगे आती हैं ताकि आप इन्हें हराकर मजबूत बन सकें। जितने भी चैंपियन हुए हैं, आप उन्‍हें देख लें। टोक्‍यो ओलिंपिक में आप मीराबाई चानू और लवलीना को देख लीजिए। क्या इन्हें पूरी सुविधाएं मिलीं? नहीं। लोग बोलते हैं इन्हें सुविधाएं देनी चाहिए। मेरा कहना है कि वे चैंपियन थे, उन्हें समस्याओं में झोंका गया तो भी अपनी अंदरूनी शक्ति को बढ़ाकर उन्होंने चैंपियन का तमगा हासिल किया।

प्रेरणा बन गई बदली जिंदगी: चोट लगने के तीसरे दिन मेरे पैर में गैंगरीन हो गया था। सीधे पैर के अंगूठे तक रक्त का संचरण नहीं हुआ और मांस गलने लगा। अखनूर के छोटे अस्पताल से मुझे उधमपुर कमांड अस्पताल लाया गया। उससे पहले डाक्टर्स ने पैर की कांट-छांट कर दी थी। जब मैं उधमपुर पहुंचा और मेरे पैर की पट्टी खुली तो मुझे नजर आया कि पांव में घुटने तक मांस वगैरह कुछ है ही नहीं। मैं समझ गया कि पांव में कुछ बचा ही नहीं तो यह कटेगा ही। मेरे दिल में दो खयाल आए, एक आध्यात्मिक था जिसे मैं भगवान का आशीर्वाद मानता हूं कि अब इस नई चुनौती का सामना कैसे करूंगा? शायद इस बदली हुई जिंदगी को ऐसे जी पाऊंगा जो मेरे लिए भी अच्छी होगी और दूसरों को भी प्रेरित करेंगी। यह तब की बात है जब मुझे पांव कटवाना था लेकिन आज देखें तो वह खयाल अब सच्चाई बन गया है। जो विचार उस युवा सैन्य अधिकारी के दिमाग में आया वह बहुत शक्तिशाली था और शायद किसी सुपर पावर का दिया हुआ था। आम इंसान के मन में ऐसे विचार आ नहीं सकते। दूसरा विचार मेरा खुद का था जिसमें मैंने खुद से वादा किया था कि मैं कभी अपनी जिंदगी में अपने जीवन स्तर और गुणवत्ता से समझौता नहीं करूंगा। जैसे बिंदास जिया हूं वैसे ही आगे भी जिंदगी जिऊंगा। खुद से किए इस वादे ने मुझे उस रास्ते पर चलाया कि मेरा पहला विचार हकीकत बना।

रुकना नहीं है कभी: यह सही है कि दिव्यांगता में काफी चुनौतियां सामने आती हैं लेकिन हर कोई जिंदगी में चुनौतियों का सामना करता है। जिसे ड्राइविंग नहीं आती उसके सामने वाहन चलाना चुनौती है। जिसे कुछ पकाना नहीं आता उसके लिए खाना बनाना एक चुनौती है। जिसे बौद्धिक दिव्यांगता है उसके लिए वह भी चुनौती है। चुनौती तो चुनौती है। हर इंसान के सामने अलग-अलग चुनौतियां हैं। अब आपको इन चुनौतियों का सामना करना है और इनसे जीतना है। यह आपका सोच है। सोचने की शक्ति सभी के पास है। लेकिन अगर आप नकारेंगे तो इससे कोई फायदा नहीं है। इस दुनिया में कोई भी नहीं कह सकता कि मैं सबसे बढिय़ा हूं। लेकिन मैं इस बात को गर्व से बोलता हूं कि मैं सबसे भाग्यशाली हूं। क्योंकि यह सोच पर निर्भर करता है। मुझे लगता है कि मुझे जिंदगी में चुनौतियां मिलीं ही इसलिए हैं ताकि मैं ऊपर उठ सकूं। मैं वह विशेष व्यक्ति हूं जिसे ईश्वर ऊपर उठाना चाहते थे। मेरी एनजीओ का एंथम है 'आइ माइट बी स्लो, बट आइ विल कीप माई फ्लो। आइ वांट्स टाप, एंड आइ रीच द टाप'। इसका मतलब यही है कि जिंदगी में चलते रहना है। मैं रूकूंगा कभी नहीं। जब तक सर्वोत्तम ऊंचाई नहीं पा लूंगा।

