महामारी के दौर में जब चहुंओर अन्न का अभाव हो, ऐसे में राशन सड़ाने पर आप का मौन ठीक नहीं

महामारी के दौर में जब चहुंओर अन्न का अभाव हो ऐसे में उसकी हजारों टन बर्बादी मानवता के दृष्टिकोण से घोर अपराध है। ऐसी स्थितियों से बचा जा सकता था बशर्ते समय रहते सरकार जाग गई होती और इस संबंध में संज्ञान लिया होता।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Sat, 12 Jun 2021 10:52 AM (IST) Updated:Sat, 12 Jun 2021 10:53 AM (IST)
महामारी के दौर में जब चहुंओर अन्न का अभाव हो, ऐसे में राशन सड़ाने पर आप का मौन ठीक नहीं
अनाज रखे-रखे खराब हो जाए, उससे बेहतर है कि उसे गरीबों में बांट दिया जाए। फाइल

मनु त्यागी। उस दिन से आपके गले से कौर कैसे उतर पा रहा है जबसे देश की राजधानी दिल्ली में 647 टन यानी 60 हजार लोगों का एक माह का राशन रखे-रखे सड़ जाने की खबर आई। ऐसे महामारी के दौर में ऐसा जघन्य अपराध भला कोई कैसे कर सकता है कि 60 हजार लोगों को अनाज देने के बजाय उसे सड़ने के लिए छोड़ दें। क्या मंशा हो सकती है इसके पीछे।

महामारी के इस दौर में सभी राज्य सरकारों ने कम-ज्यादा अपने राज्य में जरूरतमंदों के लिए राशन की व्यवस्था की। लेकिन उसी दिल्ली में ऐसा होना, जहां पिछले वर्ष कोरोना की पहली लहर में लोग रोजी के साथ रोटी के संकट में यहां से अपने गांवों की ओर उम्मीद भरी राहों पर चले गए थे। लाखों लोगों का हुजूम सड़कों पर उतर आया था। और हमने उसी दौरान प्रधानमंत्री राहत कोष से मिले अनाज को सड़ाना मुनासिब समझा बजाय उन लोगों को बांटने के। सोचिए यदि उस कठिन घड़ी में हजारों लोगों को एक माह का अनाज दे दिया जाता तो कितनों का पेट भरता।

पिछले वर्ष अप्रैल में आया यह अनाज जुलाई-अगस्त तक वितरित हो जाना चाहिए था, लेकिन यह क्यों नहीं बंट पाया, इसके बारे में किसी भी अधिकारी को कुछ पता तक नहीं है। सभी बगले झांक रहे हैं। इस राशन को सड़ाने के पीछे की मंशा ने बहुत सारे सवाल खड़े कर दिए हैं। सिलसिला सिर्फ 60 हजार लोगों के राशन को सड़ाने तक नहीं थमा है। कहते हैं न कि धीरे-धीरे भ्रष्टाचार की परतें खुलती हैं, वही हुआ एक के बाद एक सिर्फ दक्षिणी दिल्ली लोकसभा क्षेत्र में ही 25 से ज्यादा स्कूलों में 10 हजार टन अनाज सड़ चुका है। पिछले वर्ष 80 लाख लोगों के लिए केंद्र सरकार की ओर से गेहूं, चावल, दाल के रूप में यह राशन दिल्ली सरकार को मुहैया कराया था। अनाज सड़ रहा है, आप मौन हैं। ये ऐसे आंसुओं के सवाल हैं जो उस अनाज भंडारण स्थल से बहुत दूर नहीं थे। मसूदपुर के प्राथमिक विद्यालय जहां अनाज का भंडार था, उसी के आसपास जहां वोट मांगने के लिए नेतागण भ्रमण करते रहे हैं, वहीं झोपड़ी में रहने वालों को दो वक्त की रोटी मयस्सर करा देते।

लेकिन देखिए इस कृत्य के बाद भी सरकार से लेकर फूड इंस्पेक्टर, खाद्य अधिकारी चुप्पी साधे हैं। कोई जांच नहीं। जरूरतमंद के हक का निवाला यूं सड़ाना फलता नहीं है। एक साल में आखिर किसी को पता ही नहीं लगा? ऐसा संभव नहीं है, यह तो जानबूझकर किया गया कृत्य ही प्रतीत होता है। क्या पिछले वर्ष केंद्र से कितना अनाज आया कितना बांटा इसका आडिट तक नहीं हुआ? दिल्ली सरकार तो कोरोना काल में अपनी राशन योजना के साथ केंद्र की प्रधानमंत्री राहत कोष से मिले इस अनाज को भी वितरित करके ज्यादा से ज्यादा लोगों की मदद कर सकती थी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। राजनीति होनी चाहिए, स्वस्थ तरीके से होनी चाहिए। जरूरतमंद का निवाला इसकी भेंट नहीं चढ़ना चाहिए। आपने सिर्फ वो प्रधानमंत्री राहत कोष का अनाज है, इसलिए वितरित नहीं किया तो ये और भी बड़ा सवाल है।

कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर में आप लगातार केंद्र के साथ मिलकर काम करने, मानवीय जरूरतों पर राजनीति नहीं करने की सलाह देते रहे। अब भला राशन से बड़ी कोई मानवीय जरूरत हो सकती है? वह भी महामारी के संकट में। दूसरी लहर का तो प्रकोप भी कितना भयावह रहा। ऐसे हालात में कितने घर, कितने दिन भूखे सोए। आप मौन रहे अब उपराज्यपाल को कार्रवाई का आदेश देना पड़ा। उम्मीद तो नजर आती है, अन्न बर्बादी की जांच किसी सफल परिणाम तक पहुंचेगी, लेकिन सवाल तो ये अहम है कि आखिर जरूरत के समय जरूरतमंदों को अन्न क्यों नहीं दिया गया। उन्हें भूखे पेट क्यों रखा गया?

हम अपनत्व की बात करते हैं, सत्ता में आने से पहले स्वराज का भी वादा किया था, लेकिन सवाल आश्रय गृहों में बंटने वाले भोजन पर भी उठे हैं। बीते माह की बात है दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड ने होई कोर्ट में दिल्ली के 205 आश्रय गृहों में तीन वक्त के भोजन की बात की। बात जब अदालत की चौखट तक पहुंची है तो कोई मामूली वजह नहीं रही होगी।

आश्रय गृहों के तो मायने ही यही हैं कि किसी व्यक्ति ने इसमें आश्रय ली है तो उसे दिनभर के खाने की चिंता नहीं करनी होगी। छह हजार से ज्यादा लोग इन आश्रय स्थलों में रहते हैं, और ये तो उस जरूरतमंद आबादी का मुट्ठी भर ही हिस्सा है। आखिर हम उनका वोट पाने के लिए तो उन्हें सपने दिखा सकते हैं। लेकिन उनकी सेहत के लिए पौष्टिक भोजन उपलब्ध नहीं करा सकते? अदालत में लगी सुधार बोर्ड की याचिका भी आई गई हो गई दिखती है। तीन वक्त का खाना तो बहुत दूर की कौड़ी है, दिल्ली सरकार तो इस संबंध में भेजे गए नोटिस पर भी मौन साधे रह गई। 60 हजार लोगों का अनाज सड़ा सकते हो, छह हजार लोगों को पौष्टिक भोजन नहीं दे सकते, तो क्या ऐसे में एक जरूरतमंद खुद को ठगा नहीं महसूस करेगा?

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