सैनिक सदा देश की सोचता है: मैं जब सन् 2000 में दौड़ा तो उस समय ऐसे दौडऩे वाला कोई नहीं था। मैं उस टांग से दौड़ा जो दौडऩे के लिए बनी ही नहीं है। तो यह उदाहरण सेट होने लगा कि यह मुमकिन है। इसके बाद मुझे 2011 में भारतीय सेना ने अत्याधुनिक कृत्रिम पैर दिया तो मैं उससे भी दौड़ लिया। तब मुझे लगा कि यह तुक्के नहीं लग रहे हैं। यह मुमकिन है। अब मेरे जैसे जो भाई-बहन हैं उन्हें मुझे नया नजरिया देना है। उन्हीं दिनों में मेरा भी मन हुआ कि मैं पैरालिंपिक्स में जाऊं लेकिन उस समय बड़ा ही दुर्भाग्य था कि भारत में पैरालिंपिक कमेटी निष्क्रिय थी। यह तो भारतीय सेना ने पेरालिंपिक मोड बना लिया जिससे भारत को मेडल मिलेंगे और इनमें फौजी ज्यादा होंगे। मेरी उस तरफ जाने की इच्छा तो थी लेकिन मुझे लगा कि इससे बेहतर है कि अपने जैसे भाई-बहनों को तैयार करूं। जब एक से सौ और सौ से हजार बनेंगे तो मांग बढ़ेगी और व्यवस्था में विकास होगा। दूसरी बात थी कि उस समय जो कंपनियां कृत्रिम पांव बनाती थीं उनका सोच भी तिरस्कार से भरा होता था कि जैसा मिल रहा है वैसा ही ले लो। हम और कुछ नहीं कर सकते। हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं है। उस संकुचित सोच को बदलने के लिए भी मुझे मांग बढ़ानी थी। एक तरफ तो था कि मैं पैरालिंपिक में चला जाऊं और दूसरा था कि ऐसा माहौल बनाऊं कि हजारों और जाने लायक हो जाएं। लेकिन एक सैनिक हमेशा देश के बारे में सोचता है। मैंने भी देश को आगे रखकर सोचा। 2011 में 'द चैलेंजिंग वंस' नाम से एक समूह बनाया, जिसमें भारतीय दिव्यांगों को फौजी जुझारू दिमाग और विचार देने के बारे में सोचा। धीरे-धीरे उनके अंदर आग पैदा की, जुनून पैदा किया और आज बदलाव सामने हैं। दिव्यांग गर्व से घूमते हैं, बाइकिंग, हाइकिंग, बैडमिंटन, स्विमिंग कर रहे हैं। अगर मेरी टांग नहीं कटती तो शायद मैं इस तरफ नहीं बढ़ पाता।

सोच को दें सकारात्‍मक मोड़: जिंदगी में स्वावलंबन कुछ हद तक अच्छा होता है लेकिन कहीं न कहीं हमें उच्च शक्ति की ओर झुकना आना चाहिए। बड़े से बड़ा पेड़ भी तूफान के आगे झुकता है। हमारे किसी भी ग्रंथ को देखिए, उसमें लिखा गया है कि जीवन नाशवान है, जो एक दिन खत्म होगा ही। जब से हम भौतिकवादिता की ओर भाग रहे हैं, हमारी आध्यात्मिक शक्ति कम हो गई है। इस कारण हम नकारात्मकता में रहते हैं। जो हुआ है उसको भी नकारते रहते हैं या फिर किसी को दोष दे देते हैं। यहां तक बोल देते हैं कि जब हम कुछ कर ही नहीं पा रहे हैं तो ईश्वर कहां है? मुझे लगता है कि कोई तो सुपर पावर है जो प्रकृति में संतुलन लाता है तो बवंडर भी लाता है और उससे आपको बचाता भी है। ऐसा नहीं है कि मेरे भीतर कभी नकारात्मक सोच नहीं आता है। मुझे भी अवसाद होता है, गुस्सा आता है, निराशा होती है लेकिन उन पलों को अपने स्वस्थ सोच व विचारों से बदलने की कोशिश करता हूं। मैं नकारात्मक विचार को रोकता नहीं हूं बल्कि उसे सकारात्मक में तब्दील कर देता हूं। जब आप नकारात्मक विचार को सकारात्मक में बदलने की कोशिश करेंगे तो धीरे-धीरे यह आदत बन जाएगाी और आप नकारात्मक विचारों में रहना कम कर देंगे। इन्हें बदल डालेंगे। जब आपको सकारात्मक विचार बनाने आ जाएंगे, तो आपको उस सोच के अनुसार जिंदगी बनानी भी आ जाएगी।

चोट ने संवार दी जिंदगी: मैं अखनूर सेक्टर की निंयंत्रण रेखा पर सभी वीर जवानों की तरह एक पोस्ट पर तैनात था। उस पोस्ट पर अपने जवानों के साथ देश की रक्षा कर रहा था। दुश्मन की पोस्ट अस्सी मीटर दूर थी। दुश्मन को मैं तंग करता था तो उन्होंने दो दिन तक गोलाबारी रोककर मेरी पोस्ट को रेकी की और प्लान बनाया कि इसे अब मारना जरूरी है क्योंकि यह बहुत ज्यादा तंग कर रहा है। दो दिन बाद जब गोलाबारी हुई तो पहला गोला तो मेरे पास नहीं आया लेकिन दूसरा मेरे नजदीक आकर ही फटा, जिसके कुछ छर्रे मेरे शरीर में धंस गए। कुछ काटकर चले गए। तिहत्तर छर्रे अभी भी मेरे शरीर में मौजूद हैं। मैं युद्धक्षेत्र में लहूलुहान हो गया। बेहोश हो गया। सात डोगरा रेजीमेंट के मेरे शूरवीर सैनिकों ने अपनी जान पर खेलते हुए मुझे युद्धक्षेत्र से उठाकर नजदीकी अस्पताल तक पहुंचाया। मुझे ढाई घंटे लगे थे अस्पताल पहुंचने में। तब तक बहुत सारा खून निकल चुका था। इस बीच मुझे दिल का दौरा भी पड़ गया था। सर्जन ने बोल दिया कि यह मृत शरीर है। लेकिन लेफ्टिनेंट कर्नल राजिंदर सिंह, जो एनेस्थिसिस्ट थे, उन्होंने छोड़ा नहीं और अपने जूझारूपन से मुझमें कहीं कोई जान देखी और निर्जीव बता दिए गए शरीर को जीवित कर दिया। बस उसी दिन से मेरी बदली जिंदगी शुरू हो गई और जिंदगी बहुत अच्छी चल रही है। जो कुछ मैंने हासिल किया है वह चोट लगने की वजह से ही हासिल किया है। अगर आज कोई मुझसे पूछे कि आपकी जिंदगी में सबसे अच्छा क्या हुआ है, तो मैं गर्व से कहूंगा कि मुझे चोट लगना, क्योंकि उसने मेरी जिंदगी संवार दी।

जिंदगी में संतुष्टि ढूंढ़े, कमी नहीं: हरिद्वार के देव संस्कृति विश्वविद्यालय के डीन एकेडमिक्स प्रो. ईश्वर भारद्वाज ने बताया कि हम अपने जीवन में हमेशा असंतुष्ट रहते हैं। हमें जो भी प्राप्त हुआ है हम उसमें कमी ढूंढ़ते हैं। जो मिला है उसी में हम संतुष्ट हों। आनंद की अनुभूति करें। जब हम दूसरे का सुख देखकर दुख महसूस करते हैं तो हमें अपने सुख की भी अनुभूति नहीं होती। हम सोच से तालमेल नहीं बिठा पाते तो मानसिक रोगी बन जाते हैं। बेहतर बनने का प्रयास करते रहें और उससे जो प्राप्त हो उससे प्रसन्न रहें। अगर आप मानसिक रूप से संतुष्ट नहीं रहेंगे तो शारीरिक तौर पर भी दुखी ही रहेंगे। मन व शरीर एक-दूसरे पर आश्रित है। मन खुश तो तन खुश। मन का प्रभाव शरीर पर, तन का प्रभाव है मन पर। मैं जीवन में योग को जीता हूं। मैं हर वक्त उन्मुक्त रहता हूं अपने आप में स्वतंत्र। किसी बंधन में नहीं बंधा हूं। जिम्मेदारियां भी पूरी करता हूं और परमात्मा में भी लीन रहता हूं। परमात्मा मेरे निकट रहता है। मुझे मृत्यु का खौफ भी नहीं है। मैं अपने आप में संतुष्ट व्यक्ति हूं, जिसे कोई तनाव नहीं है।

[थलसेना के पूर्व अधिकारी एवं मोटिवेशनल स्‍पीकर मेजर देवेंदर पाल सिंह]

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